लोगों की राय

स्वास्थ्य-चिकित्सा >> आरोग्य कुंजी

आरोग्य कुंजी

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :45
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1967
आईएसबीएन :1234567890

Like this Hindi book 0

गाँधी जी द्वारा स्वास्थ्य पर लिखे गये लेख


इस प्रकरणमें जिस ब्रह्मचर्य पर मैं जोर देना चाहता हूँ वह वीर्य-रक्षण तक ही सीमित है। पूर्ण ब्रह्मचर्यका अमोघ लाभ उससे नहीं मिलेगा, तो भी उसकी कीमत कुछ कम नहीं है। उसके बिना पूर्ण ब्रह्मचर्य असंभव है। और उसके बिना, अर्थात् वीर्य-संग्रहके बिना, पूर्ण आरोग्यकी रक्षा भी अशक्य-सी समझना चाहिये। जिस वीर्यमें दूसरे मनुष्यको पैदा करनेकी शक्ति है, उस वीर्यका व्यर्थ स्खलन होने देना महान अज्ञानकी निशानी हे। वीर्यका उपयोग भोगके लिए नहीं, परन्तु केवल प्रजोत्पत्तिके लिए है, यह हम पूरी तरह समझ लें तो विषयासक्ति के लिए जीवनमें कोई स्थान ही न रह जाएगा। स्त्री-पुरुष-संगके खातिर नर-नारी दोनों जिस तरह आज अपना सत्यानाश करते हें, वह बंद हो जायगा, विवाहका अर्थ ही बदल जायगा और उसका जो स्वरूप आज देखनेमें आता है उसकी तरफ हमारे मनमें तिरस्कार पैदा होगा। विवाह स्त्री-पुरुषके बीच हार्दिक और आत्मिक ऐक्यकी निशानी होना चाहिये। विवाहित स्त्री-पुरुष यदि प्रजोत्पत्तिके शुभ हेतुके बिना कभी विषय-भोगका विचार तक न करें, तो वे पूर्ण ब्रह्मचारी माने जानेके लायक हैं। ऐसा भोग दोनोंकी इच्छा होने पर ही हो सकता हे। वह आवेशमें आकर नहीं होगा, कामाग्निकी तृप्तिके लिए तो कभी नहीं। मगर उसे कर्तव्य मानकर किया जाय, तो उसके बाद फिर भोगकी इच्छा भी पैदा नहीं होनी चाहिये। मेरी इस बातको कोई हास्यास्पद न समझे। पाठकोंको याद रखना चाहिये कि छत्तीस वर्ष के अनुभवके बाद मैं यह सब लिख रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि जो कुछ मैं लिख रहा हूँ वह सामान्य अनुभवसे उलटा है। ज्यों-ज्यों हम सामान्य अनुभवसे आगे बढ़ते हैं, त्यों-त्यों हमारी प्रगति होती है। अनेक अच्छी-बुरी शोधें सामान्य अनुभवके विरुद्ध जाकर ही हो सकी है। चकमकसे दियासलाई और दियासलाईसे बिजलीकी शोध इसी एक चीजकी आभारी है। जो बात भौतिक वस्तु पर लागू होती है, वही आध्यात्मिक पर भी लागू होती है। पूर्वकालमें विवाह-जैसी कोई वस्तु थी ही नहीं। स्त्री-पुरुषके भोग और पशुओंके भोगमें कोई फरक न था। संयम-जैसी कोई वस्तु ही नहीं थी। कई साहसी लोगोंने सामान्य अनुभवसे बाहर जाकर संयम-धर्मकी शोध की। संयम-धर्म कहां तक जा सकता है; इसका प्रयोग करनेका हम सबका अधिकार है। और ऐसा करना हमारा कर्तव्य भी है। इसलिए मेरा कहना यह हैँ कि मनुष्यका कर्तव्य स्री-पुरुष-संगको मेरी सुझाई हुई उच्च कक्षा तक पहुँचानेका है। यह हंसीमें उडा देने जैसी बात नहीं है। इसके साथ ही मेरी यह भी थना है कि यदि मनुष्य-जीवन जैसा गढ़ा जाना चाहिये वैसा गढ़ा जाय तो वीर्य-संग्रह स्वाभाविक वस्तु हो जानी चाहिये।

नित्य उत्पन्न होनेवाले अपने वीर्यका हमें अपनी मानसिक शारीरिक और आध्यात्मिक शक्तिको बढ़ानेमें उपयोग करना चाहिये। जो ऐसा करना सीख लेता है, वह प्रमाणमें बहुत कम खुराकसे अपना शरीर बना सकेगा। अल्पाहारी होते हुए भी वह शारीरिक श्रममें किसीसे कम नहीं रहेगा। मानसिक श्रममें उसे कमसे कम थकान लगेगी। बुढ़ापेके सामान्य चिह्न ऐसे ब्रह्मचारीमें देखनेको नहीं मिलेंगे। जैसे पका हुआ पत्ता या फल वृक्षकी टहनी परसे सहज ही गिर पड़ता है, वैसे ही समय आने पर मनुष्यका शरीर सारी शक्तियां रखते हुए भी गिर जायेगा। ऐसे मनुष्यका शरीर समय बीतने पर देखने में भले क्षीण लगे, मगर उसकी बुद्धिका तो क्षय होनेके बदल नित्य विकास ही होना चाहिये, और उसका तेज भी बढ़ना चाहिये। ये चिह्न जिसमें देखनेमें नहीं आते, उसके ब्रह्मचर्यमें उतनी कमी समझनी चाहिये। उसने वीर्य-संग्रहकी कला हस्तगत नही की है। यह सब सच हो-और मेरा दावा है कि सच है-तो आरोग्यकी सच्ची कुंजी वीर्य-संगहमें है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book