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देवकांता संतति भाग 4

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2055
आईएसबीएन :0000000

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

अलफांसे ने देखा कि गुरुवचनसिंह ने सच ही कहा था। सामने ही सुरंग का दरवाजा था। वहां दिन की रोशनी चमक रही थी। गुरुवचनसिंह ने मोमबत्ती बुझाकर वापस अपने बटुए में डाल ली। अब वे दोनों सुरंग से बाहर आ गए। यह सुरंग एक जंगल में जाकर खुलती थी। अब वे जंगल में एक तरफ को बढ़ गए। वे बराबर पैदल ही चले जा रहे थे। अलफांसे के हिसाब से उन्हें चलते-चलते तीन घण्टे हो गए और सूरज पश्चिम की ओर झुकने लगा। इस यात्रा के दौरान वे इधर-उधर की बातों में लगे रहे थे।

आखिर में जाकर वे एक नदी के किनारे-ठहर गए।

''कितनी दूर और चलना है?'' अलफांसे ने पूछा।

“बस थोड़ी दूर और।“ गुरुवचनसिंह ने कहा। तब तक वे एक नदी के किनारे पहुँच चुके थे। थोड़ी दूर नदी के किनारे-किनारे चल वे एक निश्चित जगह पहुँचे।

गुरुवचनसिंह ने कहा, “इस जगह नदी के पानी को ध्यान से देखो।“

अलफांसे ने नदी के पानी को देखा तो उसे कोई खासियत नजर नहीं आई... नदी का पानी आम तरीके से बह रहा था। जब समझ में नहीं आया तो पूछा- ''क्या देखूं मुझे तो किसी तरह की विशेषता नजर नहीं आ रही है।

''देखते रहो।'' गुरुवचनसिंह ने कहा- ''बहुत ध्यान से देखो... तुम कुछ ही देर में नदी के पानी में एक खास बदलाव देखोगे।'' उसके कहने से अलफांसे ने पुन: अपनी नजर पानी पर ही जमा दी। उसकी आंखें पानी पर इधर-उधर थिरक रही थीं...यह उम्मीद लिए हुए कि शायद गुरुवचनसिंह का कहा हुआ ठीक हो। किन्तु उसे नदी के पानी में कहीं किसी प्रकार का परिवर्तन नजर नहीं आ रहा था। ज्यों-ज्यों देर हो रही थी, अलफांसे की उत्कण्ठा बढ़ती जा रही थी। एकाएक... उसने वास्तव में नदी के पानी में बदलाव देखा...और वह चौंक पड़ा।

जहां वे दोनों खड़े थे... अलफांसे की आंखों के ठीक सामने नदी के बीचोबीच का पानी एक गोल दायरे में घूमने लगा। उस जगह के पानी में बड़ी अजीब-सी हलचल हो रही थी। वहां का पानी ठीक इस ढंग से घूम रहा था, मानो वहां पानी की कोई खतरनाक भंवर बन रही हो। अलफांसे की आंखें बड़ी दिलचस्पी के साथ उसी भंवर पर जम गईं। उस वक्त तो उसकी आंखों में हैरत के अनेकों भाव उभर आए जब उस भंवर के बीचोबीच से लोहे का एक बहुत बड़ा गोला बड़ी तेजी से घूमता हुआ पानी के ऊपर उभर आया। लोहे का यह गोला इतना बड़ा था कि अगर ये अन्दर से खोखला हो तो इसमें एक बार में पांच आदमी बड़े आराम से आ सकते थे। पानी के ऊपर वह अब भी तेज गति से घूम रहा था। अलफांसे उसको इस कदर आश्चर्य से देख रहा था कि उसे यह भी आभास नहीं रहा था कि उसके पास गुरुवचनसिंह भी खड़े हैं!

उसके देखते-ही-देखते घूमते हुए गोले की रफ्तार कम होने लगी और एक समय ऐसा आया, जब गोला स्थिर हो गया। अब वह ठीक इस तरह लग रहा था, जैसे किसी तालाब में कमल का फूल हो। गोला एक लोहे की मोटी रॉड पर टिका हुआ था। उस समय तो अलफांसे की आंखें हैरत से फैल गईं... जब वह गोला अचानक कमल की छ: पत्तियों की भांति खुल गया और उसके अन्दर एक आदमी नजर आया। गोले से बाहर छ: मोटी जंजीरें पानी में लटक गईं। वह आदमी एक जंजीर पकड़कर नदी में कूद पड़ा और फिर तैरता हुआ अलफांसे और गुरुवचनसिंह के पास आने लगा। थोड़ी ही देर में वह गीले कपड़ों में गुरुवचनसिंह के पैर छू रहा था।

''इसका नाम महाकाल है। गुरुवचनसिंह ने आने वाले का नाम बतया- ''यह हमारा ऐयार है।''

''ये कौन हैं, गुरुजी?'' महाकाल ने पूछा।

''ये वे हैं जिनकी वजह से सारे काम रूके पड़े हैं।'' गुरुवचनसिंह ने कहा- ''विजय को लेने गौरव और वंदना गए हैं। ये अलफांसे हैं।''

''अलफासे!'' महाकाल ने दोहराया- ''ओह, महाराजा शेरसिंह जी!'' कहने के बाद महाकाल ने अलफांसे को खास नजरों से देखा और बड़े सम्मान के साथ प्रणाम किया।

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