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आचार्य श्रीराम शर्मा >> शक्तिवान बनिए

शक्तिवान बनिए

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15501
आईएसबीएन :00000

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जीवन में शक्ति की उपयोगिता को प्रकाशित करने हेतु

चौथा सूत्र

शक्ति संचय के पथ पर आरूढ़ होइए


अध्यात्मवाद की तीसरी शिक्षा है-शक्ति संचय। बलवान्, शक्तिवान्, समर्थ, संपन्न, सिद्ध बनने को आध्यात्मिक पुरुष सदा ही प्रयत्न करते हैं। योगी पुरुष आसन और प्राणायाम द्वारा नेति, धोति, वज्रोली, न्योलि, कपालभाति आदि द्वारा शरीर का शोधन, परिशोधन एवं दीर्घजीवन प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। अनेक प्रकार की साधनाओं द्वारा अष्टसिद्धिनवनिधि से संपन्न होने का प्रयत्न करते हैं। सिद्ध पुरुष अनेक प्रकार की विभूतियों से संपन्न होते हैं। आत्मबल, ब्रह्मबल प्राप्त करके ही वे अपना तथा दूसरों का कल्याण करते हैं। शक्तिहीन पुरुष दूसरों का भला नहीं कर सकते, अपना भला नहीं कर सकते, यहाँ तक कि जीवन निर्वाह तक ठीक प्रकार नहीं कर सकते।

निर्बलता एक बहुत बड़ा पातक है। अशक्त व्यक्ति अपना बुरा प्रभाव जिन निकटवर्ती एवं कुटुम्बी जनों पर डालते हैं, उनकी मनोवृत्ति भी उसी ढाँचे में ढलने लगती है। इस प्रकार यह छूत की बीमारी एक से दो में, दो से दस में और दस से सैकड़ों में फैलती चली जाती है। कायर, आलसी, निकम्मे, निर्बल, भिखारी, दीन, दास वृत्ति के लोग अपने समान औरों को भी बना लेते हैं।

संसार में पाप, अनीति एवं अत्याचार की वृद्धि का अधिकांश दोष निर्बलता पर है। कमजोर भेड़ और बकरियों को मांसाहारी मनुष्य और पशु उदरस्थ कर जाते हैं; पर भेड़िए का मांस पकाने की किसी की इच्छा नहीं होती। कमजोरी में एक ऐसा आकर्षण है कि उससे अनुचित लाभ उठाने की, हर एक की इच्छा हो जाती है। नन्हें-नन्हें अदृश्य रोग कीटाणु जो हवा में उड़ते फिरते हैं, उन्हीं पर आक्रमण करते हैं। जिन्हें कमजोर देखते हैं। हम अपने चारों ओर आँख फैला कर देख सकते हैं कि कमजोर पर हर कोई हमला करने की सोचता है; जैसे गंदगी इकट्ठी कर लेने से मक्खियाँ अपने आप पैदा हो जाती हैं या दूरदूर से इकट्ठी होकर वहीं आ जाती हैं, इसी प्रकार कमजोरों से अनुचित लाभ उठाने के लिए घर के पास-पड़ोस के तथा दूर-दूर के व्यक्ति एकत्रित हो जाते हैं, या वैसे लोग पैदा हो जाते हैं। यदि कमजोरी का अंत हो जाए, तो अत्याचार या अन्याय का भी अंत निश्चित है।

एक प्रसिद्ध कहावत है-शक्ति का प्रयोग रोकने के लिए शक्ति का प्रदर्शन जरूरी है। प्रकृति का, मनुष्यों का, रोगों का, शैतान का आक्रमण अपने ऊपर न हो, इसको रोकने का एकमात्र तरीका यह है कि हम अपने शारीरिक, बौद्धिक, आत्मिक बल को इतना बढ़ा लें कि उसे देखते ही आक्रमणकारी पस्त हो जायें। बल का संचय अनेक आने वाली विपत्तियों से अनायास ही बचा देता है। सबलता एक मजबूत किला है, जिसे देखकर शत्रुओं के मनसूबे धूल में मिल जाते हैं।

भवानी शक्ति की मूर्तियों में हम उनकी आठ भुजाएँ देखते हैं। इनका तात्पर्य है कि शक्ति के आठ साधन हैं-१. स्वास्थ्य २. विद्या ३. धन ४. व्यवस्था ५. संगठन ६. यश ७. शौर्य और ८. सत्य।

१. स्वास्थ्य- हम सब जानते हैं कि यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का मूल है। अस्वस्थ मनुष्य तो इस पृथ्वी को एक भार है, जो दूसरों के कष्ट का कारण बनकर अपनी साँस पूरी करता है। सच्चे जीवन का स्वाद लेने से और मनुष्यता के उत्तरदायित्वों को पूरा करने से वह सर्वथा वंचित रह जाता है। किसी मार्ग में उन्नति करना तो दूर, उसे प्राण धारण किए रहना भी बड़ा कठिन हो जाता है। स्वास्थ्य सर्वप्रथम और सर्वोपरि बल है। इस बल के बिना अन्य सब बल निरर्थक हैं। इसलिए स्वस्थता की ओर सबसे अधिक ध्यान की आवश्यकता है।

स्वाद, फैशन या आराम की ओर ध्यान न देकर आरोग्य की दृष्टि से हमें अपना जीवनक्रम बनाना चहिए। प्रातः जल्दी उठना, रात को जल्दी सोना, नियमित व्यायाम, त्वचा को खूब रगड़-रगड़ कर पूरा स्नान, मालिश, मलों की भली प्रकार सफाई, चटोरेपन को बिल्कुल तिलांजलि देकर सात्विक मन से कम, खूब चबाकर, प्रसन्नतापूर्वक भोजन करना, सामर्थ्य के अनुसार श्रम, चिन्ता से बचाव, वीर्य रक्षा आदि बातों में सावधानी बरती जाए, तो स्वस्थता परछाई की भाँति साथ रहेगी। तंदुरुस्ती हकीम, डॉक्टरों की दुकानों में या रंगी-बिरंगी शीशियों में नहीं है; वरन् आहार-विहार की सात्विकता एवं सावधानी में है। आडम्बरी, कृत्रिम, चटोरे, प्रकृति विरुद्ध, आलसी रहन-सहन से हम रोगी बनते हैं, उसे परित्याग करके यदि सादा, सीधा, सरल और प्रकृति अनुकूल जीवनक्रम बनाया जाए, तो स्वस्थता निश्चित रूप से हमारे साथ रहेगी।

२. विद्या- विद्या के दो विभाग हैं- एक शिक्षा, दूसरी विद्या। सांसारिक जानकारी को शिक्षा कहते हैं। जैसे भाषा, भूगोल, इतिहास, चिकित्सा, व्यापार, शिल्प, साहित्य, संगीत, कला, विज्ञान, नीति, न्याय व्यवस्था आदि। विद्या मनुष्यता के कर्तव्य और उत्तरदायित्व को हृदयंगम करने को कहते हैं। धर्म, अध्यात्म, शिष्टाचार, सेवा-पुण्य, परमार्थ, दया, त्याग, सरलता, सदाचार,संयम, प्रेम, न्याय, ईमानदारी, ईश्वर परायणता, कर्तव्य भावना प्रभृति वृत्तियों का जीवन में घुल-मिल जाना विद्या है। शिक्षा और विद्या दोनों को ही प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। शिक्षा से सांसारिक जीवन की श्री वृद्धि होती है और विद्या से आत्मिक जीवन में सुसंपन्नता आती है।

बौद्धिक विकास के लिए जिज्ञासा की सबसे अधिक आवश्यकता है। जिसके मन में जानने की इच्छा उत्पन्न होती है, अनेकों तर्क-वितर्क उठते हैं, चिंतन, मनन और विवाद करने में जिसे रस आता है, जो अपनी जानकारी बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील रहता है, जिसे ज्ञान संग्रह का शौक है, जो ज्ञानवान् बनने के महत्त्व और आनंद से परिचित है, वह नित्य प्रति अधिक ज्ञानवान् होता जायेगा। ज्ञानवान् बनने के अनेकों साधन उसे पग-पग पर प्राप्त होते रहेंगे। मूढ़मति के मनुष्यों को जहाँ कोई खास बात नहीं दिखाई पड़ती, जिज्ञासु व्यक्ति की सूक्ष्म दृष्टि वहाँ भी बहुत-सी जानने योग्य बातें ढूंढ़ निकालती है। ज्ञानवान् बनने की आकांक्षा हुए बिना मस्तिष्क की वे सूक्ष्म शक्तियाँ संचित नहीं हो सकतीं, जिनके आधार पर शिक्षा और विद्या की प्राप्ति हुआ करती है। 'अथातो ब्रह्म जिज्ञासा' के सूत्रकार ने ज्ञान साधना का प्रथम उपाय जिज्ञासा को बताया है। जिज्ञासु होना विद्वान् होने का पूर्व रूप है।

अपनी जानकारी की अल्पता को समझना और अधिक मात्रा में एवं अधिक वास्तविक ज्ञान को प्राप्त करने की निरन्तर चाह रखना, मनुष्य को क्रमशः ज्ञानवान् बनाता जाता है। ज्ञान वृद्धि को प्राप्त करने के अवसरों को जो लोग तलाशते रहते हैं और वैसे अवसर मिलने पर समुचित लाभ उठाते हैं, उनकी विद्या दिन-दिन बढ़ती जाती है।

३. धन- आज पैसे का मनुष्य जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। मनुष्य की लघुती-महानता अब पैसे के पैमाने से नापी जाने लगी है। पैसे के द्वारा सब सुख-सामग्रियाँ, सब प्रकार की योग्यता और शक्तियाँ खरीद ली जाती हैं। आज जो अनुचित, अत्यधिक महत्त्व पैसे को प्राप्त है, उसकी ओर ध्यान दिया जाय तो भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि पैसे की आवश्यकता हर एक को है। भोजन, वस्त्र एवं मकान की जरूरत पड़ती है। अतिथि सत्कार, परिवार का भरण पोषण, बच्चों की शिक्षा, विवाह, चिकित्सा, दुर्घटना, अकाल, आपत्ति यात्रा आदि के लिए थोड़ा- बहुत पैसा हर सद्गृहस्थ के पास रहना आवश्यक है।

धन उपार्जन की अनेकों प्रणालियाँ संसार में प्रचलित हैं। उनमें से व्यापार, उत्पादन एवं निर्माण की प्रणाली सबसे उत्तम है। शिल्प, वाणिज्य, कला कौशल, कृषि, गौ पालन, दलाली आदि के द्वारा आसानी से पैसा पैदा किया जा सकता है। नौकरीबिना पूँजी वाले और ढीले स्वभाव वालों का सहारा है। इसका अवलम्बन न लेकर स्वावलंबनपूर्वक उत्तम कार्य से जीविका उपार्जित करनी चाहिए। विश्वस्तता, मधुर व्यवहार, परिश्रम, ईमानदारी, अच्छी चीज, वायदे की पाबन्दी, सजावट, विज्ञापन एवं मितव्ययता के आधार पर हर व्यक्ति अपने कारोबार में वृद्धि कर सकता है। नौकरी, उत्पादन, निर्माण, व्यापार सभी कार्यों में इनके आधार पर आमदनी और मजबूती बढ़ सकती है। न्यायोचित आधार पर समुचित जीविका प्राप्त कर लेना कुछ कठिन नहीं है।

सही मार्ग से धनी बनना प्रशंसनीय है। धन को जोड़-जोड़ कर विशाल राशि जमा करने में नहीं, वरन् उसका ठीक समय पर आवश्यक एवं उचित उपयोग कर लेने में बुद्धिमानी है। धन को विवेकपूर्वक कमाना चाहिए और विचारपूर्वक खर्च करना चाहिए, तभी धन की शक्ति का वास्तविक लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

४. व्यवस्था- व्यवस्था बहुत बड़ी शक्ति है। बड़ी-बड़ी सफलताएँ प्राप्त करने के लिए मनुष्य को अच्छा व्यवस्थापक होना चाहिए। जो व्यक्ति कार्य को पूरा करने का समुचित प्रबन्ध कर सकता है, वह बहुत बड़ा जानकार है। धनी, विद्वान् और स्वस्थ पुरुष अनेक स्थानों पर असफल रहते देखे गए हैं, पर चतुर प्रबन्धक स्वल्प साधनों से बड़े-बड़े कार्यों के लिए सरंजाम जुटा डालते हैं और अपनी हिम्मत, चतुरता, बुद्धिमत्ता एवं व्यवस्था के बल पर उन्हें पूरा कर लेते हैं।

अ- दूसरों पर प्रभाव डालना, 
ब- उपयोगी मनुष्यों का सहयोग एकत्रित करना, 
स- काम की ठीक योजना बनाना, 
द- नियमित कार्यप्रणाली का संचालन करना, 
ह- रास्ते में आने वाली कठिनाइयों का निराकरण करना।

यह पाँच गुण व्यवस्थापकों में देखे जाते हैं। वे मधुर भाषण, शिष्टाचार, सद्व्यवहार, लोभ, भय आदि से दूसरों को प्रभावित करना जानते हैं। अनुपयोगी अयोग्य लोगों की उपेक्षा करके काम के आदमियों को सहयोग में लेते हैं। लाभ और हानि के हर एक पहलू को, वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, अनुभव और आँकड़ों के आधार पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने के पश्चात् वे अपने काम की योजना बनाते हैं। समय की पाबन्दी, नियमितता, ठीक समय पर ठीक कार्य करना, स्वच्छता, निरालस्यता एवं जागरूकता उनके स्वभाव का एक अंग बन जाती है। दोषों को वे बारीकी से ढूंढ लेते हैं और उन्हें दूर हटाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं। बदलती हुई परिस्थितियों के कारण जो खतरे आते हैं, उन्हें रोकने एवं शमन करने पर उनका पूरा ध्यान रहता हैं। सफल व्यवस्थापक में इस प्रकार के गुण होते हैं। उनकी सूझबूझ व्यावहारिक होती है।

निरालस्यता, जागरूकता, स्वच्छता, नियमितता, पाबन्दी, मर्यादा का ध्यान रखने से मनुष्य के विचार और कार्य व्यवस्थित होने लगते हैं और वह धीरे-धीरे अपने क्षेत्र में एक कुशल व्यवस्थापक बन जाता है। ऐसे आदमी का दुनिया लोहा मानती है, सफलता उसका पानी भरती है।

५. संगठन- शास्त्रकारों ने 'संघेशक्तिः कलौयुगे' सूत्र में वर्तमान समय में संघशक्ति-संगठन, एकता को प्रधान शक्ति माना है। जिस घर में, कुटुम्ब में, जाति में, देश में एकता है, वह शत्रुओं के आक्रमण से बचा रहता है एवं दिन-दिन समुन्नत होता है। फुट के कारण जो बर्बादी होती है, वह जग जाहिर है। अच्छे मित्रों का, सच्चे मित्रों का समूह एक-दूसरे की शक्तिवान् बनिए सहायता करता हुआ आश्चर्यजनक उन्नति कर जाता है। बुद्धि बल, धन बल, भुज बल की भाँति जन बल भी महत्त्वपूर्ण है। जिसके साथ दस आदमी हैं, वह शक्तिशाली है। जन शक्ति द्वारा बड़े दुस्तर कार्यों को आसान बना लिया जाता है।

आप सामूहिक प्रयत्नों में अधिक दिलचस्पी लीजिए। अकेले माला जपने की अपेक्षा संध्या, भजन, कीर्तनों में सामूहिक रूप में सम्मिलित होना पसंद कीजिए। अकेले कसरत करने की अपेक्षा सामूहिक खेलों में भाग लेना और अखाड़ों में जाना ठीक समझिए। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक, बौद्धिक एवं मनोरंजक संस्थाओं में भाग लीजिए। यदि आपके यहाँ वे सब न हों, तो स्थापित कीजिए। अपने जैसे समान विचार के लोगों की एक मित्र मण्डली बना लीजिए और आपस में खूब प्रेम भाव बढ़ाइए। घर में और बाहर सच्ची मैत्री का, एकता का बढ़ाना एक महत्त्वपूर्ण वास्तविक लाभ है।

६. यश- नीतिकारों का कहना है कि जिसका यश है, उसी का जीवन प्रतिष्ठित है। प्रतिष्ठा का, आदर का, विश्वास का, श्रद्धा का संपादन करना सचमुच एक बहुत बड़ी कमाई है। देह मर जाती है। पर यश नहीं मरता। ऐतिहासिक सत्पुरुषों को स्वर्ग सिधारे हजारों वर्ष बीत गए; परन्तु उनके पुनीत चरित्रों का गायन कर असंख्यों मनुष्य अब भी प्रकाश प्राप्त करते हैं।

जो व्यक्ति अपने अच्छे आचरण और अच्छे विचारों के कारण, सेवा, साहस, सच्चाई एवं त्याग के कारण लोगों की श्रद्धा प्राप्त कर लेता है, उसे बिना माँगे अनेक प्रकार से प्रकट और अप्रकट सहायताएँ प्राप्त होती रहती हैं। यशस्वी व्यक्ति पर कोई संकट आता है, तो उसका निवारण करने के लिए अनेकों व्यक्ति आश्चर्यजनक सहायता करते हैं; इसप्रकार वे उन्नति के लिए अयाचित सहयोग प्राप्त करते हैं। सुख्याति द्वारा जिन्होंने दूसरों के हृदयों को जीत लिया है, इस संसार में यथार्थ में वे ही विजयी हैं।

यश सद्गुणों, सत्कार्यों, सद्विचारों से एवं भीतर-बाहर से विश्वस्त रहने वालों को ही प्राप्त होता है। महात्मा गाँधी से बडे-बडे साम्राज्य थरथराते थे। वे गाँधी व्यक्ति से नहीं डरते थे, वरन उनके पीछे जो विशाल जनसमूह की अटूट श्रद्धा थी, उससे घबराते थे। यश सचमुच शक्ति है। उस शक्ति से संपन्न मनुष्य तुच्छ से महान् बन जाता है।

७. शौर्य- साहस, बाजी मारता है। हिम्मत वालों की खुदा मदद करता है। आपत्ति में विचलित न होना, संकट में संयम, धैर्य रखना, विपत्ति के समय विवेक को कायम रखनी मनुष्य की बहुत बड़ी विशेषता है। बुराइयों के विरुद्ध लड़ना, संघर्ष करना और उन्हें परास्त करके दम लेना शौर्य है। शान्ति अच्छी है- परन्तु अशान्ति का अन्त करने वाली अशान्ति भी शान्ति के समान ही अच्छी है। कायरता की जिन्दगी से मर्दानगी की मौत अच्छी। स्वाभिमान, धर्म और मर्यादा की रक्षा के लिए मनुष्य को बहादुर होना चाहिए।

खतरे में पड़ने का चाव निर्भीकता, बहादुरी, जोश, यह सब आंतरिक प्रेरक शक्ति के, गरम खून के चिह्न हैं। जो फैंक-फेंक कर पाँव धरते हैं, वे सोचते और मौका हूँढ़ते रह जाते हैं; पर साहसी पुरुष कूद पड़ते हैं और तैर कर पार हो जाते हैं। दब्बू, डरपोक, कायर, कमजोर, शंकाशील मनुष्य सोचते और डरते रहते हैं। उनसे कोई असाधारण काम नहीं हो पाता ।यह पृथ्वी वीर भोग्या है। वीर पुरुषों के गले में ही जयमाला पहनाई जाती है। उद्योगी सिंह पुरुष ही लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं। जो साहसी, पराक्रमी, कर्मठ और निर्भीक है, वह शक्तिवान् है; क्योंकि साहस रूपी प्रचण्ड शक्ति उसके हृदय में विद्यमान है।

८. सत्य- सत्य में अकूत बल भरा हुआ है। साँच को आँच नहीं। सत्य इतना मजबूत है कि उसे किसी भी हथियार से नष्ट नहीं किया जा सकता। जिसके विचार और कार्य सच्चे हैं, वह इस संसार का सबसे बड़ा बलवान् है। उसे कोई नहीं हरा सकता। सत्यतापूर्ण हर एक कार्य के पीछे दैवी शक्ति होती है। असत्य के पैर जरा-सी बात में लड़खड़ा जाते और उसका भेद खुल जाता है, किन्तु सत्य अडिग चट्टान की तरह सुस्थिर खड़ा रहता है। उस पर चोट करने वालों को स्वयं ही परास्त होना पड़ता है। हजार आडम्बरों से लिपटा हुआ असत्य जो कार्य नहीं करता, वह कार्य सीधी और सरल सत्यता द्वारा पूरा हो जाता है। सत्यनिष्ठ पुरुष प्रभावशाली, तेजस्वी और शक्तिशाली होता है। जो सत्यनिष्ठ हैं, मन, कर्म और वचन से सत्यपरायण रहते हैं, उनके बल की किसी भी भौतिक बल से तुलना नहीं की जा सकती।

यह आठ बल भगवती दुर्गा की आठ भुजाएँ हैं। हमें उन आठों बलों को अधिकाधिक मात्रा में संचित करने के लिए, प्रयत्नशील रहकर शक्ति पूजा करनी चाहिए। शक्ति की कृपा से लौकिक और पारलौकिक सिद्धियाँ मिलती हैं। स्वर्ग और मुक्ति भी शक्ति का ही प्रसाद है।

पाठको! शक्ति संचय के पथ पर अग्रसर होओ। मनचाही सुख-समृद्धि प्राप्त करने के लिए अध्यात्म विज्ञान का अवलम्बन करो, अपने को अविनाशी आत्मा मानो, परिस्थितियों का निर्माता अपने आपको मानो और अष्टभुजी दुर्गा की उपासना करो। इस मार्ग पर चलने से तुम शक्तिवान् बनोगे। स्मरण रखो, शक्तिवान् को ही सिद्धि प्राप्त होती है।

 

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