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ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

नारदजी बोले- दयानिधे! मदन-दहन के पश्चात् गिरिराजनन्दिनी पार्वती देवी ने क्या किया? वे अपनी दोनों सखियों के साथ कहाँ गयीं? यह सब मुझे बताइये।

ब्रह्माजी ने कहा- भगवान् शंकर के नेत्र से उत्पन्न हुई आग ने जब कामदेव को दग्ध किया, तब वहाँ महान् अद्भुत शब्द प्रकट हुआ, जिससे सारा आकाश गूँज उठा। उस महान् शब्द के साथ ही कामदेव को दग्ध हुआ देख भयभीत और व्याकुल हुई पार्वती दोनों सखियों के साथ अपने घर चली गयीं। उस शब्द से परिवारसहित हिमवान् भी बड़े विस्मय में पड़ गये और वहाँ गयी हुई अपनी पुत्री का स्मरण करके उन्हें बड़ा क्लेश हुआ। इतने में ही पार्वती दूर से आती हुई दिखायी दीं। वे शम्भु के विरह से रो रही थीं। अपनी पुत्री को अत्यन्त विह्वल हुई देख शैलराज हिमवान् को बड़ा शोक हुआ और वे शीघ्र ही उसके पास जा पहुँचे। वे फिर हाथ से उसकी दोनों आँखें पोंछकर बोले- 'शिवे! डरो मत, रोओ मत।' ऐसा कहकर अचलेश्वर हिमवान् ने अत्यन्त विह्वल हुई पार्वती को शीघ्र ही गोद में उठा लिया और उसे सान्त्वना देते हुए वे अपने घर ले आये।

कामदेव का दाह करके महादेव जी अदृश्य हो गये थे। अत: उनके विरह से पार्वती अत्यन्त व्याकुल हो उठी थीं। उन्हें कहीं भी सुख या शान्ति नहीं मिलती थी। पिता के घर जाकर जब वे अपनी माता से मिलीं, उस समय पार्वती शिवा ने अपना नया जन्म हुआ माना। वे अपने रूप की निन्दा करने लगीं और बोलीं- 'हाय! मैं मारी गयी।' सखियों के समझाने पर भी वे गिरिराजकुमारी कुछ समझ नहीं पाती थीं। वे सोते-जागते, खाते-पीते, नहाते-धोते, चलते-फिरते और सखियों के बीच में खड़े होते समय भी कभी किंचिन्मात्र भी सुख का अनुभव नहीं करती थीं। 'मेरे स्वरूप को तथा जन्म-कर्म को भी धिक्कार है' ऐसा कहती हुई वे सदा महादेवजी की प्रत्येक चेष्टा का चिन्तन करती थीं। इस प्रकार पार्वती भगवान् शिव के विरह से मन-ही-मन अत्यन्त क्लेश का अनुभव करती और किंचिन्मात्र भी सुख नहीं पाती थीं। वे सदा 'शिव, शिव' का जप किया करती थीं। शरीर से पिता के घर में रहकर भी वे चित्त से पिनाकपाणि भगवान् शंकर के पास पहुँची रहती थीं। तात! शिवा शोकमग्न हो बारंबार मूर्छित हो जाती थीं। शैलराज हिमवान् उनकी पत्नी मेना तथा उनके मैनाक आदि सभी पुत्र, जो बड़े उदारचेता थे, उन्हें सदा सान्त्वना देते रहते थे। तथापि वे भगवान् शंकर को भूल न सकीं।

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