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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं- देवि! इस प्रकार श्रीहरि को अपना अखण्ड ऐश्वर्य सौंपकर उमावल्लभ भगवान् हर स्वयं कैलास पर्वत पर रहते हुए अपने पार्षदों के साथ स्वच्छन्द क्रीडा करते हैं। तभी से भगवान् लक्ष्मीपति वहाँ गोपवेष धारण करके आये और गोप-गोपी तथा गौओं के अधिपति होकर बड़ी प्रसन्नता के साथ रहने लगे। वे श्रीविष्णु प्रसन्नचित्त हो समस्त जगत् की रक्षा करने लगे। वे शिव की आज्ञा से नाना प्रकार के अवतार ग्रहण करके जगत् का पालन करते हैं। इस समय वे ही श्रीहरि भगवान् शंकर की आज्ञा से चार भाइयों के रूप में अवतीर्ण हुए हैं। उन चार भाइयों में सबसे बड़ा मैं राम हूँ, दूसरे भरत हैं तीसरे लक्ष्मण हैं और चौथे भाई शत्रुघ्न हैं। देवि! मैं पिता की आज्ञा से सीता और लक्ष्मण के साथ वन में आया था। यहाँ किसी निशाचर ने मेरी पत्नी सीता को हर लिया है और मैं विरही होकर भाई के साथ इस वन में अपनी प्रिया का अन्वेषण करता हूँ। जब आपका दर्शन प्राप्त हो गया, तब सर्वथा मेरा कुशल-मंगल ही होगा। माँ सती! आपकी कृपा से ऐसा होने में कोई संदेह नहीं है। देवि! निश्चय ही आपकी ओर से मुझे सीता की प्राप्तिविषयक वर प्राप्त होगा। आपके अनुग्रह से उस दुःख देनेवाले पापी राक्षस को मारकर मैं सीता को अवश्य प्राप्त करूँगा। आज मेरा महान् सौभाग्य है जो आप दोनों ने मुझपर कृपा की। जिसपर आप दोनों दयालु हो जायँ, वह पुरुष धन्य और श्रेष्ठ है।

इस प्रकार बहुत-सी बातें कहकर कल्याणमयी सती देवी को प्रणाम करके रघुकुलशिरोमणि श्रीराम उनकी आज्ञा से उस वन में विचरने लगे। पवित्र हृदयवाले श्रीराम की यह बात सुनकर सती मन-ही-मन शिवभक्तिपरायण रघुनाथजी की प्रशंसा करती हुई बहुत प्रसन्न हुईं। पर अपने कर्म को याद करके उनके मन में बड़ा शोक हुआ। उनकी अंगकान्ति फीकी पड़ गयी। वे उदास होकर शिवजी के पास लौटीं। मार्ग में जाती हुई देवी सती बारंबार चिन्ता करने लगीं कि मैंने भगवान् शिव की बात नहीं मानी और श्रीराम के प्रति कुत्सित बुद्धि कर ली। अब शंकरजी के पास जाकर उन्हें क्या उत्तर दूँगी। इस प्रकार बारंबार विचार करके उन्हें उस समय बड़ा पश्चात्ताप हुआ। शिव के समीप जाकर सती ने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया। उनके मुखपर विषाद छा रहा था। वे शोक से व्याकुल और निस्तेज हो गयी थीं। सती को दुःखी देख भगवान् हर ने उनका कुशल-समाचार पूछा और प्रेमपूर्वक कहा- 'तुमने किस प्रकार परीक्षा ली?' उनकी यह बात सुनकर सती मस्तक झुकाये उनके पास खड़ी हो गयीं। उनका मन शोक और विषाद में डूबा हुआ था। भगवान् महेश्वर ने ध्यान लगाकर सती का सारा चरित्र जान लिया और उन्हें मन से त्याग दिया।

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