आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री साधना क्यों और कैसे गायत्री साधना क्यों और कैसेश्रीराम शर्मा आचार्यडॉ. प्रणव पण्डया
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गायत्री साधना कैसे करें, जानें....
सदगुण बढ़ाने वाला आंतरिक हेरफेर
गायत्री साधना से व्यक्ति में जो असाधारण हेर-फेर होता है, उसका सबसे पहला प्रभाव उसके अन्तःकरण पर पड़ता है। यह उसके विचारों को, मन को और भावों को सही रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करता है। व्यक्ति में अच्छे गुणों की बढ़ोत्तरी शुरू हो जाती है। इससे उसके दोष-दुर्गुणों में कमी आने लगती है। इस तरह साधक में अनेकों गुण-विशेषताएँ पैदा होने लगती हैं, जो जीवन को अधिक सरल, सफल और शान्तिमय बनाने में मदद करती हैं।
अच्छे गुणों की वृद्धि के कारण शारीरिक क्रियाओं और गतिविधियों में भारी हेर-फेर हो जाता है। इन्द्रियों के व्यसनों में भटकने की गति कम होने लगती है। जीभ का चटोरापन व खान-पान की गलत आदते धीरे-धीरे सुधरने लगती हैं। इसी प्रकार कामेन्द्रिय की उत्तेजना संयमित होने लगती है। कुमार्ग में, व्यभिचार में, वासना में मन कम दौड़ता है। ब्रह्मचर्य के प्रति श्रद्धा बढ़ जाती है, जिससे वीर्य रक्षा का मार्ग साफ हो जाता है। कामेन्द्रिय और स्वादेन्द्रिय ये दो ही प्रधान इन्द्रियाँ हैं। इनके संयमित होते ही स्वास्थ्य रक्षा और नीरोगिता का रास्ता खुल जाता है। अपनी दिनचर्या में स्वच्छता, सुव्यवस्था और श्रम-सन्तुलन का कम जुड़ने लगता है। जिसके कारण प्रगति और सफलता की दिशा स्पष्ट होने लगती है।
मानसिक क्षेत्र में सद्गुणों की वृद्धि के कारण आलस्य, अधीरता व्यसनक्रोध, भय, चिन्ता, जैसे दोष-दुर्गुण कम होने लगते हैं। इनकी कमी के साथ संयम, स्फूर्ति, साहस, धैर्य, विनम्रता, संतोष-सदभाव जैसे गुण बढ़ने लगते हैं। इस आंतरिक हेर-फेर का नतीजा यह होता है कि नासमझी से पैदा होने वाले अनेकों भ्रम- भटकावों से छुटकारा मिलने लगता है और दैनिक जीवन में नित्य छाये रहने वाले दुःखों का सहज समाधान होते जाता है। संयम, सेवा, नम्रता, उदारता, दान, ईमानदारी जैसे गुणों के कारण दूसरों को भी लाभ मिलता है और हानि की आशंका नहीं रहती। अत: प्राय: सभी लोग कृतज्ञ प्रशंसक, सहायक, रक्षक बन जाते हैं। आपसी सद्भावना व कृतज्ञता से आत्मा को तृप्त करने वाले प्रेम और संतोष नामक रस दिन-दिन अधिक मात्रा में उपलब्ध होने लगते हैं और जीवन आनन्दमय बनता जाता है। इसके अतिरिक्त ये गुण अपने आप में इतने मधुर होते हैं कि जिसके भी हदय में होंगे, वहां तब तक आत्म संतोष का शीतल झरना वह रहा होगा। अर्थात् गायत्री साधना मनुष्य के अंदर गहरा परिवर्तन लाकर सुख-शान्ति का रास्ता खोल देती है।
समृद्धि और सफलता देने वाली गायत्री-सद्गुण वृद्धि, आंतरिक शांति, संतोष के साथ गायत्री सार्वजनिक समृद्धि-सफलता का रास्ता भी खोलती है। शरीर और मन की शुद्धि, बाहरी जीवन को कई दृष्टियों से सुख-सम्पन्न बनाती है। सूझ-बूझ व आत्मविश्वास बढ़ने से अनेकों ऐसी कठिनाइयाँ जो पहले पहाड़ जैसी भारी मालूम पड़ती थीं, अब तिनके की तरह हल्की लगने लगती हैं।
अब जीवन में क्लेश और द्वन्द्व भी कम होने लगते है, क्योंकि या तो व्यक्ति की इच्छा के अनुसार परिस्थितियाँ बदल जाती हैं या वह परिस्थितियों के हिसाब से अपनी इच्छाओं को बदल देता है। क्लेश का कारण इच्छा और परिस्थितियों के बीच की टकराहट ही तो है। समझदार दोनों में से किसी को अपनाकर उस टकराहट को टाल देता है और अनावश्यक परेशानी से -बच जाता है। इस तरह जीवन का मार्ग सीधा व सरल बनता जाता है।
वास्तव में सुख व आनन्द बाहरी साधन-सामग्री से नहीं प्राप्त होते हैं, यह तो व्यक्ति की मनोदशा पर निर्भर करते हैं। जो मन कभी राजसी भोग और रेशमी तकिए से भी संतुष्ट नहीं होता था, वही मन किसी संत के उपदेश से त्याग-संन्यास का व्रत लेने पर जंगल की भूमि को ही सबसे आरामदायक विस्तर मानता है और कन्दमूल फल को को ही सबसे स्वादिष्ट भोजन समझने लगता है। यह मनोभाव विचारधारा के बदलाव का परिणाम होता है।
वस्तुतः गायत्री तीन गुणों वाली शक्ति है। इसकी साधना से जहाँ सतोगुण बढ़ता है, वहीं उपयोगी रजोगुण भी बढ़ता है। जिससे मनुष्य की गुप्त शक्तियाँ जाग्रत् होती हैं और सांसारिक जीवन के संघर्ष में आशाजनक परिणाम पैदा करती हैं। आशा उत्साह, तीव्रबुद्धि, अवसर की पहचान वाणी में मधुरता, व्यक्तित्व में आकर्षण जैसी छोटी-बड़ी विशेषताएँ विकसित होने लगती हैं। गायत्री उपासक भीतर ही भीतर नए ढाँचे में ढलता रहता है और उसमें ऐसे-ऐसे बदलाव होते हैं कि साधारण व्यक्ति भी क्रमश: समृद्धि सफलता और उन्नति की ओर बढ़ने लगता है। गायत्री साधना सोने की अशरफियां नहीं उड़ेलती; किन्तु यह भी सच है कि वह साधक में ऐसी विशेषताएँ पैदा करती हैं कि वह अभावग्रस्त, दीन-हीन व दरिद्र स्थिति में नहीं रह सकता।
संकट मोचन गायत्री-प्रारब्ध या कष्ट भरी परिस्थितियां हर व्यक्ति के जीवन में आती हैं। इसकी हवा बहुत ही प्रचण्ड और प्रबल होती है। इनके चक्र में जो फंस जाता है, उसकी विपत्तियाँ बढ़ती जाती हैं। बीमारी, कलह, धन हानि, आक्रमण आघात, शोक-वियोग आदि की हवा जब चलती है, तो थमने का नाम नहीं लेती। कहावत भी है कि विपत्ति अकेली नहीं आती, वह हमेशा अपने बाल-बच्चे भी साथ लाती है। चारों ओर संकट से घिरा मनुष्य स्वयं को चक्रव्यूह में फंसा हुआ अनुभव करता है। ऐसे विकट समय में सामान्य लोग मरने जैसा कष्ट अनुभव करते हैं और भय, चिंता, व घबराहट में पड़कर हाथ-पाँव चलाना छोड़ देते हैं, रोने-चिलाने. में लगे रहते हैं व अधिक समय तक और अधिक मात्रा में कष्ट भोगते हैं।
किन्तु गायत्री साधक अपनी समझदारी, धैर्य, साहस, और ईश्वर विश्वास के आधार पर इनको हल्के में पार कर जाता है। वस्तुत: संकट की नदी को पार करने के लिए धैर्य, साहस, सूझ और कोशिश रूपी चार कोनों वाली नाँव की जरूरत होती है। गायत्री साधना इन चारों विशेषताओं को मनुष्य के अन्दर में विशेष रूप से बढ़ाती है जिससे कि वह संकट में भी ऐसा रास्ता खोजने में सफल हो जाता है कि वह उसको पार लगा दे।
गायत्री वास्तव में बड़ी चमत्कारी साधना है। इसके प्रभाव में कई बार मनुष्य संकटों से इस तरह बच निकलता है कि उसे दैवीय चमत्कार के सिवा और कुछ नहीं कहा जा सकता। इसके पीछे सच्चाई यह है कि गायत्री साधना के कारण साधक में कुछ दैवीय शक्तियों का विकास हो जाता है, जो संकट के समय उसकी सहायता करती है। प्राय: देखा यह जाता है कि जो व्यक्ति साधना करके अपने मन और बुद्धि को संयत और शुद्ध बना लेते हैं और ईर्ष्या-द्वेष के भावों को त्यागकर दूसरों के प्रति कल्याण की भावना रखते हैं, उनकी रक्षा दैवीय शक्तियाँ स्वय करती हैं।
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