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शिव पुराण 4 - कोटिरुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2081
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

सूतजी कहते हैं- उसकी बात सुनकर व्याध ने कहा-'जाओ, शीघ्रलौटना।' 

व्याध के ऐसा कहने पर मृग पानी पीकर चला गया। वे सब अपने आश्रम पर मिले। तीनों ही प्रतिज्ञाबद्ध हो चुके थे। आपस में एक-दूसरे के वृत्तान्त को भलीभांति सुनकर सत्य के पाश से बँधे हुए उन सबने यही निश्चय किया कि वहाँ अवश्य जाना चाहिये। इस निश्चय के बाद वहाँ बालकों को आश्वासन देकर वे सब-के-सब जाने के लिये उत्सुक हो गये। उस समय जेठी मृगी ने वहाँ अपने स्वामी से कहा-'स्वामिन्! आपके बिना यहाँ बालक कैसे रहेंगे? प्रभो। मैंने ही वहाँ पहले जाकर प्रतिज्ञा की है इसलिये केवल मुझको जाना चाहिये। आप दोनों यहीं रहें।' 

उसकी यह बात सुनकर छोटी मृगी बोली- 'बहिन! मैं तुम्हारी सेविका हूँ इसलिये आज मैं ही व्याध के पास जाती हूँ। तुम यहीं रहो।' 

यह सुनकर मृग बोला-'मैं ही वहाँ जाता हूँ। तुम दोनों यहाँ रहो; क्योंकि शिशुओं की रक्षा माता से ही होती है।' 

स्वामीकी यह बात सुनकर उन दोनों मृगियों ने धर्म की दृष्टि से उसे स्वीकार नहीं किया। वे दोनों अपने पति से प्रेमपूर्वक बोलीं- 'प्रभो! पति के बिना इस जीवन को धिक्कार है।' तब उन सबने अपने बच्चों को सान्त्वना देकर उन्हें पड़ोसियों के हाथ में सौंप दिया और स्वयं शीघ्र ही उस स्थान को प्रस्थान किया, जहाँ वह व्याध-शिरोमणि उनकी प्रतीक्षा में बैठा था। उन्हें जाते देख उनके वे सब बच्चे भी पीछे-पीछे चले आये। उन्होंने यह निश्चय कर लिया था कि इन माता-पिता की जो गति होगी, वही हमारी भी हो। उन सबको एक साथ आया देख व्याध को बड़ा हर्ष हुआ। उसने धनुष पर बाण रखा। उस समय पुन: जल और बिल्वपत्र शिव के ऊपर गिरे। उससे शिव की चौथे प्रहर की शुभ पूजा भी सम्पन्न हो गयी। उस समय व्याध का सारा पाप तत्काल भस्म हो गया। इतने में ही दोनों मृगियाँ और मृग बोल उठे- 'व्याधशिरोमणे! शीघ्र कृपा करके हमारे शरीर को सार्थक करो।'

उनकी यह बात सुनकर व्याध को बड़ा विस्मय हुआ। शिवपूजा के प्रभाव से उसको दुर्लभ ज्ञान प्राप्त हो गया। उसने सोचा- 'ये मृग ज्ञानहीन पशु होनेपर भी धन्य हैं, सर्वथा आदरणीय हैं; क्योंकि अपने शरीर से ही परोपकार में लगे हुएहैं। मैंने इस समय मनुष्य-जन्म पाकर भी किस पुरुषार्थ का साधन किया? दूसरे के शरीर को पीड़ा देकर अपने शरीर को पोसा है। प्रतिदिन अनेक प्रकार के पाप करके अपने कुटुम्ब का पालन किया है। हाय! ऐसे पाप करके मेरी क्या गति होगी? अथवा मैं किसगति को प्राप्त होऊँगा? मैंने जन्म से लेकर अबतक जो पातक किया है उसका इस समय मुझे स्मरण हो रहा है। मेरे जीवन को धिक्कार है? धिक्कार है।' इस प्रकार ज्ञानसम्पन्न होकर व्याध ने अपने बाण को रोक लिया और कहा- 'श्रेष्ठ मृगो! तुम जाओ। तुम्हारा जीवन धन्य है।'

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