ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
मन को सुस्थिर करके पूजागृह में प्रवेश करे। वहाँ पूजन-सामग्री लेकर सुन्दर आसनपर बैठे। पहले न्यास आदि करके क्रमश: महादेवजी की पूजा करे। शिव की पूजा से पहले गणेश जी की, द्वारपालों की और दिक्पालों की भी भलीभांति पूजा करके पीछे देवता के लिये पीठस्थान की कल्पना करे। अथवा अष्टदलकमल बनाकर पूजाद्रव्य के समीप बैठे और उस कमलपर ही भगवान् शिव को समासीन करे। तत्पश्चात् तीन आचमन करके पुन: दोनों हाथ धोकर तीन प्राणायाम करके मध्यम प्राणायाम अर्थात् कुम्भक करते समय त्रिनेत्रधारी भगवान् शिव का इस प्रकार ध्यान करे-
उनके पाँच मुख हैं, दस भुजाएँ हैं, शुद्ध स्फटिक के समान उज्ज्वल कान्ति है, सब प्रकार के आभूषण उनके श्रीअंगों को विभूषित करते हैं तथा वे व्याघ्रचर्म की चादर ओढ़े हुए हैं।
इस तरह ध्यान करके यह भावना करे कि मुझे भी इनके समान ही रूप प्राप्त हो जाय। ऐसी भावना करके मनुष्य सदा के लिये अपने पाप को भस्म कर डाले। इस प्रकार भावना द्वारा शिव का ही शरीर धारण करके उन परमेश्वर की पूजा करे। शरीरशुद्धि करके मूलमन्त्र का क्रमश: न्यास करे अथवा सर्वत्र प्रणव से ही षडंगन्यास करे। 'ॐ अद्येत्यादि०' रूपसे संकल्प-वाक्य का प्रयोग करके फिर पूजा आरम्भ करे। पाद्य, अर्ध्य और आचमन के लिये पात्रों को तैयार करके रखे। बुद्धिमान् पुरुष विधिपूर्वक भिन्न-भिन्न प्रकार के नौ कलश स्थापित करे। उन्हें कुशाओं से ढककर रखे और कुशाओं से ही जल लेकर उन सबका प्रोक्षण करे। तत्पश्चात् उन-उन सभी पात्रों में शीतल जल डाले। फिर बुद्धिमान् पुरुष देखभाल कर प्रणवमन्त्र के द्वारा उन में निम्नांकित द्रव्यों को डाले। खस और चन्दन को पाद्यपात्र में रखे। चमेली के फूल, शीतलचीनी, कपूर, बड़ की जड़ तथा तमाल - इन सबको यथोचित-रूप से कूट-पीसकर चूर्ण बना ले और आचमनीय के पात्र में डाले। इलायची और चन्दन को तो सभी पात्रों में डालना चाहिये। देवाधिदेव महादेवजी के पार्श्वभाग में नन्दीश्वर का पूजन करे। गन्ध, धूप तथा भाँति-भाँति के दीपों द्वारा शिव की पूजा करे। फिर लिंगशुद्धि करके मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक मन्त्रसमूहों के आदि में प्रणव तथा अन्त में 'नम:' पद जोड़कर उनके द्वारा इष्टदेव के लिये यथोचित आसन की कल्पना करे। फिर प्रणव से पद्मासन की कल्पना करके यह भावना करे कि इस कमल का पूर्वदल साक्षात् अणिमा नामक ऐश्वर्यरूप तथा अविनाशी है। दक्षिणदल लघिमा है, पश्चिमदल महिमा है। उत्तरदल प्राप्ति है। अग्निकोण का दल प्राकाम्य है। नैऋत्यकोण का दल ईशित्व है। वायव्यकोण का दल वशित्व है। ईशानकोण का दल सर्वज्ञत्व है और उस कमल की कर्णिका को सोम कहा जाता है। सोम के नीचे सूर्य हैं, सूर्य के नीचे अग्नि हैं और अग्नि के भी नीचे धर्म आदि के स्थान हैं। क्रमश: ऐसी कल्पना करने के पश्चात् चारों दिशाओं में अव्यक्त, महत्तत्त्व, अहंकार तथा उनके विकारों की कल्पना करे। सोम के अन्त में सत्त्व, रज और तम - इन तीनों गुणों की कल्पना करे। इसके बाद 'सद्योजात प्रपद्यामि' इत्यादि मन्त्र से परमेश्वर शिव का आवाहन करके 'ॐ वामदेवाय नम:' इत्यादि वामदेव-मन्त्र से उन्हें आसनपर विराजमान करे। फिर 'ॐ तत्पुरुषाय विद्महे' इत्यादि रुद्रगायत्री द्वारा इष्टदेव का सांनिध्य प्राप्त करके 'अघोरेभ्योऽथ' इत्यादि अघोरमन्त्र से वहाँ निरुद्ध करे। फिर 'ईशान: सर्वविद्यानाम्' इत्यादि मन्त्र से आराध्य देव का पूजन करे। पाद्य और आचमनीय अर्पित करके अर्ध्य दे। तत्पश्चात् गन्ध और चन्दनमिश्रित जल से विधिपूर्वक रुद्रदेव को स्नान कराये। फिर पंचगव्य निर्माण की विधि से पाँचों द्रव्यों को एक पात्र में लेकर प्रणव से ही अभिमन्त्रित करके उन मिश्रित गव्यपदार्थों द्वारा भगवान् को नहलाये। तत्पश्चात् पृथक्-पृथक् दूध, दही, मधु, गन्ने के रस तथा घी से नहलाकर समस्त अभीष्टों के दाता और हितकारी पूजनीय महादेवजी का प्रणव के उच्चारणपूर्वक पवित्र द्रव्यों द्वारा अभिषेक करे। पवित्र जलपात्रों में मन्त्रोच्चारणपूर्वक जल डाले। डालने से पहले साधक श्वेत वस्त्र से उस जल को यथोचित रीति से छान ले। उस जल को तबतक दूर न करे, जबतक इष्टदेव को चन्दन न चढ़ा ले। तब सुन्दर अक्षतों द्वारा प्रसन्नतापूर्वक शंकरजी की पूजा करे। उनके ऊपर कुश, अपामार्ग, कपूर, चमेली, चम्पा, गुलाब, श्वेत कनेर, बेला, कमल और उत्पल आदि भाँति- भांति के अपूर्व पुष्प एवं चन्दन आदि चढ़ाकर पूजा करे। परमेश्वर शिव के ऊपर जल की धारा गिरती रहे इसकी भी व्यवस्था करे। जल से भरे भांति-भांति के पात्रों द्वारा महेश्वर को नहलाये। मंत्रोच्चारणपूर्वक पूजा करनी चाहिये। वह समस्त फलों को देनेवाली होती है।
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