स्वास्थ्य-चिकित्सा >> आरोग्य कुंजी आरोग्य कुंजीमहात्मा गाँधी
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गाँधी जी द्वारा स्वास्थ्य पर लिखे गये लेख
वीर्य-संग्रहके जो थोड़े-बहुत नियम मैं जानता हूँ उन्हें यहां देता हूँ :
१. विकारमात्रकी जड़ विचारमें हैं। इसलिए विचारों पर हमें काबू पाना चाहिये। इसका उपाय यह हैं कि मनको कभी खाली रहने ही न दिया जाय; उसे अच्छे और उपयोगी विचारोंसे पूर्ण रखा जाय। अर्थात् हम जिस काममें लगे हो उसकी चिन्ता न करके यह विचार करें कि कैसे उसमें निपुणता पायी जा सकती है, और उस पर अमल करें। विचार और उसका अमल विकारों को रोकेगा। परन्तु हर समय काम नहीं होता। मनुष्य थकता है, उसका शरीर आराम चाहता है। रातमें जब नींद नही आती तब विकारोंका हमला हो सकता है। ऐसे प्रसंगोंके लिए सर्वोपरि साधन जप है। भगवानका जिस रूपमें अनुभव किया हो, या अनुभव करनेकी धारणा रखी हो, उस रूपकों हृदयमें रखकर उस नामका जप किया जाय। जप चल रहा हो तब दूसरा कोई विचार मनमें नहीं होना चाहिये। यह एक आदर्श स्थिति है। वहां तक हम न पहुँच सकें और अनेक विचार बिना बुलाये चढ़ाई किया करें, तो उनसे हारना नहीं चाहिये, परन्तु श्रद्धापूर्वक जप जपते रहना चाहिये; और आखिर इसमें विजय मिलेगी, यह विश्वास रखना चाहिये। ऐसा करेंगे तो जरूर हमें विजय मिलेगी।
२. विचारोंकी तरह वाणी और वाचन भी विकारोंको शान्त करनेवाले होने चाहिये। इसलिए एक-एक शब्द तौलकर बोलना चाहिये। जिसको बीभत्स विचार नहीं आते, उसके मुंहसे बीभत्स वचन निकल ही नहीं सकते। विषयोंका पोषण करनेवाला काफ़ी साहित्य पड़ा हुआ है। उसकी तरफ़ मनको कभी जाने नही देना चाहिये। सद्ग्रंथ या अपने कामसे सम्बन्ध रखनेवाले ग्रंथ पढ़ने चाहिये और उनका मनन करना चाहिये। गणितादिका यहां बड़ा स्थान है। यह तो स्पष्ट है कि जो मनुष्य विकारोंका सेवन नहीं करना चाहता, वह विकारोंका पोषण करनेवाले धंधेका त्याग करेगा।
३. जैसे मनको काममे लगाये रखनेकी आवश्यकता है, वैसे ही शरीरको भी काममें लगाये रखना जरूरी है। यहां तक कि रात पड़ने तक मनुष्यको इस कदर मीठी थकान चढ़ जाय कि बिस्तर पर पड़ते ही वह तुरन्त निद्रावश हो जाय। ऐसे स्त्री-पुरुषोंकी नींद शान्त और निःस्वप्न होती है। जितना समय खुलेमें मेहनत करनेको मिले, उतना ही अच्छा है। जिन्हें ऐसी मेहनत करनेको न मिले, उन्हें अचूक रूपसे कसरत करनी चाहिये। उत्तमसे उत्तम कसरत है खुली हवामें तेजीसे घूमना। घूमते समय मुंह बन्द होना चाहिये ओर नाकसे ही श्वास लेना चाहिये। चलते, बैठते समय शरीर बिलकुल सीधा और तना हुआ रहना चाहिये। जैसे-तैसे बैठना या चलना आलस्यकी निशानी है। आलस्यमात्र विकारका पोषक होता है। आसन भी इसमें उपयोगी सिद्ध होते हैं। जिसके हाथ, पैर, आंख, कान, नाक, जीभ इत्यादि इन्द्रियां अपने योग्य कार्य योग्य रीतिसे करती है, उसकी जननेन्द्रिय कभी उपद्रव करती ही नहीं। मैं आशा रखता हूँ कि मेरे इस अनुभव-वाक्यको सब कोई मानेंगे।
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