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आचार्य श्रीराम शर्मा >> युग की माँग प्रतिभा परिष्कार - भाग 2

युग की माँग प्रतिभा परिष्कार - भाग 2

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15537
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युग की माँग प्रतिभा परिष्कार - भाग 1

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प्रतिभा के बीजांकुर हर किसी में विद्यमान हैं


सड़क पर मोटर के पहिए दौड़ते दीखते हैं, पर इंजन का परदा उठाकर देखने पर प्रतीत होगा कि उसके भीतर तेल जलकर ऊर्जा उत्पन्न कर रहा है। उस उत्पादन में भी बैटरी और डायनेमो की अपनी-अपनी भूमिका है। उसी शक्ति से अनेक कलपुर्जे अपने-अपने ढंग से घूमते और मोटर को सड़क पर दौड़ाते रहते हैं। मानवी सत्ता के संबंध में भी यही बात है। उसकी प्रत्यक्ष हलचलें हाथ, पैर, सिर, धड़, आँख, मुँह आदि के माध्यम से कार्य करती दीख पड़ती हैं; पर त्वचा का ढक्कन उठाकर देखने से कुछ और ही प्रतीत होता है। हृदय का रक्त संचार, मांसपेशियों का आकुंचन-प्रकुंचन श्वास-प्रश्वास आदि हरकतें भीतरी अवयव करते हैं और उनके घर्षण से ऊर्जा का वह उत्पादन होता है, जिसके माध्यम से शरीर के सभी अंग अपनी-अपनी निर्धारित क्रिया-प्रक्रिया संपन्न करते रहने में समर्थ होते हैं। इन सबके भीतर भी एक गहरी परत है, जो मस्तिष्क के मध्य भाग ब्रह्मरंध्र में, विद्युत् प्रवाह के उद्गम स्रोत का काम करती है। इस उद्गम का भी स्वतंत्र कर्तृत्त्व नहीं है। वह अखिल ब्रह्मांड में संव्याप्त महाऊर्जा से संबंध जोड़कर जितना आवश्यक है, उतना ग्रहण करती रहती है।

अंग अवयवों की बनावट तो रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा, वसा आदि से विनिर्मित प्रतीत होती है, किंतु वस्तुतः इनके बीच अरबों-खरबों जीवकोषों ऊतकों की ऐसी क्रियाशीलता विद्यमान दिखाई देती है, मानो किसी स्वतंत्र विश्व का उद्भव, अभिवर्धन, परिवर्तन उनके बीच हो रहा हो। यों जीवकोष अपने स्थान पर व्यवस्थित रूप से विद्यमान दीखते हैं; पर वे तेजी से अपना काम करते हुए, अपनी सीमित सत्ता को समाप्त कर लेते हैं। साथ ही वे एक और आश्चर्य प्रस्तुत करते हैं कि अपना समानांतर उत्तराधिकारी कोष बनाकर, अपने मरण से पूर्व स्थानापन्न कर देते हैं, ताकि रिक्तता उत्पन्न न होने पाए। मृतक कोष कचरे के रूप में बहिर्गमन छिद्रों द्वारा बाहर निकलते रहते हैं। जीवित कोष अन्य, जल, वायु जैसे पोषक माध्यमों को ग्रहण करने से लेकर पचाने तक में लगे रहते हैं।

कण-कण में निरंतर गतिशील यह प्रक्रिया इतनी हुतगामी होती है कि उसकी अनवरत क्रियाशीलता को देखकर-आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। इतना बड़ा कायतंत्र इतने छोटे घटकों से मिलकर बना है, यह कम आश्चर्य की बात नहीं है। उससे भी अधिक आश्चर्य इस बात का है कि प्रत्येक जीवकोष छोटे रूप में लगभग उसी क्रियाकलाप का अनुसरण करता रहता है, जो अपने सौर मंडल में गतिशील रहता है। यह सब कैसे होता है? शक्ति कहाँ से आती है? साधन कहाँ से जुटते हैं? इन सबका उत्तर काय कलेवर के कण-कण में संव्याप्त और गतिशील विद्युत् प्रवाह की ओर संकेत करके ही दिया जा सकता है। चूँकि घटक अत्यंत छोटे हैं और उनमें काम करने वाली सचेतन स्तर की विद्युत् अत्यल्प मात्रा में आँकी जाती है, इसलिए वैसा कुछ अनुभव नहीं होता जैसा कि बिजली की अँगीठी या तारों को छूते समय होता है। फिर भी उनमें उपस्थित शक्ति की प्रचंडता सुनिश्चित है। यदि ऐसा न होता, तो असंख्य लघु घटकों से विनिर्मित काया का प्रत्येक घटक, अपने-अपने कामों को इतनी मुस्तैदी से, इतनी नपी-तुली सही रीति से कर न पाता।

आकलनकर्त्ताओं ने हिसाब लगाया है कि यदि शरीर के छोटे-बड़े अनेकानेक अंग-प्रत्यंगों की बिजली को एकत्रित किया जा सके, तो उसकी शक्ति किसी विशालकाय बिजलीघर से कम न होगी। इतनी आपूर्ति किए बिना, जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत, जो असंख्य क्षेत्रों की अनेकानेक स्तर की गतिविधियाँ बिना रुके अनवरत रूप से काम करती रहती हैं, उनका इस प्रकार क्रियाशील रह सकना संभव न हुआ होता। औसत पाँच फुट छह इंच का यह कलेवर अपने भीतर इतनी शक्ति-सामर्थ्य छिपाए हुए है, जिसे यदि वैज्ञानिक द्वारा स्थूल उपकरणों के माध्यम से उत्पन्न किया जाए तो उसके लिए मीलों लंबे विशालकाय बिजली घर की आवश्यकता पड़ेगी। इतना विराट एवं असीम संभावनाओं से भरा है यह काया का विद्युत् भंडार।

साधारणतया इस विद्युत् प्रवाह का एक बहुत छोटा अंश ही काम आता है। उतना, जिससे हलकी-फुलकी दिनचर्या चलती रहे। आजीविका उपार्जन, उसके परिपालन, निद्रा-जाग्रति तथा छिटपुट काम ही इसके द्वारा संपन्न हो पाते हैं। क्रियाशील उतना ही अंश रहता है जो काम में आता रहता है। उथली साँस लेने वालों के फेफड़ों का थोड़ा ही अंश काम में आता है, फलतः शेष अंश निर्बल-दुर्बल बना, किसी प्रकार अपना अस्तित्व भर बनाए रहता है। आरामतलब लोगों के शरीर का अधिकांश भाग निष्क्रिय पड़ा रहता है और उस दुर्बलता का लाभ उठाकर वहाँ कई प्रकार के रोगविषाणु जड़ जमा लेते हैं। ये काया को जीर्ण बनाकर गिरगिट की तरह रंग बदलते रहते हैं। यही बात मस्तिष्क के बारे में भी होती है। मनुष्य की इच्छा-आकांक्षाएँ सीमित होती हैं। वह उन्हीं को पूरी करने के लिए कल्पना-जल्पना करता रहता है। मन और बुद्धि का एक छोटा अंश ही इस प्रयोजन के लिए खपता है। जिन क्षमताओं का उपयोग नहीं हो पाता, वे प्रसुप्त स्थिति में चली जाती हैं और लगभग मूर्च्छित स्थिति में किसी कोने में छिपी पड़ी रहती हैं।

मानवी विद्युत् भंडार की असीमितता, उपयोगिता और उसकी महती क्षमता का यदि विज्ञानसम्मत आकलन किया जा सके, तो प्रतीत होगा कि वह इतनी अधिक है कि जिसके सहारे अपना और दूसरों का इतना हितसाधन हो सकता है, जितना कि कभी-कभी मनुष्यकृत ऐतिहासिक चमत्कारों के विवरणों में पढ़कर हतप्रभ हो जाना पड़ता है। प्रचलित भाषा में इन्हें दैवी वरदानों के नाम से पुकारा जाता है, ऋद्धि-सिद्धियों का भंडार कहा जाता है अथवा दिव्य विभूतियों के नाम से उनकी चर्चा होती रहती है। ऐसे संदर्भ भी प्रायः सही ही होते हैं, अतः मानना पड़ता है कि मनुष्य वस्तुतः असीम शक्तियों का भंडार है। इसी बात को इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि वह तप के बल पर देवताओं से उच्चस्तरीय विभूति-वरदान उपलब्ध कर सकता है; किंतु वास्तविकता इतनी ही है कि जो कुछ उभरता है, भीतर से ही उफनकर ऊपर आया हुआ होता है।

जिन्हें पेट-प्रजनन की ही गरज है, जो लोभ, मोह और अहंकार से ऊँचे उठ सकने की आवश्यकता ही नहीं समझते, उनके संबंध में तो कहा ही क्या जाए? किंतु जिन्हें कोई महत्त्वपूर्ण लक्ष्य प्राप्त करना है, उनके लिए एक ही उपाय है कि प्रसुप्त शक्तियों को जाग्रत् करके, उन्हें उस स्तर का अभ्यास कराए, जिसके बलबूते बड़े काम किए जाते हैं-बड़े लाभ अर्जित किए जाते हैं। दूसरों की सहायता पाने की बात को अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए। अपना पुरुषार्थ जगे, तो यह स्वाभाविक है कि खिले हुए फूल को देखकर उस पर तितलियाँ मँड़राएँ और भौंरे यश गति गाने की झड़ी लगाएँ।

अध्यात्म दर्शन का सार निष्कर्ष इतना भर है कि अपने को जानो, 'आत्मानं विद्धि'। अपने को विकसित करो और ऐसी राह पर चलो जो कहीं ऊँचे लक्ष्य तक पहुँचाती हो। यह शिक्षा अपने आपके लिए है। इसे स्वीकार-अंगीकार करने के उपरांत ही वह प्रयोजन सधता है, जिसमें दूसरों से कुछ समर्थन, सहायता, अनुदान पाने की आशा की जाए। देवता भी तपस्वियों को ही वरदान देते हैं, बाकी तो फूल प्रसाद के दोने लिए, देव स्थानों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते रहते हैं। भिखारी कितना कुछ कम पाते हैं, इसे सभी जानते हैं। उन्हें जीवन भर अभावों की, उपेक्षा की शिकायत ही बनी रहती है।

वस्तुस्थिति समझने के उपरांत उसी निमित्त उन्मुख होना चाहिए कि अपने को अधिक प्रामाणिक और अधिक प्रखर बनाने में जुट पड़ा जाए। मनौती मानते रहने की अपेक्षा यही अवलंबन सही और सच्चा है। इस हेतु कुछ कदम बढ़ाने से पूर्व यह अनुमान लगा लेना चाहिए कि अपने भीतर सामर्थ्य का अजस्र भंडार भरा पड़ा है। स्रष्टा ने मनुष्य को असाधारण सफलताएँ उपलब्ध कर सकने की संभावनाओं से भरा-पूरा बनाया है। आवश्यकता मात्र इतनी है कि अवरोध की झीनी दीवार को गिराने के लिए साहस जुटाया जाए। अंडों में जब चूजा समर्थ हो जाता है, तो वह भीतर से जोर लगाता है और छिलके को तोड़कर बाहर आता है। इसके बाद तो उसकी माता ही सहायता करने लगती है। प्रसव वेदना का कारण एक ही है कि गर्भस्थ बालक बाहर निकलने के लिए अपनी शक्ति प्रयोग करता है। यदि भ्रूण अति दुर्बल और मृत-मूर्च्छित हो, तो प्रसव की संभावना अतीव दुष्कर हो जाती है।

गरमी संघर्ष से उत्पन्न होती है। हलचल और प्रगति भी उसी के सहारे बन पड़ती है। प्रतिभा परिष्कार के लिए भी वही करना पड़ता है। अखाड़े में कड़ी मेहनत किए बिना कोई पहलवान कैसे बने? सैनिकों को अनेक प्रकार के कठिन अभ्यास आए दिन करने पड़ते हैं। नदियों का प्रवाह अनेक चट्टानों को उलटता हुआ आगे बढ़ता है। मोरचा जीतने के लिए रणक्षेत्र में अपने कौशल का परिचय देना होता है। भँवरों वाली तेजधार को चीरते हुए नाव को पार ले जाने वाले साहस का परिचय ही किसी नाविक को विशिष्टता का गौरव प्रदान करता है।

प्रतिभा परिष्कार की आरंभिक शर्त है-अपने आपसे जूझना, इस हेतु आलस्य और प्रमाद से सर्वप्रथम लड़ना पड़ता है। उसके स्थान पर चुस्त-दुरुस्त रहने की जागरूकता को धारण करना पड़ता है। निराशा, अनुत्साह, चिंता, खिन्नता जैसे मानसिक दुर्गुणों के साथ तब तक संघर्ष करना पड़ता है, जब तक कि उनके स्थान पर आशा, प्रसन्नता, उमंग, निश्चिंतता, निर्भयता और शिष्टता जैसी सत्प्रवृत्तियाँ अपने आपको प्रतिष्ठित न कर लें। यह नित्य ध्यान रखने और निरंतर अभ्यास करने का विषय है, जिसे बिना रुके, बिना हारे, अनवरत रूप से क्रियान्वित ही किए रखना चाहिए।

प्रतिभा त्रिवेणी की तरह है, जिसमें शारीरिक ओजस्, मानसिक तेजस् और अंतराल में सन्निहित वर्चस् को जगाना, उभारना और प्रखरता संपन्न बनाने के स्तर तक उठाना पड़ता है। संयम सध सके तो स्वस्थ रहने की गारंटी मिल जाती है। उपयुक्त काम का चुनाव करके, उसमें अभिरुचि, एकाग्रता और तत्परता का नियोजन किए रखा जाए, तो साधारण काम-काज भी इस अभ्यास के सहारे अधिकाधिक बुद्धिमत्ता और कुशलता प्रदान करते चलते हैं। इसी आधार पर शारीरिक ओजस् और मानसिक तेजस् की उतनी मात्रा उपलब्ध हो सकती है, जिस पर संतोष और गर्व अनुभव किया जा सके। सदाशयता पर सघन श्रद्धा के होने का नाम ही वर्चस् है। आदर्शवादिता इसी अवलंबन को अपनाती है और उत्कृष्टता को इससे कम में चैन नहीं पड़ता। वर्चस् जिसके भी अंतराल में उभरता है उसमें शालीनता की, सदाशयता की, सज्जनता की कमी नहीं रहती। इस दिव्यता का जितना अंश जिसके हाथ लग जाता है, वह उतने ही अंशों में धन्य हो जाता है।

उच्चस्तरीय प्रतिभा ही ब्रह्मतेजस् है। उसी को ब्रह्मवर्चस् भी कहते हैं। उसे जिसने भी पर्याप्त मात्रा में अर्जित कर लिया है, वह शरीर से सामान्य होते हुए भी अपनी चेतनात्मक प्रखरता के सहारे ऐसे पुण्य प्रयोजन संपन्न कराने में समर्थ रहा है कि उसे अनुकरणीय भी माना जाए और अभिनंदनीय भी। भगवान् बुद्ध का उदाहरण प्रत्यक्ष है। उन्होंने अपने जीवनकाल में एक लाख भिक्षु-भिक्षुणी परिव्राजक बनाकर विश्व के कोने-कोने में धर्म-चक्र-प्रवर्तन के लिए भेजे थे और वे सभी एक-से-एक बढ़ी-चढ़ी उपलब्धियाँ पाने में सफल हुए थे। अशोक और हर्षवर्धन ने उनके प्रतिपादन से प्रभावित होकर अपना विपुल-वैभव उनके आदेशों पर निछावर कर दिया था। आम्बपाली और अंगुलिमाल जैसों ने निकृष्टता का परित्याग कर, उत्कृष्ट स्तर का अपना कायाकल्प कर लिया था।

चाणक्य की एकाकी योजना ने भारत पर आक्रमण करते रहने वाले आक्रांताओं, आतंकवादियों को उनके बिलों में वापस लौटने के लिए बाधित कर दिया था। अनेक अनुभवी उनके सहायक बने थे। नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना करने से लेकर उसके संचालन तक की जिम्मेदारी का निर्वाह उनकी प्रतिभा ही करती रही थी। चुंबक अपने समकक्षों को खींचता, जुटाता तो अनायास ही रहता है।

महामना मालवीय जी आरंभ में सामान्य वकील और संपादक थे; पर जब उन्होंने हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण का संकल्प लिया तो प्रायः पचास करोड़ की संपत्ति उन लोगों से जुटाई, जिनके साथ उनकी कोई पूर्व की जान-पहचान तक न थी।

अर्जुन ने पाताल से गंगा उभारकर भीष्म को ताजा जल पिलाया था। भीष्म भी कुछ कम न थे। शर शैया पर पड़े हुए असह्य वेदना सहते हुए भी उन्होंने मौत से कह दिया था कि अभी मरने की फुरसत नहीं है। वह लौट गई और तब आई जब उत्तरायण सूर्य में उन्होंने चलने का मुहूर्त्त निश्चित किया था। मनस्वी के आगे नियति भी पानी भरती है। सावित्री ने यमराज के हाथों से अपने मृत पति को जीवित करा, वापस लौटा लिया था। दमयंती के नेत्र तेज से व्याध का जल जाना प्रसिद्ध है। गौतम ऋषि के शाप से सगर पुत्रों की क्या दुर्गति हुई थी, यह भी इतिहास प्रसिद्ध है।

राणा सांगा अस्सी गहरे घावों से आहत होते हुए भी मृत्युपर्यंत शत्रु से लड़ते रहे थे। वाल्टेयर ने अस्पताल की चारपाई पर पड़े-पड़े ही इतने महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखे थे कि उनके पुरुषार्थ को देखते हुए आश्चर्यचकित हुए बिना रहा नहीं जाता। संसार के इतिहास में ऐसे अनेकों करोड़पतियों का उल्लेख है, जिनकी निजी योग्यता और पूँजी नहीं के बराबर थी, फिर नियति ने उन्हें अदम्य उत्साह, सूझबूझ के सहारे धन कुबेर बनने का अवसर प्रदान किया। बाटा से लेकर टाटा एवं हेनरी फोर्ड, रॉकफेलर तक की बड़ी नामावली इसी पंक्ति में खड़ी दीख पड़ती हैं।

सरदार पटेल द्वारा बागी रियासतों को भी भारत में विलय के लिए सहमत कर लिया जाना ऐसा कार्य है, जिसमें उनके महान् व्यक्तित्व की झलक झाँकी मिलती है। बारडोली सत्याग्रह में भी वे अपना कमाल दिखा चुके थे। जापान के गाँधी कागाबा ने एक गंदे मुहल्ले में सेवाकार्य आरंभ करते हुए अंततः जापान के पतितोद्धारक के रूप में अद्भुत प्रतिष्ठा अर्जित की थी। बिहार का हजारी किसान अपनी लगन के बल पर उस क्षेत्र में हजार आम्र उद्यान लगाने में सफल हुआ था।

ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। वे भूतकाल में भी असंख्य थे और अब भी जहाँ-तहाँ एक-से-एक बढ़ी-चढ़ी सफलताएँ अर्जित कर रहे हैं। इसमें व्यक्ति विशेष का नहीं, वरन् उसकी परिष्कृत प्रतिभा का ही चमत्कार दृष्टिगोचर होता है। यह हर किसी के लिए संभव है। आवश्यकता इतनी भर है कि लगन सच्ची हो और उसके लिए योजनाबद्ध रूप से पुरुषार्थ करने में कुछ उठा न रखा जाए।

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    अनुक्रम

  1. प्राणवान् प्रतिभाओं की खोज
  2. विशिष्टता का नए सिरे से उभार
  3. प्रतिभा परिवर्धन के तथ्य और सिद्धांत
  4. युगसृजन के निमित्त प्रतिभाओं को चुनौती
  5. प्रतिभा संवर्धन का मूल्य भी चुकाया जाए
  6. प्रतिभा के बीजांकुर हर किसी में विद्यमान हैं
  7. बड़े कामों के लिए वरिष्ठ प्रतिभाएँ
  8. उत्कृष्टता के साथ जुड़ें, प्रतिभा के अनुदान पाएँ

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