ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 3 देवकांता संतति भाग 3वेद प्रकाश शर्मा
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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...
'हमारा ख्याल तो घूम-फिरकर हरनामसिंह पर ही जाता है?'' शेरसिंह ने कहा- ''कहीं ऐसा तो नहीं कि यह सारी साजिश हरनामसिंह की ही हो?''
''ये आप क्या कहते हैं, शेरसिंह जी?'' गोपालदास चौंककर बोला- ''क्या आप अब भी हरनामसिंह को ही दोषी ठहराते हैं? यह तो दरबार में ही स्पष्ट हो चुका है कि वह लिखाई उनकी नहीं है। किसी ने उन्हें फंसाने के लिए जबरदस्ती उनका नाम डाल दिया है। लेकिन लिखाई के मामले में...।''
''हमारी बात की गहराई तक तुम पहुंच नहीं पा रहे हो गोपाल।'' शेरसिंह बोला- ''क्या ऐसा नहीं हो सकता कि यह पत्र हकीकत में हरनामसिंह की ही करामात हो और ऐसे मौके से बचने के लिए ही उसने यह पत्र खुद न लिखकर अपने किसी साथी से लिखवाए हों और आज अपनी लिखाई दिखाकर सत्यवादी बन गए हों?''
''हमारे ख्याल से तुम थक गए हो, शेरसिंह।'' अचानक मुन्नालाल बोला-- ''इसीलिए तुम्हारा दिमाग ठीक काम नहीं कर रहा है। जरा यह तो सोचो कि अगर हरनामसिंह उस खत किसी और से लिखवा सकते हैं तो क्या अंत में अपना ही नाम डलवाने का उन्हें शौक है? या उन्हें किसी पागल कुत्ते ने काटा है जो किसी और से खत लिखवाकर अन्त में अपना नाम डालेंगे और अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मारेंगे? वे किसी का भी नाम डाल सकते थे?''
''तो फिर चन्द्रदत्त भरतपुर की राजगद्दी उसे ही क्यों सौंपते - वे तो उसी के सौंपते, जिसका नाम पत्र में होता।'' शेरसिंह ने कहा।
'क्या मतलब?'' चन्दराम ने प्रश्न किया- ''हम समझे नहीं कि तुम क्या कहना चाहते हो?''
'तभी तो कहते हैं कि ज्यादा सुलफा मत.. पिया करो - दिमाग सोचना-समझना बन्द कर देता है।'' शेरसिंह ने बड़ी गहरी मुस्कान के साथ कहा- ''मैं जो हरनामसिंह के ही गद्दार होने पर जोर दे रहा हूं उससे यह मत समझो कि मैं उन्हें गद्दार ही कह रहा हूं - इस समय तो मैं केवल अपना सन्देह बयान कर रहा हूं। ध्यान से सुनो, एक सायत के लिए ये मान लो कि मैं खुद हरनामसिंह हूं और गद्दार भी हूं। मैं (हरनामसिंह) भरतपुर की राजगद्दी का मालिक बनना चाहता हूं इसीलिए मैंने राजा चन्द्रदत्त से एक सौदा किया। इस सौदे में मैंने यह सावधानी बरती कि अगर किसी भी तरह पत्रों का भेद सुरेन्द्रसिंह के सामने खुले तो अपनी स्थिति साफ कर सकूं - इसीलिए मैंने वे खत अपने किसी विश्वसनीय साथी से लिखवाए। अंत में अपना नाम इसलिए डाला कि चन्द्रदत्त को पता रहे कि मैं उसका साथी हूं और अन्त में वह गद्दी मुझे ही दे। क्योंकि अगर अन्त में अपना नाम नहीं लिखता तो चन्द्रदत्त कैसे जानता कि गद्दी किसे सौंपनी है? और अपनी लिखाई में इसलिए नहीं लिखा कि अगर पत्रों का भेद सुरेन्द्रसिंह के सामने आए तो मैं लिखाई के बूते पर निर्दोष साबित हो जाऊं - जैसा कि हुआ है। एक बात जरा ध्यान से सोचने की है और वह ये कि अगर कोई दूसरा यह पत्र लिखता तो उसे आखिर में हरनामसिंह का ही नाम लिखने की क्यों सूझी?''
''ताकि वह सबकी निगाहों में हरनामसिंह को बदनाम कर दे।'' मुन्नालाल ने कहा।
''क्या उस लिखने वाले ने यह सोचकर पत्र लिखे थे कि ये पत्र पकड़े जाएंगे?'' शेरसिंह ने कहा- ''क्या उसे मालूम था कि ये पत्र मैं इस तरह पकड़ लूंगा? नहीं - ये पत्र हरनामसिंह को केवल बदनाम करने के लिए नहीं लिखे गए, बल्कि इनका सबब यही था कि चन्द्रदत्त लिखने वाले की मुराद पूरी कर दे। दूसरे की लिखाई का इस्तेमाल केवल इस सबब किया गया कि अगर पत्र पकड़े जाएंगे तो हरनामसिंह सुरक्षित हैं। अगर ये मान लिया जाए कि पत्र किसी दूसरे ही आदमी ने लिखे हैं - माना कि वह दूसरे आदमी तुम हो और मैं हरनामसिंह - तुम्हारे पत्र लिखने का सबब केवल इतना ही नहीं होगा कि तुम बदनाम करो, बल्कि ये होगा कि तुम कामयाब हो जाओ - मानो अगर चन्द्रदत्त और तुम कामयाब हो जाते तो चन्द्रदत्त तो मुझे ही राजगद्दी सौंपता, क्योंकि खत के अंत में तुमने मेरा ही नाम लिखा था - तुम्हें क्या लाभ होता?''
''क्या मैं ऐसा नहीं कर सकता कि पहले ही चन्द्रदत्त से मिलकर यह तय कर लूं कि मैं पत्र में तुम्हारा नाम लिखूंगा। यह काम मैं इसलिए करूंगा कि अगर किसी तरह पत्र पकड़ा जाए. तो तुम बदनाम हो और मैं न पकड़ा जाऊं - मगर चन्द्रदत्त तो जानता ही है कि असल में पत्र लिखने वाला मैं हूं - वह मुझे ही गद्दी देगा।''
''ठीक है - ये भी हो सकता है।'' शेरसिंह ने कहा- ''किन्तु पत्रों में इस बात का हवाला नहीं मिलता कि पत्र लिखने वाला और चन्द्रदत्त कभी मिले हैं। खैर.. कुछ भी हो सकता है - लगता है बहस से हम किसी नतीजे पर नहीं पहुच सकेंगे। मगर हमने कसम खाई है कि हमें जल्द-से-जल्द इस बात का पता लगाना है। हमारे ख्याल से भेजने वाला एकाध पत्र और भी चन्द्रदत्त को भेजेगा - अत: हमें पुन: चन्द्रदत्त के शहर राजगढ़ जाना होगा।''
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