स्वास्थ्य-चिकित्सा >> अष्टांगहृदय अष्टांगहृदयवाग्भट
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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग
शमनं कोपनं स्वस्थहितं द्रव्यमिति त्रिधा ॥१६॥
द्रव्य का वर्णन—विधिभेद से द्रव्य तीन प्रकार का होता है—१. शमन (वात आदि दोषों का शमन करने वाला), २. कोपन (वात आदि दोष को कुपित करने वाला) तथा ३. स्वस्थहित (स्वस्थ पुरुष के स्वास्थ्य को बनाये रखने वाला) ॥ १६ ॥
वक्तव्य—ये द्रव्य परस्पर विपरीत गुणवाले होते हैं। जैसे—जो द्रव्य शमन (शान्तिकारक) होता है, वह उस दोष को प्रकुपित करने वाला नहीं होता है। इसी प्रकार जो द्रव्य 'कोपन' होगा, वह शमन नहीं हो सकता है। इन गुणों की विपरीतता को आप इस प्रकार समझें—जैसे गुरु गुण से लघु गुण एवं शीत से उष्ण सदा विपरीत रहता है। यहाँ 'इति' शब्द भेदवाचक है। यही द्रव्य अन्य प्रकारों से दो प्रकार का या अनेक प्रकार का होता है।
शमन द्रव्य-जैसे-तैल, घृत, मधु। तैल-स्निग्ध, उष्ण, गुरु गुण वाला होने के कारण वातदोष का शमन कर देता है, क्योंकि तैल वातदोष के विपरीत गुण वाला होता है। घृत—मधुर, शीत, मन्द गुण वाला होने के कारण अपने से विपरीत गुण वाले पित्तदोष का शमन कर देता है। मधु-रूक्ष, तीक्ष्ण, कषाय गुण वाला होने के कारण अपने से विपरीत गुण वाले कफदोष का शमन कर देता है।
कोपन—जो द्रव्य वात आदि दोषों, रस आदि धातुओं तथा मूत्र आदि मलों को कुपित करता है, उसे कोपन कहते हैं। जैसे—यवक। (शूकधान्य-विशेष में पठित द्रव्य; देखें—च.सू. ५।११), पाटल (पाटल व्रीहि—त्रिकाण्डशेष), माष (उड़द), मछली, आममूलक, सरसों का तेल, मन्दक, दधि, किलाट आदि। विरुद्ध पदार्थ- जैसे—दूध तथा मछली का एक साथ सेवन करना आदि।
स्वस्थहितम्–'ऋतुचर्या' नामक अध्याय में जिन-जिनका सेवन करने को और जिनका सेवन न करने को कहा गया है, उन सबको यथाविधि, विधि-निषेध के अनुसार स्वीकार करना ही स्वस्थ (हितकर) चर्या है। इसका विशेष विवरण अ.हृ.सू. के मात्राशितीय नामक वें अध्याय में विस्तार से देखें।
भगवान् पुनर्वसु ने त्रिविध द्रव्य का वर्णन करते हुए कहा है—
किञ्चिद् दोषप्रशमनं किञ्चिद् धातु-प्रदूषणम्।
स्वस्थवृत्तौ मतं किञ्चित् त्रिविधं द्रव्यमुच्यते। (च.सू. ११६७)
अर्थात् कोई द्रव्य प्रकुपित वात आदि दोष का प्रशमन करता है, कोई द्रव्य प्रकृतिस्थ धातु को बढ़ा या घटा देता है और कोई द्रव्य स्वस्थवृत्त के लिए उपयोगी माना जाता है।
शार्ङ्गधराचार्य ने शमनद्रव्य का वर्णन इस प्रकार किया है—
न शोधयति न द्वेष्टि समान् दोषांस्त-थोद्धतान्।
समीकरोति विषमान् शभनं तद्यथाऽमृता'। (शा.प्र.अ. ४।२)
अर्थात् जो द्रव्य वमन या विरेचन द्वारा वात आदि दोषों का शोधन भी नहीं करता, सम दोषों को विकृत भी नहीं करता, किन्तु कुपित या विषम (बढ़े अथवा क्षीण) दोषों को जो सम करता है, वह 'शमन' द्रव्य कहा जाता है। यथा-अमृता (गिलोय)।
उष्णशीतगुणोत्कर्षात्तत्र वीर्यं द्विधा स्मृतम्।
वीर्य का वर्णन—द्रव्यों में शीतगुण तथा उष्णगुण की अधिकता से दो प्रकार का 'वीर्य' माना जाता है।
वक्तव्य—महर्षि चरक अपनी संहिता में किन्हीं दो आचार्यों के मतों का उल्लेख करने के बाद वे अपनी बात को प्रसंगवश अन्त में कह रहे हैं। एक आचार्य का मत–वीर्य आठ प्रकार का होता है—१. मृदु, २. तीक्ष्ण, ३. गुरु, ४. लघु, ५. स्निग्ध, ६. रूक्ष, ७. उष्ण और ८. शीत। दूसरे आचार्य का मत—१. शीत तथा २. उष्ण दो प्रकार का वीर्य होता है। चरक का मत—
वीर्यं तु क्रियते येन या क्रिया।
नावीर्यं कुरुते किञ्चित् सर्वा वीर्यकृता क्रिया'। (च.सू. २६।६४-६५)
इन्होंने द्रव्य की कर्मशक्ति को ही 'वीर्य' संज्ञा दी है। सुश्रुत का विचार भी इन्हीं के अनुरूप है। देखें—'येन कुर्वन्ति तवीर्यम्'। (सु.सू. ४१।५) इन उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि उक्त दोनों संहिताकारों में इस विषय में किसी प्रकार का मतभेद नहीं है। द्विविध तथा अष्टविध वीर्य को सुश्रुत ने भी स्वीकार कर अपनी संहिता में स्थान दिया है। देखें- सु.सू. ४०।५। चरक की मान्यता का ऊपर उल्लेख कर ही दिया गया है।
आप ध्यान दें-संसार में सभी पदार्थ या तो उष्ण हैं अथवा शीत हैं, अतः दो प्रकार का वीर्य होना स्वाभाविक ही है; किन्तु वायु द्रव्य ऐसा है जो ‘अनुष्णाशीतस्पर्श' वाला है, अतः यहाँ उक्त समाधान वायु को 'योगवाही' मान लेने से हो जायेगा।
त्रिधा विपाको द्रव्यस्य स्वादुम्लकटुकात्मकः॥१७॥
विपाक का वर्णन-भले ही कोई द्रव्य किसी रस से युक्त क्यों न हो, उसका विपाक तीन प्रकार का होता है—१. मधुर, २. अम्ल तथा ३. कटु।।१७।।
वक्तव्य—प्रायः सभी प्रकार के रस वाले द्रव्यों का भोजन के पाचनकाल के बाद कार्यरूप में जिसका अनुमान द्वारा निर्णय किया जा सकता है, वह रस जठराग्नि द्वारा पाक हो जाने पर उपर्युक्त तीन प्रकार का पाया जाता है। यथा—मधुर तथा लवण रस वाले द्रव्यों का मधुर, अम्ल रस वाले द्रव्यों का अम्ल और तिक्त, कटु, कषाय रस वाले द्रव्यों का कटु विपाक होता है। इसी विषय को महर्षि वाग्भट आगे अ.हृ.सू. ९।२० में कहेंगे। चरक ने उक्त विषय को अपनी संहिता में इस प्रकार से दिया है—'रसो...'च्चोपलभ्यते'।
(च.सू. २६।६६) अर्थात् रसों का भिन्न-भिन्न ज्ञान जीभ के साथ स्पर्श होने पर होता है और विपाक का ज्ञान कर्म की समाप्ति होने पर होता है। आशय यह है कि विपाक का ज्ञान आहार के पचने पर दोषों एवं धातुओं की वृद्धि अथवा क्षीणता रूपी लक्षणों से जाना जाता है और वीर्य का ज्ञान जीभ के स्पर्श से लेकर शरीर में रहने तक होता रहता है।
निष्कर्ष-रस का ज्ञान जीभ के स्पर्श से, विपाक का ज्ञान उसके कार्य को देखकर और वीर्य का ज्ञान प्रत्यक्ष तथा अनुमान दोनों से होता है। इसके आगे च.सू. २६।६७-६८ इन दो श्लोकों का भी परिशीलन इस प्रसंग में कर लेना चाहिए, जो विषय को स्पष्ट करने में उपकारक हैं। इस विषय के विशेष विवेचन के लिए सु.सू. ४० का अध्ययन करें।
शार्ङ्गधराचार्य ने विपाक का परिचय इस प्रकार दिया है—
जाठरेणाग्निना योगाद् यदुदेति रसान्तरम्।
रसानां परिणामान्ते स विपाक इति स्मृतः ॥ (शा.पू.खं.द्वि. ३३)
अर्थात् मधुर आदि रसों का शरीर पर तात्कालिक प्रभाव पड़ जाने के बाद जठराग्नि के साथ संयोग होने के अनन्तर जो दूसरे रस की उत्पत्ति होती है, वह 'विपाक' कहा जाता है। आयुर्वेदशास्त्र में रस-गुण-वीर्य-विपाक का विपुल साहित्य है, फिर भी आप देखें—यह ‘सम्यक् विपाक' हुआ है या 'मिथ्या विपाक', तभी आप ठीक निष्कर्ष पर पहुँच पायेंगे।
फिर भी आप निम्न सन्दर्भो का अवलोकन अवश्य करें-च.सू. २६॥५७-५८। च.सू. २६॥६१-६२। सु.सू. ४०।१०-१२। च.चि. १५।९-११। शा.प्र.ख. ६।१-२।
गुरुमन्दहिमस्निग्धश्लक्ष्णसान्द्रमृदुस्थिराः।
गुणाः ससूक्ष्मविशदा विंशतिः सविपर्ययाः॥१८॥
द्रव्य के गुणों का वर्णन—द्रव्यों में परस्पर विपरीत ये २० गुण पाये जाते हैं—१. गुरु, २. लघु, ३. मन्द, ४. तीक्ष्ण, ५. शीत, ६. उष्ण, ७. स्निग्ध, ८. रूक्ष, ९. श्लक्ष्ण, १०. खर, ११. सान्द्र, १२. द्रव, १३. मृदु, १४. कठिन, १५. स्थिर, १६. सर, १७. सूक्ष्म, १८.रू , १९. विशद और २०. पिच्छिल।।१८।।
वक्तव्य—अ.हृ.नि. ६।१ में मद्य के १० गुण और इनके विपरीत १० ओजस् के जो गुण गिनाये हैं, वे भी ये ही २० गुण हैं। चरक ने दूध के दस गुण गिनाकर यह बतलाया है कि जो गुण दूध के कहे गये हैं वे गुण ओजस् के भी हैं, अतएव दूध को पीने से ओजोगुण की वृद्धि होती है। चरक ने जो दिव्य जल के ६ गुणों का वर्णन च.सू. २७।१९८ में किया है, यदि हम इन्हें मानते हैं तो फिर गुणों की संख्या २० ही कैसे मानी जा सकती है ? इसका समाधान इस प्रकार है—ये जो ६ अतिरिक्त गुणों का वर्णन यहाँ किया गया है, इनका अन्तर्भाव उक्त २० गुणों में ही कर लिया जाता है।
ध्यान दें—व्यवायि, विकाशी, आशुकारी ये गुण मद्य में कहे गये हैं और प्रसन्न' नामक गुण दूध में। फिर यह भी कहा गया है कि मद्य के गुणों से विपरीत गुण ओजस् में होते हैं। साथ ही फिर यह भी कहा गया है कि जो गुण ओजस् में होते हैं वे ही गुण दूध में होते हैं। इन विषयों का समन्वय इस प्रकार किया गया है—व्यवायी गुण का अन्तर्भाव द्रव गुण में, विकाशी का खर में, आशुकारी का चल में और प्रसन्न का स्थूल में। इनका समर्थन चरक तथा सुश्रुत के वचनों द्वारा प्राप्त है।
उक्त २० गुणों के अर्थ
1 | गुरु | भारी |
2 | लघु | हलका |
3 | मन्द | चिरकारी |
4 | तीक्ष्ण | तीखा |
5 | शीत | शीतल |
6 | उष्ण | गरम |
7 | स्निग्ध | चिकना |
8 | रूक्ष | रूखा |
9 | श्लक्ष्ण | साफ |
10 | खर | खुरदरा |
11 | सान्द्र | गाढ़ा |
12 | द्रव | पतला |
13 | मृदु | कोमल |
14 | कठिन | कठोर |
15 | स्थिर | अचल |
16 | सर | चल |
17 | सूक्ष्म | बारीक |
18 | स्थूल | मोटा |
19 | विशद | टूटने वाला |
20 | पिच्छिल | लसीला |
विशेष- ३. मन्द-जो न शीघ्र हानि करता हो और न लाभ करता हो। ४. तीक्ष्ण-शीघ्र लाभ या हानि करने वाला। १६. सर-फैलने वाला या गतिशील। १७. सूक्ष्म-छोटे-से-छोटे स्रोतों में प्रवेश करने वाला। २०. पिच्छिल-लुआबदार।
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