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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की मंत्र की विलक्षण शक्ति

गायत्री की मंत्र की विलक्षण शक्ति

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15486
आईएसबीएन :00000

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गायत्री मंत्र की विलक्षण शक्तियों का विस्तृत विवेचन

यह रत्न भण्डार किसे मिलेगा?

 

विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मां शेवधिष्टेऽहमस्मि। 

- वशिष्ठ स्मृति 

''ब्रह्मविद्या-गायत्री ब्राह्मण के पास पहुँची और बोली मैं तेरा खजाना हूँ''

ब्राह्मण को भौतिक जीवन में भले ही निर्धन या अभावग्रस्त रहना पड़ता हो, पर उसके पास आत्मिक सम्पन्नता इतनी प्रचुर मात्रा में होती है कि वह अपना ही नहीं दूसरे असंख्यों का भी कल्याण कर सकता है। अपने ही नहीं दूसरों के जीवन को भी आनन्द एवं उल्लास से परिपूर्ण कर सकता है। स्वयं तो रोग-शोक रहित होता ही है दूसरों को भी निरामय, नि:शुल्क, निर्भय एवं निर्मल बना सकता है। जिसके निज के पास विभूतियों का भाण्डागार भरा पड़ा हो, उसके लिए दूसरों की छुट-पुट सहायता कर सकना कुछ विशेष कठिन नहीं होता।

तपकल्प तत्त्वदर्शी ऋषियों के सम्पर्क एवं आशीर्वाद से अनेकों का भला होते नित्य ही देखा जाता है। यह अजस्र अनुदान वितरण करने की क्षमता उस ब्राह्मण को कहाँ से आती है, उसका रहस्योद्‌घाटन उपरोक्त कण्डिका में किया गया है। ब्रह्मविद्या-गायत्री, ब्राह्मण के पास पहुँची और उसे उद्‌बोधन करते हुए कहा-''मैं ही तेरा खजाना हूँ'' ऐसा खजाना जिसमें प्रत्येक स्तर की श्री, समृद्धि और सफलता प्रचुर परिमाण में भरी पड़ी है। ऐसे खजाने का पता जिसे लग जाए अथवा जो उसके उपयोग का अधिकारी बन जाय उसे भला कमी रहेगी भी किस बात की? उसकी शक्ति एवं सामर्थ्य की सीमा भी क्या रहेगी? ब्राह्मण द्वारा अपना और दूसरों का असीम उपकार इसी आधार पर होता है। परा और अपरा महाशक्तियों का बीज रहस्य जिसके हाथ लग गया हो, उसे इस संसार की कौन-सी विभूति उपलब्ध होने से बच सकती है।

महाशक्ति का यह महान् भाण्डागार सबके लिए खुला नहीं है। खजाने की ताली विश्वस्त खजांची के हाथ में रहती है। हर कोई उसे अपने पास रखने का अधिकारी नहीं होता उसी प्रकार गायत्री का वास्तविक एवं परिपूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए साधक को अपना ब्राह्मणत्व परिपक्व एवं परिपुष्ट करना होता है। उस महती अनुकम्पा को करतलगत करने से पूर्व इस बात की परीक्षा देनी होती है कि वह ब्राह्मण है या नहीं? जो इस कसौटी पर खरा उतरता है उसे गायत्री महाशक्ति का साक्षात्कार होता है। और वह सब कुछ मिल जाता है जो भगवती के पास है।

गायत्री उपासना का छुट-पुट लाभ हर कोई उठा सकता है। सकाम उपासनाएं बीज मंत्रों का प्रभाव, अनुष्ठान एवं पुरश्चरणों की श्रृंखला अपने ढंग के लाभ प्रदान करती रहती है। उनके द्वारा साधक के छुट-पुट कष्ट दूर होने एवं अभीष्ट सफलताएँ प्राप्त होने का क्रम चलता रहता है। ऐसे लाभ और चमत्कार आये दिन देखने को मिलते रहते हैं, पर यह सब छोटे स्तर की वस्तुएँ हैं। अमुक कष्ट को दूर कर लेना या अमुक सफलता को प्राप्त कर लेना कोई बड़ी बात नहीं है। ऐसा लाभ तो भौतिक प्रयत्नों से भी प्राप्त किया जा सकता है। उपासना का लाभ तो अन्तरात्मा को अनन्त सामर्थ्य से भर देना और चन्दन वृक्ष की तरह स्वयं ही सुगन्धित होने के साथ-साथ समीपवर्ती झाड़-झंखाड़ों को भी अपने ही समान सुरभित कर देना है। ऐसा उच्चस्तरीय लाभ प्राप्त करने के लिए मनुष्य को ब्राह्मणत्व के अनुरूप गुण, कर्म, स्वभाव अपने में उत्पन्न करने पड़ते हैं। तभी यह खजाना मिलता है, जिसके लिए ब्रह्मविद्या ने ब्राह्मण का उद्‌बोधन करते हुए उसे उस महान् भाण्डागार को हस्तगत कर लेने की प्रेरणा की है।

गायत्री महामंत्र में जिन देवशक्तियों का समावेश है, वे सत्पात्र पर ही अवतरित होती हैं। स्वर्ग से उतरकर गंगा पृथ्वी पर आईं, तो उनके धारण करने के लिए शिवजी को अपनी जटाएँ फैलाकर अवतरण की पृष्ठभूमि तैयार करनी पड़ी थी। भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर गंगा ने पृथ्वी पर उतरने का वरदान तो दिया था, पर साथ ही यह भी कह दिया था कि यदि मेरी धारा को सँभालने वाली भूमिका न बनी, तो धारा पृथ्वी

में छेद करती हुई पाताल को चली जायेगी, उसका लाभ भूलोकवासियों को न मिल सकेगा। इस आवश्यकता की पूर्ति जब शंकर भगवान् ने कर दी तभी गंगा अवतरण संभव हो सका। गायत्री महाशक्ति की भी ठीक यही स्थिति है, उसे धारण करने के लिए समर्थ पृष्ठभूमि की अनिवार्य रूप से आवश्यकता है और इस आवश्यकता की पूर्ति ब्राह्मणत्व के गुण-कर्म-स्वभाव से संपन्न साधक ही कर सकता है। ऐसा ब्राह्मण मंत्र की महाशक्ति को अपने में धारण कर सकता है और उससे व्यक्ति एवं समाज का महान् उपकार साध सकता है। कहा भी है-

देवाधीनं जगत्सर्वं मंत्राधीनाश्च देवता।
ते मंत्रा ब्राह्मणाधीनास्याद विप्रो हि देवता।।

- मत्स्य पुराण 

''देवताओं के अधीन सब संसार है। देवता मंत्रों के अधीन हैं। वे मंत्र ब्राह्मण द्वारा प्रयुक्त होते हैं, इसलिए ब्राह्मण भी देवता।''

महर्षि वशिष्ठ इसी प्रकार के सुर, पृथ्वी के देवता थे। उनके पास नन्दिनी कामधेनु-अर्थात् गायत्री महाशक्ति थी। राजा विश्वामित्र के साथ जब वशिष्ठ का युद्ध हुआ और राजा की विशाल सेना परास्त हो गई, तो विश्वामित्र के मुख से यही निकला-''धिग् बल क्षत्रिय बलं-ब्रह्म तेजी बलम् बलम्'' अर्थात् भौतिक बल धिक्कारने योग्य तुच्छ एवं नगण्य है। वास्तविक बल तो ब्रह्मबल ही। वही मंत्र बल है वही सच्चा बल है। यह कहते हुए विश्वामित्र ने राजपाट परित्याग कर दिया और ब्रह्मबल प्राप्त करने के लिए तप करने लगे।

यहाँ किसी बिरादरी की चर्चा नहीं की जा रही है। हर बिरादरी में हर स्तर के लोग पाये जाते हैं। यहाँ गुण, कर्म, स्वभाव से ब्राह्मणत्व अपने भीतर विकसित कर सकें, उन्हीं साधकों की चर्चा की जा रही है और उन्हीं के लिए ब्राह्मण शब्द प्रयुक्त किया जा रहा है। वे ही मंत्रशक्ति के अधिकारी हो सकते हैं। शास्त्रकार ने कहा है-

ये शान्तदाता: श्रुतपूर्णकर्णाः
जितेन्द्रिया: प्राणिब्यथान्निवृत्ता:।
प्रतिग्रहे संकुचिताग्रहस्तास्ते
ब्राह्मणास्तारयितुं समर्था:।।

- ब्रह्मवैवर्त

''जो ब्राह्मण शान्त, दाता, वेदज्ञ, जितेन्द्रिय, दयालु, दान लेने वाले हैं वे ही दूसरों का उद्धार कर सकते हैं।''

ब्राह्मणा-समद शान्ते दीनानां समुपेक्षक:।
सवते ब्रह्म तस्यापि भिन्न भाण्डात् पयोयथा।।

-कात्यायन

''जो ब्राह्मण समदर्शी, शान्तिवादी आदि का बहाना लेकर दीन दुःखियों की उपेक्षा करता है, सेवा से जी चुराता है, उसका ब्रह्मज्ञान वैसे ही नष्ट हो जाता है, जैसे फूटे बर्तन में से पानी टपक जाता है।''

अतपास्लनधीयान: प्रतिग्रहरुचिर्द्विज:।
अम्भस्यश्मप्लवेनेव सह तेनैव मजति।।

-मनुस्मृति

''ज्ञान और सेवा भाव से शून्य ब्राह्मण यदि दान लेता है, तो वह उस दान देने वाले के साथ ही इस प्रकार डूब जाता है (नरकगामी होता है) जैसे पत्थर की नाव में बैठा मनुष्य नौका समेत डूब जाता है।''

तपो विद्या च विप्रस्य नि:श्रेयसकर परम्।
तपसा किल्विष हन्ति विद्ययाऽमृतमश्नुते।।

- मनुस्मृति 

''ब्राह्मण के लिए तप और विद्या दोनों अत्यन्त श्रेयस्कर हैं। तप से पापों का नाश होता है और विद्या से अमर जीवन की प्राप्ति होती है।''

ब्राह्मण की मान्यता, भावना एवं आकांक्षा किस स्तर की होती है? इसका दिग्दर्शन, परिचय नीचे के श्लोकों में देखें।

याचे न कञ्चन न कञ्चन वंचयामि
सर्वे न कञ्चन नरस्तसमस्तदैन्य:।
श्लश्णंवसे मधुरमद्यि भजे वरस्त्रीं,
देवीहृदियदि स्फुरति मे कुल कामधेनु:।।

(नीति दर्शन सार)

मैं किसी से याचना नहीं करता, न किसी को ठगता हूँ न किसी की नौकरी करता हूँ तो भी मुझे कभी दीन होकर नहीं रहना पड़ता, क्योंकि सुन्दर वस्त्र, मधुर भोजन, श्रेष्ठ स्त्री- ये सब चमत्कार मेरे हृदय में नित्य स्फुरणा करने वाली मेरे कुल की कामधेनु ब्रह्मविद्या स्वरूपिणी देवी के ही हैं।

निर्धनोऽपि सदा तुष्टोऽप्यसहायो महाबल:।
नित्यतृप्तोदुप्यभुझाना सर्वत्र समदर्शिनः।।

(नीति दर्शन सार)

''निर्धन होने पर भी सदैव सन्तुष्ट रहता है असहाय होने पर भी महाबलिष्ठ होता है, उपवासी होने पर भी नित्य तृप्त रहता है, वही सच्चा ब्राह्मण है।"

ब्राह्मणेत्तर वर्ण भी गायत्री उपासना का लाभ उठा सकते हैं, उसकी चर्चा शास्त्रों में जगह-जगह उपलब्ध होती है। यथा-

सोमादित्यान्वया: सर्वे राधवा: कुरवस्तथा।
पठन्ति शचयो नित्य सावित्रीं परमां गतिम्।।

- महाभारत

हे युधिष्ठर ! सम्पूर्ण चन्द्रवंशी, रघुवंशी तथा कुरुवंशी नित्य ही पवित्र होकर परमगतिदायक गायत्री मंत्र का जप करते हैं।

तस्यर्षे: परमोदारं वचःश्रुत्वा नरोत्तमी।
स्नात्वा कृतादिको वीरो जपेतुः परमं जपन्।।

- वाल्मीक रामायण

परम उदार ऋषि के वचन सुनकर राम-लक्ष्मण दोनों भाई स्नान आचमन करके गायत्री का जप करने लगे।

प्रभावेणैव गायन्याः क्षत्रिय: कौशको वशी।
राजर्षित्वं परित्यज्य बह्वर्षिपरमीयिवान्।।
सामर्थ्यं प्राप चात्युच्चैरन्यद भुवनसर्जने।
कि कि न दद्यात्‌गायत्री सम्यगेवमुपासिता।।
क्षत्रिय विश्वामित्र ने राजर्षि पद से उन्नति करते हुए ब्रह्मर्षि पद गायत्री मंत्र की उपासना से ही प्राप्त कर लिया तथा दूसरी सृष्टि रच डालने की भी शक्ति प्राप्त की थी। भली प्रकार साधना की हुई गायत्री भला कौन सा ऐसा अभीष्ट लाभ है, जिसे प्राप्त नहीं करा सकती?

वंदे तां परमां देवीं गायत्रीं वरदां शुभाम्।
यत्कृपालेशतो यान्ति द्विजा वै परमां गतिम्।।
उस वरदात्री परम देवी गायत्री को नमस्कार है, जिसकी लेश मात्र कृपा से द्विज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य परमगति को प्राप्त करते हैं।

उपर्युक्त अभिवचनों में ब्रह्मणेतर जातियों द्वारा गायत्री उपासना करने और उसके आधार पर परम सिद्धियाँ प्राप्त करने का वर्णन है। इससे स्पष्ट है कि जातिगत बन्धन लगाने का शास्त्रों में कोई उल्लेख नहीं है। केवल इतना ही कहा गया है कि जो इस महाशक्ति का वास्तविक लाभ उठाना चाहें, वे अपने आन्तरिक एवं व्यावहारिक जीवन में ब्राह्मणत्व की विशेषताएं उत्पन्न करें। जो इस दिशा में प्रयत्नशील रहे हैं, उन्होंने इतना कुछ पाया है कि स्वयं धन्य हुए हैं और दूसरों को धन्य बनाया है। जिन्होंने जप ध्यान तक ही अपने को सीमित रखा, वे लौकिक जीवन में छुट-पुट समृद्धियाँ प्राप्त न कर सके। कारण स्पष्ट है। शारीरिक और मानसिक अनाचार बरतने से आत्मशक्ति का इतना क्षरण हो जाता है कि साधक मटियाले सर्प की तरह निस्तेज ही रहता है। किसी मंत्र-तंत्र के सहारे भी अपना आन्तरिक वर्चस्व बढ़ाने का अवसर नहीं मिलता। आज के अगणित पूजा-भजन में संलग्न व्यक्ति इसी प्रकार तेज रहित जीवन बिता रहे हैं। उनने उपासना को सरल जानकर उसे तो अपनाया पर जीवन शोधन की कठिन प्रक्रिया से बचते, कतराते रहे। ऐसे लोगों को आत्मबल और उसके आधार पर मिलने वाली महान् उपलब्धियाँ भला मिलें भी तो कैसे और अपने आशीर्वाद से किसी का भला कर सकें तो कैसे?

देखा जाता है कि अभी भी कितने व्यक्ति गायत्री -उपासना करते हैं और उसके फलस्वरूप ज्ञान एवं विज्ञान की उपलब्धि चाहते हैं, किन्तु गायत्री मंत्र की कछ कहने लायक सफलता नहीं मिलती। इसका कारण उनके उपासना क्रम का अधूरापन ही है। साधारण साधना का विधि-विधान शास्त्रों की मामूली जानकारी किन्हीं प्रामाणिक अन्यों के आधार पर की जा सकती है। उन्हें कर सकना भी कुछ विशेष कठिन नहीं है। लोग करते भी हैं, कर भी रहे हैं, पर साधारण कठिनाइयों या मामूली सी कामनाओं की पूर्ति के अतिरिक्त वस्तुत: कोई इतना प्रभाव उन्हें नहीं दीखता, जिससे यह अनुमान लगाया जा सके कि गायत्री महामंत्र के माध्यम से वेदों में वर्णित आत्मविद्या के असंख्य चमत्कारी लाभों में से - ऋद्धियों -सिद्धियों में से कुछ की उपलब्धि वे कर सकेंगे।

इस असफलता से निराश होने की आवश्यकता नहीं, वरन् यह देखना है कि यह अवरोध क्यों उत्पन्न होता है? इसका एकमात्र कारण साधक का शरीर और मन उस उच्चस्तर का न होना ही है, जिसमें कि आध्यात्मिक साधनाएँ फलित हुआ करती हैं। गन्ने की, गुलाब की या दूसरी कीमती फसलें पैदा करने के लिए वाटिका को जमीन की आवश्यकता पड़ती है। उसमें पानी का समुचित प्रबंध करना होता है। यदि ऐसा न हो सके तो ऊसर बंजर में बिना जोते बीज बी दिया जाए वहाँ खाद-पानी तथा सुरक्षा का प्रबंध न हो तो अच्छी फसल की आशा किस प्रकार की जा सकेगी? आध्यात्मिक साधनाएँ-जिसमें गायत्री उपासना प्रमुख है, एक प्रकार की वैज्ञानिक कृषि है, उसके उपयुक्त साधना आवश्यक है। इस सन्दर्भ मे सबसे अधिक आवश्यकता साधक के उत्कृष्ट व्यक्तित्व की है। उसकी मनोभूमि बढ़िया किस्म की होनी चाहिए। यह बढ़ियापन जितना बढ़ा-चढ़ा होगा, उतनी ही साधना की सफलता सुनिश्चित रहेगी।

बढ़िया बंदूक में रखकर चलाए जाने पर कारतूस जैसा ठीक काम करता है, वैसा घटिया, नकली बन्दूक मैं रखकर चलाये जाने पर काम नहीं कर सकता है। कारतूस वही है, पर बंन्दूक के घटिया-बढ़िया होने पर वह अपना काम भी वैसा ही करता है। मंत्र एक प्रकार का कारतूस है। व्यक्तित्व को बन्दूक कहना चाहिए। यदि साधक का चरित्र, स्वभाव, आचार, व्यवहार, दृष्टिकोण निकृष्ट स्तर का है, तो गायत्री जैसे महान् शक्ति सम्पन्न मंत्र की उपासना का प्रतिफल भी संतोषजनक न होगा। यदि कोई चरित्रवान् इन्द्रिय संयमी, तपस्वी, उदारमना एवं देव-स्वभाव का मनुष्य उसी मंत्र को जपेगा, उसी उपासना को करेगा, तो निकृष्ट स्तर के व्यक्ति की तुलना में इसका परिणाम सैकड़ों गुना अधिक होगा। मंत्र वही, विधान वही, फिर भी सफलता में इतना अन्तर? इस विषय में किसी को शंकाशील नहीं होना चाहिए। गायत्री जादू नहीं, एक सर्वांगपूर्ण विधान है। घटिया रेडियो खड़-खड़ करते हुए जरा-सी आवाज में बोलते हैं। जबकि बढ़िया, कीमती रेडियो बहुत साफ और बुलन्द आवाज में बोलते हैं। दिल्ली से एक ही तरह की आवाज बोली जाती है आकाश में भी कम्पन्न एक से हैं, पर पास-पास रखे हुए दो रेडियो जिनकी सुई उसी स्टेशन पर है, यदि आवाज की दृष्टि से बहुत बड़ा अन्तर प्रकट करते हैं, तो उसमें दोष किसी का नहीं उन सस्ते और कीमती यन्त्रों का ही है। मीरा, सूर, तुलसी, कबीर आदि ने जो हरि-नाम लिया था, उसी को हम रोज लेते हैं, पर उनके उत्कृष्ट व्यक्तित्वों से मंत्र सफल हुए भगवान् ने दर्शन दिये, पर हमारे लिए वही हरि नाम कुछ भी प्रतिफल उत्पन्न नहीं कर सकता, तो उसका दोष बाहर किसी को न देकर अपनी आत्मिक दुर्बलताओं को ही देना चाहिए।

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