गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
हरिणने कहा- मैं धन्य हूँ। मेरा इष्ट-पुष्ट होना सफल हो गया; क्योंकि मेरे शरीर से आपलोगों की तृप्ति होगी। जिसका शरीर परोपकार के काम में नहीं आता, उसका सब कुछ व्यर्थ चला गया। जो सामर्थ्य रहते हुए भी किसी का उपकार नहीं करता है उसकी वह सामर्थ्य व्यर्थ चली जाती है तथा वह परलोक में नरकगामी होता है। परंतु एक बार मुझे जाने दो। मैं अपने बालकों को उनकी माता के हाथ में सौंपकर और उन सबको धीरज बँधाकर यहाँ लौट आऊँगा।
यो वै सामर्थ्ययुक्तश्च नोपकारं करोति वै।तत्सामर्थ्यं भवेद् व्यर्थं परत्र नरकं व्रजेत।।
उसके ऐसा कहने पर व्याध मन-ही-मन बड़ा विस्मित हुआ। उसका हृदय कुछ शुद्ध हो गया था और उसके सारे पापपुंज नष्ट हो चुके थे। उसने इस प्रकार कहा। व्याध बोला- जो-जो यहाँ आये, वे सब तुम्हारी ही तरह बातें बनाकर चले गये; परंतु वे वंचक अभीतक यहाँ नहीं लौटे हैं। मृग! तुम भी इस समय संकट में हो, इसलिये झूठ बोलकर चले जाओगे। फिर आज मेरा जीवन-निर्वाह कैसे होगा?
मृग बोला- व्याध! मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनो। मुझमें असत्य नहीं है। सारा चराचर ब्रह्माण्ड सत्य से ही टिका हुआ है। जिसकी वाणी झूठी होती है उसका पुण्य उसी क्षण नष्ट हो जाता है; तथापि भील! तुम मेरी सच्ची प्रतिज्ञा सुनो। संध्याकाल में मैथुन तथा शिवरात्रि के दिन भोजन करने से जो पाप लगता है, झूठी गवाही देने, धरोहरको हड़प लेने तथा संध्या न करने से द्विज को जो पाप होता है वही पाप मुझे भी लगे, यदि मैं लौटकर न आऊँ। जिसके मुखसे कभी शिवका नाम नहीं निकलता, जो सामर्थ्य रहते हुए भी दूसरोंका उपकार नहीं करता, पर्वके दिन श्रीफल तोड़ता, अभक्ष्य-भक्षण करता तथा शिव की पूजा किये बिना और भस्म लगाये बिना भोजन कर लेता है इन सबका पातक मुझे लगे, यदि मैं लौटकर न आऊँ।
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