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रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2085
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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में गोस्वामी जी इस मनोहारी राम कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।

सप्तर्षियों की परीक्षा में पार्वतीजी का महत्व



दो०- पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।
गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु॥७७॥


आपलोग पार्वतीके पास जाकर उनके प्रेमको परीक्षा लीजिये और हिमाचलको कहकर [उन्हें पार्वतीको लिवा लानेके लिये भेजिये तथा] पार्वतीको घर भिजवाइये और उनके सन्देहको दूर कीजिये ॥ ७७॥

रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी ।
मूरतिमंत तपस्या जैसी॥
बोले मुनि सुनु सैलकुमारी ।
करहु कवन कारन तपु भारी॥


ऋषियोंने [वहाँ जाकर] पार्वतीको कैसी देखा, मानो मूर्तिमान् तपस्या ही हो। मुनि बोले-हे शैलकुमारी! सुनो, तुम किसलिये इतना कठोर तप कर रही हो? ॥१॥

केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू ।
हम सन सत्य मरमु किन कहहू॥
कहत बचन मनु अति सकुचाई।
हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई।


तुम किसकी आराधना करती हो और क्या चाहती हो? हमसे अपना सच्चा भेद क्यों नहीं कहती ? [पार्वतीने कहा-] बात कहते मन बहुत सकुचाता है। आपलोग मेरी मूर्खता सुनकर हँसेंगे ॥२॥

मनु हठ परा न सुनइ सिखावा ।
चहत बारि पर भीति उठावा।
नारद कहा सत्य सोइ जाना ।
बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना॥


मनने हठ पकड़ लिया है. वह उपदेश नहीं सुनता और जलपर दीवाल उठाना चाहता है। नारदजीने जो कह दिया उसे सत्य जानकर मैं बिना ही पाँखके उड़ना चाहती हूँ॥३॥

देखहु मुनि अबिबेकु हमारा ।
चाहिअ सदा सिवहि भरतारा।।


हे मुनियो! आप मेरा अज्ञान तो देखिये कि मैं सदा शिवजीको ही पति बनाना चाहती हूँ॥ ४॥

दो०- सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तव देह।
नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह॥७८॥


पार्वतीजीकी बात सुनते ही ऋषिलोग हँस पड़े और बोले-तुम्हारा शरीर पर्वतसे ही तो उत्पन्न हुआ है ! भला, कहो तो नारदका उपदेश सुनकर आजतक किसका घर बसा है ? ॥७८॥

दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई ।
तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥
चित्रकेतु कर घरु उन घाला।
कनककसिपुकर पुनि अस हाला॥


उन्होंने जाकर दक्षके पुत्रोंको उपदेश दिया था, जिससे उन्होंने फिर लौटकर घरका मुंह भी नहीं देखा। चित्रकेतुके घरको नारदने ही चौपट किया। फिर यही हाल हिरण्यकशिपुका हुआ ॥१॥

नारद सिख जे सुनहिं नर नारी ।
अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥
मन कपटी तन सजन चीन्हा ।
आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥


जो स्त्री-पुरुष नारदकी सीख सुनते हैं, वे घर-बार छोड़कर अवश्य ही भिखारी हो जाते हैं। उनका मन तो कपटी है, शरीरपर सज्जनोंके चिह्न हैं। वे सभीको अपने समान बनाना चाहते हैं ॥२॥

तेहि के बचन मानि बिस्वासा ।
तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥
निर्गुन निलज कुबेस कपाली।
अकुल अगेह दिगंबर ब्याली॥

उनके वचनोंपर विश्वास मानकर तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभावसे ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर-कपालोंकी माला पहननेवाला, कुलहीन, बिना घर-बारका, नंगा और शरीरपर साँपोंको लपेटे रखनेवाला है॥३॥

कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ ।
भल भूलिहु ठग के बौराएँ।
पंच कहें सिर्वं सती बिबाही।
पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही॥


ऐसे वरके मिलनेसे कहो, तुम्हें क्या सुख होगा? तुम उस ठग (नारद) के बहकावेमें आकर खूब भूलीं। पहले पंचोंके कहनेसे शिवने सतीसे विवाह किया था, परन्तु फिर उसे त्यागकर मरवा डाला॥४॥

दो०- अब सुख सोवत सोचु नहिं भीख मागि भव खाहिं।
सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं ॥७९॥


अब शिवको कोई चिन्ता नहीं रही, भीख माँगकर खा लेते हैं और सुख से सोते हैं। ऐसे स्वभाव से ही अकेले रहने वालों के घर भी भला क्या कभी स्त्रियाँ टिक सकती हैं ? ॥ ७९ ॥

अजहूँ मानहु कहा हमारा ।
हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥
अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला ।
गावहिं बेद जासु जस लीला।।

अब भी हमारा कहा मानो, हमने तुम्हारे लिये अच्छा वर विचारा है। वह बहुत ही सुन्दर, पवित्र, मुखदायक और सुशील है, जिसका यश और लीला वेद गाते हैं ॥१॥

दूषन रहित सकल गुन रासी ।
श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी।
अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी ।
सुनत बिहसि कह बचन भवानी॥


वह दोषोंसे रहित, सारे सद्गुणोंकी राशि, लक्ष्मीका स्वामी और वैकुण्ठपुरीका रहनेवाला है। हम ऐसे वरको लाकर तुमसे मिला देंगे। यह सुनते ही पार्वतीजी हँसकर बोलीं- ॥२॥

सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा।
हठ न छूट छूटे बरु देहा॥
कनकउ पुनि पषान तें होई।
जारेहुँ सहजु न परिहर सोई॥


आपने यह सत्य ही कहा कि मेरा यह शरीर पर्वतसे उत्पन्न हुआ है। इसलिये हठ नहीं छूटेगा, शरीर भले ही छूट जाय। सोना भी पत्थरसे ही उत्पन्न होता है, सो वह जलाये जानेपर भी अपने स्वभाव (सुवर्णत्व) को नहीं छोड़ता ॥३॥

नारद बचन न मैं परिहरऊँ ।
बसउ भवनु उजरउ नहिं डरऊँ।
गुर के बचन प्रतीति न जेही ।
सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥


अतः मैं नारदजीके वचनोंको नहीं छोड़ेंगी; चाहे घर बसे या उजड़े, इससे मैं नहीं डरती। जिसको गुरुके वचनोंमें विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्नमें भी सुगम नहीं होती ।। ४।।

दो०- महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥८०॥

माना कि महादेवजी अवगुणोंके भवन हैं और विष्णु समस्त सद्गुणोंके धाम हैं; पर जिसका मन जिसमें रम गया, उसको तो उसीसे काम है ॥ ८०॥

जौँ तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा ।
सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥
अब मैं जन्म संभु हित हारा ।
को गुन दूषन करै बिचारा॥

हे मुनीश्वरो ! यदि आप पहले मिलते, तो मैं आपका उपदेश सिर-माथे रखकर सुनती। परंतु अब तो मैं अपना जन्म शिवजीके लिये हार चुकी। फिर गुण-दोषोंका विचार कौन करे? ॥१॥

जी तुम्हरे हठ हृदयें बिसेषी।
रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी॥
तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं ।
बर कन्या अनेक जग माहीं॥

 
यदि आपके हृदयमें बहुत ही हठ है और विवाहकी बातचीत (बरेखी) किये बिना आपसे रहा ही नहीं जाता, तो संसारमें वर-कन्या बहुत हैं। खिलवाड़ करनेवालोंको आलस्य तो होता नहीं [ और कहीं जाकर कीजिये] ॥२॥

जन्म कोटि लगि रगर हमारी ।
बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥
तजउँ न नारद कर उपदेसू ।
आपु कहहिं सत बार महेसू॥

मेरा तो करोड़ जन्मोंतक यही हठ रहेगा कि या तो शिवजीको वरूँगी, नहीं तो कुमारी ही रहूँगी। स्वयं शिवजी सौ बार कहें, तो भी नारदजीके उपदेशको न छोड़ेंगी॥३॥

मैं पा परउँ कहइ जगदंबा ।
तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा॥
देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी ।
जय जय जगदंबिके भवानी॥

जगज्जननी पार्वतीजीने फिर कहा कि मैं आपके पैरों पड़ती हूँ। आप अपने घर जाइये, बहुत देर हो गयी। [शिवजीमें पार्वतीजीका ऐसा] प्रेम देखकर ज्ञानी मुनि बोले-हे जगजननी ! हे भवानी! आपकी जय हो! जय हो!! ॥४॥

दो०- तुम्ह माया भगवान सिव सकल जगत पितु मातु।
नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु॥८१॥


आप माया हैं और शिवजी भगवान हैं। आप दोनों समस्त जगतके माता-पिता हैं। [यह कहकर] मुनि पार्वतीजीके चरणोंमें सिर नवाकर चल दिये। उनके शरीर बार-बार पुलकित हो रहे थे॥ ८१॥

जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए ।
करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए।
बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई ।
कथा उमा कै सकल सुनाई।

मुनियोंने जाकर हिमवानको पार्वतीजीके पास भेजा और वे विनती करके उनको घर ले आये; फिर सप्तर्षियोंने शिवजीके पास जाकर उनको पार्वतीजीकी सारी कथा सुनायी ॥१॥

भए मगन सिव सुनत सनेहा ।
हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥
मनु थिर करि तब संभु सुजाना ।
लगे करन रघुनायक ध्याना॥


पार्वतीजीका प्रेम सुनते ही शिवजी आनन्दमग्न हो गये। सप्तर्षि प्रसन्न होकर अपने घर (ब्रह्मलोक)को चले गये। तब सुजान शिवजी मनको स्थिर करके श्रीरघुनाथजीका ध्यान करने लगे॥२॥

तारकु असुर भयउ तेहि काला ।
भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥
तहिं सब लोक लोकपति जीते ।
भए देव सुख संपति रीते॥


उसी समय तारक नामका असुर हुआ, जिसकी भुजाओंका बल, प्रताप और तेज बहुत बड़ा था। उसने सब लोक और लोकपालोंको जीत लिया, सब देवता मुख और सम्पत्तिसे रहित हो गये ॥ ३ ॥

अजर अमर सो जीति न जाई।
हारे सुर करि बिबिध लराई।
तब बिरंचि सन जाइ पुकारे ।
देखे बिधि सब देव दुखारे॥

 
वह अजर-अमर था, इसलिये किसीसे जीता नहीं जाता था। देवता उसके साथ बहुत तरहकी लड़ाइयाँ लड़कर हार गये। तब उन्होंने ब्रह्माजीके पास जाकर पुकार मचायी। ब्रह्माजीने सत्र देवताओंको दुःखी देखा॥४॥

दो०- सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।
संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोई॥८२॥


ब्रह्माजीने सबको समझाकर कहा-इस दैत्यको मृत्यु तब होगी जब शिवजीके वीर्यसे पुत्र उत्पन्न हो, इसको युद्ध में वही जीतेगा ।। ८२ ।।

मोर कहा सुनि करहु उपाई ।
होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥
सतीं जो तजी दच्छ मख देहा ।
जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥


मेरी बात सुनकर उपाय करो। ईश्वर सहायता करेंगे और काम हो जायगा। सतीजीने जो दक्षके यज्ञमें देहका त्याग किया था, उन्होंने अब हिमाचलके घर जाकर जन्म लिया है ॥ १॥

तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी ।
सिव समाधि बैठे सबु त्यागी।
जदपि अहइ असमंजस भारी ।
तदपि बात एक सुनहु हमारी॥


उन्होंने शिवजीको पति बनानेके लिये तप किया है, इधर शिवजी सब छोड़ छाड़कर समाधि लगा बैठे हैं। यद्यपि है तो बड़े असमंजसकी बात; तथापि मेरी एक बात सुनो॥२॥

पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं ।
करै छोभु संकर मन माहीं॥
तब हम जाइ सिवहि सिर नाई।
करवाउब बिबाहु बरिआई॥


तुम जाकर कामदेवको शिवजीके पास भेजो, वह शिवजीके मनमें क्षोभ उत्पन्न करे(उनकी समाधि भङ्ग करे)। तब हम जाकर शिवजीके चरणोंमें सिर रख देंगे और जबरदस्ती (उन्हें राजी करके) विवाह करा देंगे॥३॥

एहि बिधि भलेहिं देवहित होई।
मत अति नीक कहइ सबु कोई॥
अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू ।
प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥

इस प्रकारसे भले ही देवताओंका हित हो [और तो कोई उपाय नहीं है] सबने कहा-यह सम्मति बहुत अच्छी है। फिर देवताओंने बड़े प्रेमसे स्तुति की, तब विषम (पाँच) बाण धारण करनेवाला और मछलीके चिह्नयुक्त ध्वजावाला कामदेव प्रकट हुआ।। ४॥

दो०- सुरन्ह कही निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार।
संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥८३॥


देवताओंने कामदेवसे अपनी सारी विपत्ति कही। सुनकर कामदेवने मनमें विचार किया और हँसकर देवताओंसे यों कहा कि शिवजीके साथ विरोध करने में मेरी कुशल नहीं है ।। ८३॥

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