आचार्य श्रीराम शर्मा >> जगाओ अपनी अखण्डशक्ति जगाओ अपनी अखण्डशक्तिश्रीराम शर्मा आचार्य
|
0 |
जगाओ अपनी अखण्डशक्ति
संतोपदेश
1.
'प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है।' बाह्य एवं अन्तःप्रकृति को वशीभूत करके स्वयं के इस अन्तर्निहित ब्रम्हस्वरूप को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है।
कर्म, उपासना, मनःसयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रम्हभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ।
2.
धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है।
3.
तुम सदैव कह सकते हो कि प्रतिमा ईश्वर है। केवल यह सोचने की भूल से बचना कि ईश्वर प्रतिमा है।
4.
परोपकार ही धर्म है, परपीड़न पाप। शक्ति और पौरुष पुण्य है, कमजोरी और कायरता पाप। स्वतन्त्रता पुण्य है, पराधीनता पाप। दूसरों से प्रेम करना पुण्य है, दूसरों से घृणा करना पाप। परमात्मा और अपने आप में विश्वास पुण्य है सन्देह पाप। एकता का ध्यान पुण्य है, अनेकता देखना ही पाप।
5.
प्रेम - केवल प्रेम का ही मैं प्रचार करता हूँ और मेरे उपदेश वेदान्त की समता और आत्मा की विश्वव्यापकता इन्हीं सत्यों पर प्रतिष्ठित है।
6.
मनुष्य अल्पायु है और संसार की सब वस्तुएँ वृथा तथा क्षणभंगुर हैं, पर वे ही जीवित हैं, जो दूसरों के लिए जीते हैं, शेष सब तो जीवित की अपेक्षा मृत ही अधिक है।
7.
विकास ही जीवन और संकोच ही मृत्यु है। प्रेम ही विकास और स्वार्थपरता संकोच है। इसलिए प्रेम ही जीवन का मूलमन्त्र है। प्रेम करने वाला ही जीता है और स्वार्थी मरता रहता है। इसलिए प्रेम प्रेम ही के लिए करो।
8.
जहाँ यथार्थ धर्म है, वहीं प्रबलतम आत्मबलिदान है। अपने लिए कुछ मत चाहो, दूसरों के लिए ही सब कुछ करो - यही है ईश्वर में तुम्हारे जीवन की स्थिति, गति तथा प्राप्ति।
9.
तुम जो कुछ सोचोगे, तुम वही हो जाओगे, यदि तुम अपने को दुर्बल समझोगे, तो तुम दुर्बल हो जाओगे बलवान सोचोगे तो बलवान बन जाओगे।
10.
तुम तो ईश्वर की संतान हो, अमर आनन्द के भागीदार हो, पवित्र और पूर्ण आत्मा हो। तुम इस मर्त्यभूमि पर देवता हो। तुम भला पापी। मनुष्य को पापी कहना ही पाप है। वह मानव स्वभाव पर घोर लांछन है। उठो! आओ ऐ सिंहों। इस मिथ्या भ्रम को झटक कर दूर फेंक दो कि तुम भेड़ हो, तुम तो जरा-मरण रहित नित्यानन्दमय आत्मा हो।
11.
बल ही जीवन है और दुर्बलता ही मरण। बल ही अनन्त सुख है, चिरन्तन और शाश्वत जीवन है और दुर्बलता ही मृत्यु।
12.
शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता को व्यक्त करना जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है।
13.
शिक्षा क्या है। क्या वह पुस्तक की-विद्या है? नहीं। क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है? नहीं, यह भी नहीं। जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है। वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है।
14.
हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिससे चरित्र-निर्माण हो, मानसिक शक्ति बढ़े, बुद्धि विकसित हो, और मनुष्य अपने पैरों पर खडा होना सीखे।
15.
एकमात्र ब्रम्हचर्य का ठीक-ठीक पालन कर सकने पर सभी विद्याएँ बहुत ही कम समय में हस्तगत हो जाती हैं - मनुष्य श्रुतिधर, स्मृतिधर बन जाता है। ब्रम्हचर्य के अभाव से ही देश का सब कुछ नष्ट हो गया।
16.
प्रत्येक मनुष्य एवं राष्ट्र को बड़ा बनाने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं -
1. सौजन्य की शक्ति में दृढ़ विश्वास।
2. ईर्ष्या और संदेह का अभाव।
3. जो सन्मार्ग पर चलने में और सत्कर्म करने में संलग्न हो, उनकी सहायता करना।
17.
प्रत्येक राष्ट्र की एक विशिष्टता होती है, अन्य सब बातें उसके बाद आती है। भारत की विशिष्टता धर्म है। समाज-सुधार और अन्य सब बातें गौण हैं।
18.
अपने स्नायु को बलवान बनाओ। हमें लोहे के पुट्ठे और फौलाद के स्नायु की आवश्यकता है। हम लोग बहुत दिन रो चुके। अब और रोने की आवश्यकता नहीं है। अब अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और मनुष्य बनो।
19.
उत्साह से हृदय को भर लो और सब जगह फैल जाओ। काम करो, काम करो। नेतृत्व करते समय सबके दास हो जाओ। निःस्वार्थ होओ और कभी एक मित्र को पीठ पीछे दूसरे की निन्दा करते मत सुनो। अनन्त धैर्य रखो, तभी सफलता तुम्हारे हाथ आयेगी।...सतर्क रहो। जो कुछ असत्य है, उसे पास न फटकने दो। सत्य पर डटे रहो बस तभी हम सफल होंगे। इस तरह काम करते जाओ कि मानो मैं कभी था ही नहीं। इस तरह काम करो कि मानो तुममें रमे हर एक के ऊपर सारा काम निर्भर है। भविष्य की पचास सदियाँ तुम्हारी ओर ताक रही हैं-भारत का भविष्य तुम पर निर्भर है। काम करते
20.
मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है और वह है - मनुष्य जाति का उसके दिव्य स्वरूप का उपदेश देना तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे व्यक्त करने का उपाय बताना।
21.
पवित्रता, धैर्य और अध्यवसाय, इन्हीं तीन गुणों से सफलता मिलती है, और सर्वोपरि है प्रेम।
22.
हर काम को तीन अवस्थाओं में से गुजरना होता है- उपहास, विरोध और फिर स्वीकृति। जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है, लोग उसे निश्चय ही गलत समझते हैं। इसलिए विरोध और अत्याचार हम संहर्ष स्वीकार करते हैं। परन्तु मुझे दृढ़ और पवित्र होना चाहिए। और भगवान में अपरिमित विश्वास रखना चाहिए, तब ये सब लुप्त हो जायेंगे।
23.
''उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्निबोधत" उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो। अर्थात् उठो, जागो तब तक रुको नहीं, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये।
* * *
|