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आचार्य श्रीराम शर्मा >> युग की माँग प्रतिभा परिष्कार - भाग 2

युग की माँग प्रतिभा परिष्कार - भाग 2

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15537
आईएसबीएन :0

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युग की माँग प्रतिभा परिष्कार - भाग 1

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प्रतिभा संवर्धन का मूल्य भी चुकाया जाए


गाँधी युग में जो सत्याग्रही उभरकर आगे आए, वे स्वतंत्रता सेनानी कहलाए, यशस्वी बने। ताम्र पत्र, पेंशन और आवागमन के मुफ्त पास प्राप्त करने के लाभों से गौरवान्वित हुए। जो उनमें वरिष्ठ और विशिष्ट थे, वे देश का शासन सूत्र संचालन करने वाले मूर्द्धन्य बने। बापू के संपर्क में रहे नेहरू, पटेल जैसे अनेकों रत्न ऐसे हैं जिनके स्मारकों को नमन किया जाता है। इतिहास कें पृष्ठों पर यशोगाथा पढ़कर भाव-विभोर हुआ जाता है। यह उनकी प्रचंड प्रतिभा का प्रतिफल मात्र है। यदि वे संकीर्ण स्वार्थपरायणों की तरह अपने मतलब से ही मतलब रखते, तो मात्र कुछ सुख-साधनों से मन बहला पाते, प्रकाश स्तंभ बनने के सुयोग सौभाग्य से तो उन्हें वंचित ही रहना पड़ता। जो उन दिनों कृपणता धारण किए रहे वे अग्रगामियों के साथ अपनी तुलना करने पर 'माया मिली न राम' वाली स्थिति पर पश्चाताप ही करते रहते हैं, पर बीता हुआ समय पुनः लौटता कहाँ है?

बुद्ध, गाँधी, दयानंद, विवेकानंद, बिनोवा जैसों की महान् उपलब्धियाँ स्मरण करके हर विचारशील का अंतःकरण उमगता है कि यदि उन्हें ऐसा ही श्रेय मिल सका होता तो कितना अच्छा होता? उस अवसर को गँवाकर वे जिस ललक-लिप्सा की पूर्ति का दिवा-स्वप्न देखते रहते हैं, उसे भी कौन साकार कर पाता है? तृष्णा मरते समय तक प्रौढ़ ही बनी रहती है। शेखचिल्लियों का समुदाय कुबेर जैसा धनाढ्य और इंद्र जैसा प्रतापी बनने के सपने देखता है, पर अब निष्कर्ष की वेला में मात्र इतना ही प्रतीत होता है कि कोलू के बैल की तरह पिलते और पिसते हुए समय बीतता गया। श्मशान के भूत-पलीत की तरह डरते और डराते रहने के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगा।

भाग्यवान् वे हैं, जिन्होंने आदर्शों के साथ रिश्ता जोड़ा, महानता का मार्ग अपनाया और ऐसा कुछ कर दिखाया, जिसका अनुकरण करते हुए असंख्यों को गौरव-गरिमा का लक्ष्य प्रदान करने वाला ऊर्जा भरा प्रकाश उपलब्ध होता रहे। मूर्खता और बुद्धिमत्ता के चयन के लिए इसी चौराहे पर सही निर्णय करने का अवसर है। वैसा अवसर सुयोग भी इन्हीं दिनों है, जिसका लाभ भगीरथ और अर्जुन ने अपनी उदात्त साहसिकता के बदले खरीदा था। वरदान अनायास ही किसी को कहाँ मिलते हैं? देवता कुपात्रों और असमर्थों पर कृपा करते हैं। पात्रता की गहराई रहने पर ही वर्षा का पानी विशाल जलाशय के रूप में लहराता है।

यह युगसंधि का प्रभात पर्व ऐसा है, जिसमें महाकाल को प्राणवान् प्रतिभाओं की असाधारण आवश्यकता पड़ रही है। दैवी प्रयोजन महामानवों के माध्यम से ही क्रियान्वित होते हैं। अदृश्य शक्तियाँ तो उनमें प्रेरणा भर भरती हैं। यह व्यक्ति का स्वतंत्र निर्धारण होता है कि उन्हें अपनाए या ठुकराए। कृष्ण ने अर्जुन को कहा था कि ''दुष्ट कौरव तो पहले से ही मरे पड़े हैं। मैंने उनका पहले ही तेजहरण कर लिया है। तुझे तो धर्मयुद्ध में निरत होकर मात्र श्रेय भर गले धारण करना है।'' वस्तुतः युग की विकृतियों का शमन होना ही है। नवसृजन का ऐसा महायज्ञ जाज्वल्यमान होना है, जिससे आगामी लंबे समय तक सुख-शांति और प्रगति का वातावरण बना रहे, एकता और समता को मान्यता मिले, ध्वंस का स्थान सृजन ग्रहण करे और चेतन तथा भौतिक शक्तियों का नियोजन मात्र सत्प्रयोजनों के निमित्त होता रहे। इसी उज्जल भविष्य को 'सतयुग की वापसी' नाम दिया गया है। अनीति की असुरता का दमन देवताओं की सामूहिक शक्ति-संघशक्ति दुर्गा के अवतरण से संभव हुआ था। लगभग उसी पुरातन प्रक्रिया का प्रत्यावर्तन नए सिरे से, नए रूप में इन दिनों संपन्न होने जा रहा है। उस प्रवाह में सम्मिलित होने वाले सामान्य पत्तों की तरह हलके होते हुए भी सरिता की धाराओं पर सवार होकर बिना कुछ विशेष प्रयास के ही महानता के महासमुद्र में जा मिलने में सफल हो सकेंगे।

अपने काम से, किसी से कुछ पाने के लिए कहीं जाना एक बात है और किसी समर्थ सत्ता द्वारा अपने सहायक के रूप में बुलाए जाने पर वहाँ पहुँचना सर्वथा दूसरी। पहली में एक पक्ष की दीनता और दूसरे पक्ष की स्वाभाविक उपेक्षा भर रहती है पर आमंत्रित अतिथि को लेने स्टेशन पर माला लेकर पहुँचना और सम्मानपूर्वक ठहराया जाता है। उसके वार्तालाप को भी प्रमुखता दी जाती है और ऐसा आधार खड़ा किया जाता है कि आमंत्रित व्यक्ति में निमंत्रण का उद्देश्य समझने और उसमें सहभागी बनने की प्रतिक्रिया उत्पन्न हो। महाकाल द्वारा प्रज्ञा-परिजनों को भेजे गए आमंत्रण को इसी रूप में देखा-समझ जाना चाहिए।

राम स्वयं ऋष्यमूक पर्वत पर गए थे और सुग्रीव-हनुमान् को सहयोग हेतु सहमत करके लौटे थे। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद के घर जाकर उन्हें देव संकृति के पुनरुद्धार में संलग्न होने के लिए सहमत किया था। अर्जुन को स्वयं भगवान् कृष्ण ने समझाने से लेकर धमकाने तक की नीति अपनाकर युद्धरत होने के लिए बाधित किया था। समर्थ और शिवा के, चाणक्य और चंद्रगुप्त के बीच भी ऐसा ही घटनाक्रम बना था। साथ ही उन्हें आवश्यक शक्ति और सफलता प्रदान करने के लिए भी उपयुक्त तारतम्य बिठाया था। जिन्हें पारदर्शी दृष्टि प्राप्त है, वे देख सकते हैं कि महाकाल ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए प्राणवानों के सामने गिड़गिड़ाने का उपक्रम नहीं किया है, वरन् सुनिश्चित संभावनाओं में भागीदार बनकर अजस्र सौभाग्य प्रदान करने के लिए चुना है। इस तरह बरसने वाले वरदान की उपेक्षा-अवमानना करना किन्हीं अदूरदर्शी हतभागियों से ही बन पड़ेगा। लोभ-मोह के बंधन में फँसने और बँधे रहने के लिए तो हीन स्तर के प्राणी भी स्वतंत्र हैं, फिर मनुष्य अपनी गरिमा भरे भविष्य को यदि उसी तुच्छता पर आधारित करने का हठ करे, तो उसे किस प्रकार समझदारों की पंक्ति में बिठाया जा सकेगा?

सरकार मोरचे पर सैनिकों को लड़ने भेजती है, तो उनके लिए आवश्यक अस्त्रों, उपकरणों, वाहनों की, भोजन-आच्छादन की व्यवस्था भी करती है और उनके घर-परिवार के सदस्यों के निर्वाह हेतु वेतन भी प्रदान करती है। युगसृजन के लिए कटिबद्ध होने वालों को आवश्यक प्रतिभा से लेकर उपयुक्त परिस्थितियाँ उपलब्ध न हों, ऐसा हो ही नहीं सकता। नवसृजन की संभावना तो पूरी होने ही वाली है, क्योंकि उसके न बन पड़ने पर 'महाप्रलय' ही शेष रह जाती है, जो कि स्रष्टा को अभी स्वीकार नहीं।

व्यक्ति और समाज अब इस कदर गुँथ गए हैं कि दोनों का पारस्परिक तालमेल पानी और मछली जैसा अविच्छिन्न हो गया है। कोई निजी उन्नति से, निजी सुविधा संपादन भर से सुखी नहीं रह सकता। संबद्ध वातावरण यदि विपन्न है तो किसी सज्जन की भी शांति सुरक्षित नहीं रह सकती। अग्नि और महामारी किसी घर विशेष तक सीमित नहीं रहती। गुंडागरदी एक जगह पनपेगी तो समूचे क्षेत्र में विग्रह खड़ा करने का निमित्त कारण बनेगी। बढ़ी हुई जनसंख्या और आधुनिक प्रगति के फलस्वरूप अब निजी जीवन को सही बना लेने भर से काम चलने वाला है नहीं। इसलिए जनमानस के गिरे हुए स्तर कों उभारना प्रकारांतर से अपनी और अपने परिकर की सुरक्षा करना है। सामूहिक जीवन मनुष्य की नियति है। इन दिनों सामूहिकता और भी अनिवार्य हो गई है। अपने मतलब से मतलब रखने की नीति अपनाने वाले यह नहीं समझते कि समुन्नत समाज के घटक ही वास्तव में सुखी रह सकते हैं।

प्रतिभा संपादन के लिए विशेषतया उच्चस्तरीय वातावरण में रहना, उत्कृष्ट सोचना और आदर्शवादी क्रियाकलापों में निरत रहना चाहिए। निजी सुधार एवं अभ्युदय भी इसके बिना नहीं हो सकता। अपनी स्थिति लोकसेवी और उदारचेता सद्गुणी रखे बिना, किसी भी शारीरिक बनावट मात्र से प्रभावशाली होने का अवसर नहीं मिल सकता। सद्गुणों का बाहुल्य एवं अभ्यास ही किसी को इस योग्य बनाता है कि वह अन्यान्यों का सम्मान एवं सहयोग अर्जित कर सके। इसी सफलता के आधार पर किसी की प्रतिभा और गरिमा का वास्तविक मूल्यांकन हो सकता है।

आवश्यक है कि संकीर्ण स्वार्थपरता की पूर्ति में ही अपनी समूची क्षमताएँ न खपा दी जाएँ। इसमें जितना लाभ दिखाई पड़ता है उसकी तुलना में घाटा अधिक है। व्यापक स्तर का सार्वजनीन स्वार्थ ही परमार्थ है। परमार्थपरायण अपना निज का हितसाधन तो निश्चित रूप से करते ही हैं, साथ ही चंदन वृक्ष की तरह निकटवर्ती लोगों को भी गरिमा प्रदान करते हैं। प्रतिभा संपादन के लिए जिस प्राथमिक कक्षा में पढ़े बिना काम नहीं चलता, वह है-सेवासाधना। उच्चस्तरीय सेवासाधना में दो ही तत्त्व प्रमुख हैं-एक सत्पवृत्ति संवर्धन, दूसरा दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन। इन दो प्रयासों को अपनाने के लिए अपने समय और साधनों का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहने का महत्त्व समझा जाना चाहिए। एक सुनिश्चित व्रतधारण कर उसका निर्वाह करते रहने में अपनी श्रद्धा-निष्ठा एवं मनस्विता का परिचय देना चाहिए। इसे 'प्रतिभा परिवर्धन' की अनिवार्य फीस मानकर चलना चाहिए। युग परिवर्तन का सरंजाम इसी, माध्यम से संपन्न होगा।

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    अनुक्रम

  1. प्राणवान् प्रतिभाओं की खोज
  2. विशिष्टता का नए सिरे से उभार
  3. प्रतिभा परिवर्धन के तथ्य और सिद्धांत
  4. युगसृजन के निमित्त प्रतिभाओं को चुनौती
  5. प्रतिभा संवर्धन का मूल्य भी चुकाया जाए
  6. प्रतिभा के बीजांकुर हर किसी में विद्यमान हैं
  7. बड़े कामों के लिए वरिष्ठ प्रतिभाएँ
  8. उत्कृष्टता के साथ जुड़ें, प्रतिभा के अनुदान पाएँ

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