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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2081
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

आँख खुलने पर उस शिशु ने देखा, उसका वही शिविर भगवान् शिव के अनुग्रह से तत्काल महाकाल का सुन्दर मन्दिर बन गया, मणियों के चमकीले खंभे उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ की भूमि स्फटिकमणि से जड़ दी गयी थी। तपाये हुए सोने के बहुत-से विचित्र कलश उस शिवालय को सुशोभित करते थे। उसके विशाल द्वार, कपाट और प्रधान द्वार सुवर्णमय दिखायी देते थे। वहाँ बहुमूल्य नीलमणि तथा हीरे के बने हुए चबूतरे शोभा दे रहे थे। उस शिवालय के मध्यभाग में दयानिधान शंकर का रत्नमय लिंग प्रतिष्ठित था। ग्वालिन के उस पुत्र ने देखा, उस शिवलिंगपर उसकी अपनी ही चढ़ायी हुई पूजन-सामग्री सुसज्जित है। यह सब देख वह बालक सहसा उठकर खड़ा हो गया। उसे मन-ही-मन बड़ा आश्चर्य हुआ और वह परमानन्द के समुद्र में निमग्न-सा हो गया। तदनन्तर भगवान् शिव की स्तुति करके उसने बारंबार उनके चरणों में मस्तक झुकाया और सूर्यास्त होने के पश्चात् वह गोपबालक शिवालय से बाहर निकला। बाहर आकर उसने अपने शिविर को देखा। वह इन्द्रभवन के समान शोभा पा रहा था। वहाँ सब कुछ तत्काल सुवर्णमय होकर विचित्र एवं परम उज्ज्वल वैभव से प्रकाशित होने लगा। फिर वह उस भवन के भीतर गया, जो सब प्रकार की शोभाओं से सम्पन्न था। उस भवन में सर्वत्र मणि, रत्न और सुवर्ण ही खड़े गये थे। प्रदोषकाल में सानन्द भीतर प्रवेश करके बालक ने देखा, उसकी माँ दिव्य लक्षणों से लक्षित हो एक सुन्दर पलंगपर सो रही है। रत्नमय अलंकारों से उसके सभी अंग उद्दीप्त हो रहे हैं और वह साक्षात् देवांगना के समान दिखायी देती है। मुख से विह्वल हुए उस बालक ने अपनी माता को बड़े वेग से उठाया। वह भगवान् शिव की कृपापात्र हो चुकी थी। ग्वालिन ने उठकर देखा, सब कुछ अपूर्व-सा हो गया था। उसने महान् आनन्द में निमग्न हो अपने बेटे को छाती से लगा लिया। पुत्र के मुख से गिरिजापति के कृपाप्रसाद का वह सारा वृत्तान्त सुनकर ग्वालिन ने राजा को सूचना दी, जो निरन्तर भगवान् शिव के भजन में लगे रहते थे। राजा अपना नियम पूरा करके रात में सहसा वहीं आये और ग्वालिन के पुत्र का वह प्रभाव, जो शंकरजी को संतुष्ट करनेवाला था, देखा। मन्त्रियों और पुरोहितों सहित राजा चन्द्रसेन वह सब कुछ देख परमानन्द के समुद्र में डूब गये और नेत्रों से प्रेम के आँसू बहाते तथा प्रसन्नतापूर्वक शिव के नाम का कीर्तन करते हुए उन्होंने उस बालक को हृदय से लगा लिया। ब्राह्मणो! उस समय वहाँ बड़ा भारी उत्सव होने लगा। सब लोग आनन्द विभोर होकर महेश्वर के नाम और यश का कीर्तन करने लगे। इस प्रकार शिव का यह अद्भुत माहात्म्य देखने से पुरवासियों को बड़ा हर्ष हुआ और इसी की चर्चा में वह सारी रात एक क्षण के समान व्यतीत हो गयी।

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