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आचार्य श्रीराम शर्मा >> शक्तिवान बनिए

शक्तिवान बनिए

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15501
आईएसबीएन :00000

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जीवन में शक्ति की उपयोगिता को प्रकाशित करने हेतु

तीसरा सूत्र

परिस्थितियों का जन्मदाता अपने आपको मानिए


अध्यात्मवाद का दूसरा सिद्धान्त है-आत्म निर्भरता। अपने ऊपर विश्वास करना, अपनी शक्तियों पर विश्वास करना-एक ऐसा दिव्य गुण है, जो हर कार्य को करने योग्य साहस, विचार एवं योग्यता उत्पन्न करता रहता है। दूसरों के ऊपर निर्भर रहने से अपना बल घटता है और इच्छाओं की पूर्ति में अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं। स्वाधीनता, निर्भयता और प्रतिष्ठा इस बात में है कि अपने ऊपर निर्भर रहा जाए। सफलता का सच्चा और सीधा पथ भी यही है।

अपनी हर एक बाह्य परिस्थिति की जिम्मेदारी दूसरों पर मत डालिए, वरन् अपने ऊपर लीजिए। दुनिया को दर्पण के समान समझिए, जिसमें अपनी ही सूरत दिखाई पड़ती है, दूसरे लोगों में जो अच्छाइयाँ, बुराइयाँ दिखाई पड़ती हैं। सामने जो प्रिय एवं अप्रिय परिस्थितियाँ आती हैं, उसका कारण कोई और नहीं, वरन् आप स्वयं हैं और उनमें परिवर्तन करने की शक्ति भी किसी और में नहीं, वरन् स्वयं आप में है।

शास्त्रों में कहा गया है कि ब्रह्माण्ड की कुंजी पिण्ड के अंदर है। हर व्यक्ति अपने लिए एक अलग संसार बनाता है और उसकी रचना उस पदार्थ से करता है, जो उसके अंदर होता है। वास्तव में संसार बिल्कुल जड़ है, उसमें किसी को सुख-दुःख पहुँचाने की शक्ति नहीं है। मकड़ी अपना जाला खुद बुनती है और उसमें विचरण करती है। आप अपने लिए अपना संसार स्वतंत्र रूप से बनाते हैं। और जब चाहते हैं, उसमें परिवर्तन कर लेते हैं।

एक व्यक्ति क्रोधी है-उसे प्रतीत होगा कि सारी दुनिया उससे लडती-झगड़ती है; कोई उसे चैन से नहीं बैठने देता, किसी में भलमनसाहत है ही नहीं, जो आता है उससे उलझता चला आता है। एक व्यक्ति झूठ बोलता है-उसे लगता है कि सब लोग अविश्वासी हैं, संदेह करने वाले हैं, 'किसी पर भरोसा ही नहीं करते। एक व्यक्ति नीच है-वह देखता है कि सारी दुनिया घृणा करने वाले, घमंडियों, स्वार्थियों से भरी हुई है, किसी में सहानुभूति है ही नहीं। एक व्यक्ति निकम्मा और आलसी है-उसे मालूम होता है। कि दुनिया में काम है ही नहीं, सब जगह बेकारी फैली हुई है, व्यापार नष्ट हो गया, नौकरियाँ नहीं हैं, लोग बहुत काम लेकर थोड़ा पैसा देना चाहते हैं। एक व्यक्ति बीमार है-उसे दिखाई पड़ता है कि दुनिया में सारे भोजन अस्वादिष्ट, हानिकारक और नुकसान पहुँचाने वाले हैं। इसी प्रकार व्यभिचारी, लम्पट, मूर्ख कंजूस, अशिक्षित, सनकी, गवार, पागल, भिखारी, चोर तथा अन्यान्य मनोविकारों वाले व्यक्ति अपने लिए अलग दुनिया बनाते हैं। वे जहाँ जाते हैं, उनकी दुनिया उनके साथ जाती है।

इसी प्रकार विज्ञानी, साधु, कर्मनिष्ठ, उत्साही, साहसी, सेवाभावी, उपकारी, बुद्धिमान् और आत्मविश्वासी लोगों की दुनिया अलग होती है। बुरे व्यक्तियों को जो दुनिया बुरी मालूम होती थी, वही अच्छे व्यक्तियों के लिए अच्छी बन जाती है। सांसारिक पदार्थ जड़ हैं, वे न तो किसी को सुख दे सकते हैं और न दुःख। मनुष्य एक प्रकार का कुम्हार है, जो वस्तुओं को मिट्टी से अपनी इच्छानुसार बनाता है। संसार किसी के लिए दु:ख का हेतु है, किसी के लिए सुख का। वास्तव में वह कुछ नहीं है। अपनी छाया ही संसार के दर्पण में प्रतिबिम्बित हो रही है। अपना दृष्टिकोण बदलने से दुनिया की सारी रूपरेखा बदल जाती है। हमारे विचार और कार्य जैसे होते हैं, ठीक उसी के अनुरूप बाह्य परिस्थितियों में अंतर आ जाता है।

मनोविज्ञान बताता है कि मनुष्य में यह एक बड़ी भारी त्रुटि है कि वह अपनी भूल या न्यूनता को स्वीकार नहीं करता। अपने ऊपर उत्तरदायित्व लेने को तैयार नहीं होता। अपने दोषों को दूसरों के ऊपर थोपने का प्रयास करके, वह स्वयं निर्दोष बनता है। यह आत्मवंचना की वृत्ति इतनी सूक्ष्म होती है कि मोटी बुद्धि से वह पकड़ में नहीं आती। भूल करने वाले लोगों में से अधिकांश के मन में यह दृढ़ विश्वास होता है कि वे निर्दोष हैं और दूसरे लोग ही उस दोष के भागी हैं। मानव स्वभाव की यह कमजोरी, सत्य की खोज में बड़ी भारी बाधा है; सुख-शान्ति को मिटा कर क्लेश, कलह उत्पन्न करने वाली प्रधान पिशाची है।

हम मानते हैं कि दूसरों में भी दोष हैं और अनायास अप्रिय परिस्थितियाँ भी सामने आती हैं; पर काँटों से आसानी के साथ बच निकलने योग्य विवेक की आँखें भी तो मौजूद हैं। संसार तीन गुणों का बना हुआ है, इसमें अच्छाइयों के साथ बुराइयाँ भी हैं। उन बुराइयाँ से बच निकलना बुद्धिमत्ता का काम है। ऐसी बुद्धिमत्ता तब आती है, जब आत्म शक्तिवान् बनिए निर्भरता के दृष्टिकोण को अपना लिया जाता है।

संसार में सफलता लाभ करने की आकांक्षा के साथ अपनी योग्यताओं में वृद्धि करना भी आरंभ कीजिए। आपका भाग्य किस प्रकार लिखा जाए? इसका निर्णय करते समय विधाता आपकी आंतरिक योग्यताओं की परख करता रहता है। उन्नति करने वाले गुणों को यदि अधिक मात्रा में जमा कर लिया गया है, तो भाग्य में उन्नति का लेख लिखा जायेगा और यदि उन्नायक गुणों को अविकसित पड़ा रहने दिया गया है-दुर्गुणों को, मूर्खताओं को अंदर भर रखा गया है, तो भाग्य की लिपि दूसरी होगी। विधाता लिख देगा कि इसे तब तक दु:ख-दुर्भाग्यों में ही पड़ा रहना होगा, जब तक कि योग्यताओं का संपादन न करे। अपने भाग्य को जैसा चाहे वैसा लिखना अपने हाथ की बात है। यदि आप आत्मनिर्भर हो जायें, जैसा होना चाहते हैं, उसके अनुरूप अपनी योग्यताएँ बनाने में प्रवृत्त हो जायें, तो विधाता को शक्तिवान् बनिए विवश होकर आपकी मनमर्जी का भाग्य लिखना पड़ेगा।

अमरता पर विश्वास करने के बाद अध्यात्मवाद की दूसरी शिक्षा यह है कि अपनी को बाह्य परिस्थितियों का निर्माता केन्द्र बिन्दु मानिए। जो घटनाएँ सामने आ रही हैं, उनकी प्रिय-अप्रिय अनुभूति का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लीजिए। अपने को जैसा चाहे वैसा बना लेने की योग्यता अपने में समझिए। अपने ऊपर विश्वास कीजिए। किसी और का आसरा मत करिए। बिना आपके निजी प्रयत्न के, योग्यता संपादन के बाहरी सहायता प्राप्त न होगी, यदि होगी तो उसका लाभ बहुत थोड़े समय में समाप्त हो जायेगा और पुन: वही दशा उपस्थित होगी, जिसकी कि अपनी औकात है। उत्साह, लगन, दृढ़ता, साहस, धैर्य, परिश्रम इन छ: गुणों को सफलता का अग्रदूत माना गया है। इन दूतों का निवास स्थान आत्मविश्वास में है। अपने ऊपर भरोसा करेंगे, तो यह गुण भी उत्पन्न होंगे; अन्यथा किसी देव मानव की कृपा से सट्टा, लाटरी फल जाने, बमभोला की भभूत से छप्पन करोड़ की चौथाई मिल जाने, वैद्यजी की दवा-दारू खाकर भीमसेन बन जाने, वशीकरण मंत्र से तरुणी स्त्रियाँ खिंची चली आने, गंगा मैया की कृपा से बेटा हो जाने, साईं जी के ताबीज़ से शादी हो जाने के स्वप्न देखते रहिए और उम्मीदों की दुनिया में तबियत बहलाते रहिए। बेशऊरों का माल मसखरे उड़ाते हैं। आप भी मसखरों के चंगुल में फँस कर ठगाते रहिए, समय बर्बाद करते रहिए; पर प्रयोजन कुछ भी सिद्ध न होगा। ईश्वर के राज्य में ऐसी अंधी बाँट नहीं लग रही है कि पसीना बहाने वाले परिश्रमी टापते रहें और शेखचिल्लियों की बन आये।

'उद्धरेत् आत्मनात्मानम्' की शिक्षा देते हुए गीता ने स्पष्ट कर दिया है कि यदि अपना उत्थान चाहते हो, तो उसका प्रयत्न स्वयं करो। दूसरा कोई भी आपकी दशा को सुधार नहीं सकता। श्रेष्ठ पुरुषों का थोड़ा सहयोग मिल सकता है, पर रास्ता अपने को ही चलना पड़ेगा; यह मंजिल दूसरे के कंधे पर बैठकर पार नहीं की जा सकती। यह लोक और परलोक किसी दूसरे की कृपा दृष्टि से सफल नहीं हो सकता; यह सब तो खुद ही करना पड़ेगा। स्वयं ही अपने पैरों पर खड़ा होना पड़ेगा। अपने पेट के पचाए बिना अन्न हजम नहीं हो सकता, अपनी आँखों की सहायता के बिना दृश्य दिखाई नहीं पड़ सकता, अपने मरे बिना स्वर्ग को देखा नहीं जा सकता; इसी प्रकार अपने प्रयत्न बिना उन्नत अवस्था को भी प्राप्त नहीं किया जा सकता।

मनुष्य परमात्मा का सर्वप्रिय पुत्र है। उसे इतनी स्वाधीनता, क्षमता और योग्यता स्वभावत: प्राप्त है कि अपने लिए उपयोगी एवं अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण एवं आविर्भाव कर सके। परमात्मा ने मनुष्य को बेवश, अयोग्य, पराधीन, दुर्बल-निर्बल बनाकर नहीं भेजा है कि दूसरों के आश्रित रहे, दूसरों की कृपा पर अवलम्बित रहे। वह अपने भाग्य का निर्माता आप है। अपने लिए भली-बुरी स्थिति चुनने का और उसे उपलब्ध करने का एकमात्र अधिकार केवल उसी के हाथ में है।

जैसी भी भली या बुरी परिस्थितियाँ हमारे सामने आती हैं, वह किसी देवी-देवता के शापवरदान से, ग्रह-नक्षत्र के हेर-फेर से या किसी अन्य कारण से नहीं आतीं; उसके मूल उत्पादक हम स्वयं ही होते हैं। जैसे विचारों को अपनाया जाता है, जैसे स्वभाव एवं गुणों का निर्माण किया जाता है, जैसा दृष्टिकोण होता है, जिस प्रकार की इच्छा, आकांक्षा, नीति और कार्यप्रणाली होती है; उसी के अनुसार हमारा ढाँचा तैयार होती जाता है। परिस्थितियाँ और घटनाएँ उन दोनों की छाया मात्र है। चटोरे, व्यभिचारी एवं असंयमी व्यक्ति आये दिन बीमार पड़ते हैं।

आलसी, निरुद्योगी व्यक्ति निर्धन रहते हैं। कड़वे एवं खोटे स्वभाव वाले चारों ओर शत्रुता, कटुता, असहयोग एवं तिरस्कार का वातावरण देखते हैं। लोभी ठगे जाते हैं, कायर सताये जाते हैं। असावधान घाटा दे बैठते हैं। मोहग्रस्त बहुत रोते-चिल्लाते हैं। डरपोकों को चिन्ता बेचैन किए रहती है। इसी प्रकार अच्छे गुण, विचार, दृष्टिकोण एवं कार्यक्रम वाले व्यक्ति सब प्रकार की सुख-सामग्रियों से संपन्न होकर सुखी जीवन व्यतीत करते हैं। दु:ख और सुख, बड़प्पन और लघुता, हानि और लाभ अपनी निज की योग्यता, चतुरता और क्षमता के ऊपर निर्भर है और इन तीनों को मनुष्य चाहे तो प्रयत्न करके बहुत उन्नत कर सकता है या प्रमाद में पड़कर इन स्वाभाविक शक्तियों से हाथ धो बैठ सकता है। संसार में जितने भी सुखी या दु:खी व्यक्ति हैं, अपने निज की कार्य-पद्धति के अनुसार हैं। उन्होंने स्वयं ही अपने लिए वैसी परिस्थिति शक्तिवान् बनिए तैयार की है।

भाग्य, प्रारब्ध, दैव, तकदीर, ईश्वरेच्छा आदि कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो मनुष्य के अपने प्रयत्न से बाहर की बात हो। कल का प्रयत्न-कर्म आज भाग्य के रूप में सामने आता है। यदि आज हम दुष्कर्म न करें, तो भविष्य में कोई शक्ति हमारे भाग्य को बुरा नहीं बना सकती; यदि आज हम अनुचित कार्य कर रहे हैं, तो संसार की कोई भी शक्ति हमें भविष्य में भाग्यशाली नहीं बना सकती। ईश्वर जो कुछ करता है हमारे कर्मों के आधार पर करता है। वह पूर्ण न्यायी एवं कठोर न्यायाधीश है। वह कर्मों का फल देने में तनिक भी रियायत नहीं करता। भाग्य, तकदीर, दैव, प्रारब्ध किसी के दिए हुए अभिशाप या वरदान नहीं है। भूतकाल के कर्म ही आगे चलकर भाग्य के रूप में प्रकट होते हैं; इसलिए तकदीर भी मूलत: अपने ही हाथ की बात है।

अध्यात्मवाद के पथिकों को दूसरा मंत्र यह हृदयंगम करना चाहिए कि हम अपने भाग्य के स्वयं निर्माता हैं; जैसे हम होंगे वैसा ही अवसर प्राप्त होगा। हमारा भविष्य शर्तिया हमारे हाथ में है। इस सत्य को हृदयंगम कर लेने के पश्चात् इधर-उधर देखने की अपेक्षा अपने आपको बनाने की, अपने परिमार्जन की, अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्त करने के उद्योग की आवश्यक्रता अनुभव होती है। आत्मनिर्भरता, आत्मावलम्बन, आत्म विश्वास, आत्म चिंतन, आत्म निर्माण यह पाँच तथ्य ऐसे हैं, जिन्हें स्वीकार किए बिना कोई व्यक्ति आत्मोन्नति नहीं कर सकता। 

पराधीन, परावलम्बी को इस लोक और परलोक में कहीं भी सुख नहीं मिल सकता; इसलिए परमानंद की प्राप्ति के इच्छुकों को आत्म-निर्भर होने की आवश्यकता है।

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