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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की मंत्र की विलक्षण शक्ति

गायत्री की मंत्र की विलक्षण शक्ति

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15486
आईएसबीएन :00000

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गायत्री मंत्र की विलक्षण शक्तियों का विस्तृत विवेचन

गायत्री और उसकी पृष्ठभूमि


दशरथजी को जब सन्तान-कामना की पूर्ति के लिए 'पुत्रेष्टि यज्ञ' कराने की आवश्यकता हुई, तो उनका विधि-विधान भली प्रकार जानते हुए भी महर्षि वशिष्ठ ने उसे पूरा कर सकने में अपनी असमर्थता प्रकट की। इस पर दशरथ जी ने आश्चर्य के साथ इसका कारण पूछा। वशिष्ठ जी ने कहा-''पुत्रेष्टि यज्ञ का विधान तो मैं जानता हूँ पर व्यक्तित्व की दृष्टि से पूर्ण ब्रह्मचारी न होने के कारण उस विधान को सफलतापूर्वक कार्यान्वित करने की सामर्थ्य से सम्पन्न नहीं। वर्तमान ऋषियों में यह कार्य श्रृंगी ऋषि ही ठीक तरह पूरा करा सकते हैं; क्योंकि वयस्क हो जाने पर भी वनवास में रहने के कारण उन्होंने रमणी को न तो देखा है और न उसकी कल्पना की है। ऐसे ब्रह्मचारी की आत्मा ही इतनी बलिष्ठ हो सकती है कि उसके द्वारा सफल पुत्रेष्टि यज्ञ कराया जा सके।'' अन्तत:-श्रृंगी ऋषि को ही बुलाया गया और उन्हीं के पौरोहित्य में दशरथजी का वह पुत्रेष्टि यज्ञ सफल हुआ जिसके प्रभाव से राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न जैसी आत्माओं को अवतरित होना पड़ा। लूंगी ऋषि जैसे तपस्वी का पौरोहित्य न मिला होता, तो विधि-विधान से पूर्ण ज्ञाता आचार्य द्वारा कराये जाने पर भी पुत्रेष्टि यज्ञ सफल न होता।

मंत्र वही है, विधि-विधान भी वही है, उनकी जानकारी वही है। उसकी जानकारी ग्रन्थों से तथा दूसरों विद्वानों से प्राप्त की जा सकती है, इतने पर भी उनकी वैसी महिमा जैसी कि बताई गई है, अक्सर दृष्टिगोचर नहीं होती। इसका कारण उस विद्या का मिथ्या होना या विधि-विधान में कोई फर्क रह जाना नहीं, वरन् यह होता है कि उसे करने वाले का व्यक्तित्व एवं चरित्र उस स्तर का उत्कृष्ट नहीं होता- जैसे कि आत्म-विद्या का विधि-विधान जान लेना ही पर्याप्त नहीं वरन् यह भी आवश्यक है कि वह अपने चरित्र एवं मानसिक स्तर को पवित्र एवं उत्कृष्ट बनाने में संलग्न रहे।

गायत्री उपासना के छुट-पुट लाभ साधारण रीति से जप, अनुष्ठान करने वालों को भी मिल सकते हैं, गमलों में छोटे से फूल-पौधे उगाये जा सकते हैं, पर यदि कोई विशाल वृक्ष लगाना हो, तो यह आवश्यक है कि उसके लिए ऐसी जमीन ढूँढ़ी जाए जिसमें होकर जड़ें नीचे गइराई तक प्रवेश कर सकें। बरगद और पीपल के वृक्ष गमलों में उगा तो सकते हैं, पर फलने -फूलने की स्थिति तक नहीं पहुँच सकते। गायत्री जैसा महामंत्र जिसकी सामर्थ्य की कोई तुलना नहीं, पूरी तरह अपना प्रभाव तभी प्रकट कर सकता है, जब साधक की मनोभूमि काफी परिष्कृत एवं सुसंस्कृत बनाई गई हो। उपासना का विधि-विधान पूरी तरह जानना और उसका कर्मकाण्ड उचित तरीकों से पूरा करना अभीष्ट सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक है, पर उससे भी ज्यादा आवश्यक यह है कि साधक अपने भावना स्तर को अधिकाधिक ज्योतिर्मय बनाने के लिए हर संभव प्रयत्न करे।

उपासना, भजन-पूजन के विधि-विधान को-जप, तप, धारणा, ध्यान आदि को कहते हैं। साधना, अपने गुण, कर्म, स्वभाव को व्यवस्थित, सुसंस्कृत एवं परिष्कृत बनाने को कहते हैं। उपासना को बीज और साधना को भूमि कहते हैं। यदि भूमि अच्छी न होगी, तो बीज के फलित होने की आशा नहीं की जा सकती। यदि किसी साधक ने अपने आहार-विहार, विचार, व्यवहार, क्रियाकलाप, उद्देश्य, दृष्टिकोण को परिष्कृत बनाने के लिए श्रम नहीं किया है। केवल मंत्र विद्या की क्रियाकलापों को ही पूरा करता रहा है, तो समझना चाहिए कि उसका श्रम ऊसर में गुलाब का बगीचा उगाने का प्रयास जैसा है। मंत्रों की शक्ति बेशक बहुत बड़ी है, पर उनका लाभ हर व्यक्ति नहीं उठा सकता। जिन्हें उपासना का चमत्कार देखना हो, उन्हें अपने आपको उसी तरह तपाना चाहिए जैसे अग्नि में सोने को तपाकर उसे विकार रहित किया जाता है। शुद्ध सोने का ही उचित मूल्य मिलता है।

कच्ची मिट्टी से बने घड़े, खिलौने एवं ईटें कमजोर रहते हैं, पर जब उन्हें आग में पका लिया जाता है, तो मजबूत हो जाते हैं और देर तक ठहरते हैं। अभ्रक एक सस्ती वस्तु है, पर जब उसका सौ बार अग्नि संस्कार किया जाता है, तो बहुमूल्य अभ्रक रसायन बन जाता है। साधक का चरित्र और व्यक्तित्व जितना निर्मल होगा, उपासना उतनी ही जल्दी, उतनी ही अधिक प्रतिफलित होगी। दुष्ट, दुराचारी, स्वार्थी और संकीर्ण, गंदे और निकम्मे आदमी मंत्रशक्ति का चमत्कारी परिणाम प्राप्त कर सकने से वंचित ही रह जाते हैं।

महाभारत में सावित्री द्वारा सत्यवान् के वरण की कथा आती है। सावित्री किसी को अपना साथी बनाना चाहती थी। किसी के साथ अपने को घुला देना चाहती थी। ऐसे साथी की खोज में देश-देशान्तरों में घूमती रही। अंतत: उसे उपयुक्त व्यक्ति मिल गया, वह था सत्यवान्। लकड़हारे, निर्धन, असहाय सत्यवान् को राजकन्या सावित्री ने इसलिए वरण किया कि वह आतरिक संपदाओं का धनी था। उसके गुण, कर्म, स्वभाव का स्तर ऊँचा था। वरण कृत्य हो गया। सत्यवान् का आयुष्य एक वर्ष में पूरा हो चला। यम उसका प्राण ले चले। पर सावित्री ने यम के हाथों से अपने सहचर को छुड़ा लिया। अपनी शक्ति द्वारा उसे अजर-अमर बना दिया।

यह आलंकारिक कथा उपासना की सफलता का रहस्य भली प्रकार समझा देती है। सावित्री, गायत्री का ही दूसरा नाम है। वह अपने सारपूर्ण कथा प्रदान करने के लिए उपयुक्त व्यक्ति को खोजती है। ऐसा सहचर सत्यवान् सत्यनिष्ठ, सदाचारी, उत्कृष्ट, आंतरिक स्तर का व्यक्ति ही हो सकता है, जब दोनों का साथ हो जाता है, तो गायत्री अपना चमत्कार दिखाती है। उसे यम के पाश से छुड़ाकर अजर- अमर बना देती है। सावित्री के-गायत्री के पास जितना विभूति भण्डार है, वह सुसंस्कृत साधक, सत्यवान् को मिल जाता है। यदि किसी को इस महाशक्ति की सिद्धियों को साक्षात्कार करना हो, तो उसे उपरोक्त कथानक में समाये हुए रहस्यपूर्ण तत्त्वज्ञान को हृदयंगम करना चाहिए।

ब्राह्मणत्व का अभिवर्द्धन गायत्री उपासना की सफलता का मूलभूत आधार है। छुटपुट लाभ मामूली उपासना से सामान्य स्तर के साधक भी पा सकते हैं, पर यदि इस महामंत्र का सच्चा स्वरूप और वास्तविक चमत्कार देखना हो, तो अपने गुण, कर्म, स्वभाव में ब्राह्मणत्व की मात्रा निरंतर बढ़ाते चलने के लिए साधकों को सच्चे मन से कटिबद्ध होना चाहिए। गायत्री माता इसी आधार पर अपने अक्षय कोष का अधिकार किसी को प्रदान करती हैं।

गायत्री उपासना का लाभ और चमत्कार देखने के इच्छुकों को केवल साधना विधान के कर्मकाण्ड की बारीकियों को ही नहीं ढूँढ़ते रहना चाहिए वरन् अपनी शारीरिक एवं मानसिक भूमिका का भी परिष्कार करने के लिए सचेष्ट रहना चाहिए। ठीक है - विधि विधानों का भी अपना महत्त्व है, ठीक है - बीजमंत्र तथा दक्षिणामार्गी, वाममार्गी साधना विधान अपना-अपना विशिष्ट प्रतिफल उत्पन्न करते हैं, पर इसके लिए उनकी समुचित जानकारी इस महाविद्या के प्रयोगकर्त्ताओं को ठीक तरह अनुभव और अभ्यास में लानी चाहिए। इसके लिए अनुभवी मार्गदर्शक और ऋषि परम्परा की शास्त्रीय पद्धति का अवलंबन ग्रहण करना चाहिए। साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए कि आध्यात्मिक उपासनाओं के पथ पर। गतिशील होने के आकांक्षी साधक को अपने व्यक्तित्व की उत्कृष्टता बढ़ाना तथा स्थिर रखना नितान्त आवश्यक है। आत्मिक प्रगति की यह एक अनिवार्य शर्त है।

बढ़िया किस्म का बाण भले ही हो, पर उसे ठीक निशाने तक। पहुँचाने के लिए बढ़िया मजबूत धनुष भी तो चाहिए। सड़ी-चुनी लकड़ी। के धनुष के लिए तीर को निशाने तक फेंक सकना तो कठिन ही है-इस खींचतान में अपनी भी दुर्गति करा लेगा। ओछे आदमी-घूणित और निकृष्ट दृष्टिकोण अपनाकर जीवनयात्रा कर रहे हैं। ऐसे कुसंस्कारी व्यक्ति भले ही जप-तप का बाह्य आवरण पूरा करते रहें वह कर्मकाण्ड उनकी आतरिक प्रगति में कुछ विशेष सहायता न कर सकेगा।

प्राचीनकाल में ऐसे अनेक साधक हुए हैं, जिनका साधन विधान कोई बड़ी शास्त्रीय परम्परा पर आधारित न था, फिर भी उन्हें अपने उद्देश्य की पूर्ति में आशाजनक सफलता मिली। कबीर की शिक्षा स्वल्प थी, उन्हें मार्गदर्शक भी अनुभवी नहीं मिला। संत रामानंद उनके ऐसे ही गुरु थे, जैसे एकलव्य के द्रोणाचार्य। वे प्रत्यक्ष में कबीर के गुरु होने की बात से इन्कार करते रहे। रैदास की वंश परम्परा ने उन्हें शास्त्रीय पद्धति का लाभ लेने से वंचित रखा। मीरा केवल भजन, कीर्तन, नृत्य एवं भावोन्माद तक अपना साधना-विधान सीमित रख सकी। शबरी किस प्रकार की उपासना पद्धति अपनाये रही, कुछ पता नहीं चलता। वाल्मीकि तो सीधा राम-नाम भी न ले सके। उन्हें 'मरा' 'मरा' का उलटा नाम जप कर कर ही आगे बढ़ना पड़ा। ऐसे उदाहरण साधना इतिहास के पन्ने पर भरे पड़े है और आज भी ऐसे अनेक साधक मिलते हैं, जिनकी शिक्षा एवं साधना पद्धति उपहासास्पद है फिर भी उनने काफी ऊंचाई तक आत्मिक प्रगति कर ली। इसका एकमात्र कारण उनके व्यक्तित्व की उत्कृष्टता ही थी। मानवीय सद्‌भावनाओं का बाहुल्य ही उनकी यह विशेषता थी, जिसने उच्च स्तरीय सफलता का अधिकारी उन्हें बना दिया।

दूसरी ओर ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं, जिनमें उपासना का शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक प्रकरण भली प्रकार जानते हुए भी साधक कुछ आशाजनक लाभ प्राप्त न कर सके रावण, कुम्भकरण, मेघनाद, मारीच, भस्मासुर, वकासुर, हिरण्यकश्यप, मधु कैटभ आदि अगणित व्यक्ति उच्च कुलों में उत्पन्न हुए थे उनके गुरु भी शुक्राचार्य पारंगत थे उन्होंने कठिन तपश्चर्या भी की और वरदान भी पाये, फिर भी इन सुविधाओं का कोई विशेष लाभ उन्हें नहीं मिला। उनकी आत्मिक प्रगति नगण्य रही जो साधना तपश्चर्या उनने की वह उनकी आत्मा का, उनके परिवार का, सारे समाज का कुछ भी हित साधन न कर सकी।

अतएव हमें उसी निष्कर्ष पर पहुँचना होगा कि जिन्हें वस्तुत: आध्यात्मिकता का लाभ लेना हो, इस मार्ग पर चिरस्थायी और आशाजनक प्रगति करनी हो, उन्हें सबसे पूर्व सबसे अधिक ध्यान इस बात पर देना चाहिए कि उनका व्यक्तित्व, दृष्टिकोण, गुण-कर्म-स्वभाव, संस्थान-अंत:करण चतुष्टय उत्कृष्ट स्तर का बने यही ब्राह्मणत्व है ब्रह्म-वर्चस्व की सारी शक्ति, चेतना एवं क्षमता इसी आधार पर उपलब्ध होती और बढ़ती है।

 

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