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रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2085
आईएसबीएन :0

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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में गोस्वामी जी इस मनोहारी राम कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।

कामदेव का देवकार्य के लिए जाना और भस्म होना



तदपि करब मैं काजु तुम्हारा ।
श्रुति कह परम धरम उपकारा॥
पर हित लागि तजइ जो देही ।
संतत संत प्रसंसहिं तेही॥

 
तथापि मैं तुम्हारा काम तो करूंगा, क्योंकि वेद दूसरे के उपकार को परम धर्म कहते हैं। जो दूसरेके हितके लिये अपना शरीर त्याग देता है, संत सदा उसकी बड़ाई करते हैं ॥१॥

अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई।
सुमन धनुष कर सहित सहाई॥
चलत मार अस हदयँ बिचारा ।
सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा॥


यों कह और सबको सिर नवाकर कामदेव अपने पुष्पके धनुषको हाथमें लेकर [वसन्तादि] सहायकोंके साथ चला। चलते समय कामदेवने हृदयमें ऐसा विचार किया कि शिवजीके साथ विरोध करनेसे मेरा मरण निश्चित है॥२॥

तब आपन प्रभाउ बिस्तारा ।
निज बस कीन्ह सकल संसारा॥
कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू ।
छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥


तब उसने अपना प्रभाव फैलाया और समस्त संसारको अपने वशमें कर लिया। जिस समय उस मछलीके चिह्नकी ध्वजावाले कामदेवने कोप किया, उस समय क्षणभरमें ही वेदोंकी सारी मर्यादा मिट गयी॥ ३॥

ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना ।
धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥
सदाचार जप जोग बिरागा ।
सभय बिबेक कटकु सबु भागा॥


ब्रह्मचर्य, नियम, नाना प्रकारके संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान-विज्ञान, सदाचार, जप, योग, वैराग्य आदि विवेककी सारी सेना डरकर भाग गयी॥४॥

छं०-भागेउ बिबेकु सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।
सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥


विवेक अपने सहायकोंसहित भाग गया, उसके योद्धा रणभूमिसे पीठ दिखा गये। उस समय वे सब सद्ग्रन्थरूपी पर्वतकी कन्दराओंमें जा छिपे (अर्थात् ज्ञान, वैराग्य, संयम, नियम, सदाचारादि ग्रन्थोंमें ही लिखे रह गये; उनका आचरण छूट गया)। सारे जगतमें खलबली मच गयी [और सब कहने लगे-] हे विधाता! अब क्या होनेवाला है, हमारी रक्षा कौन करेगा? ऐसा दो सिरवाला कौन है, जिसके लिये रतिके पति कामदेवने कोप करके हाथमें धनुष-बाण उठाया है ?

दो०- जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥ ८४॥


जगतमें स्त्री-पुरुष संज्ञावाले जितने चर-अचर प्राणी थे, वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर कामके वश हो गये ।। ८४॥

सब के हृदय मदन अभिलाषा ।
लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
नदी उमगि अंबुधि कहुँ धाई ।
संगम करहिं तलाव तलाईं।


सबके हृदयमें कामकी इच्छा हो गयी। लताओं (बेलों) को देखकर वृक्षोंकी डालियाँ झुकने लगीं। नदियाँ उमड़-उमड़कर समुद्रकी ओर दौड़ी और ताल-तलैयाँ भी आपसमें संगम करने (मिलने-जुलने) लगीं ॥१॥

जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी ।
को कहि सकइ सचेतन करनी॥
पसु पच्छी नभ जल थल चारी ।
भए काम बस समय बिसारी॥

 
जब जड (वृक्ष, नदी आदि) की यह दशा कही गयी, तब चेतन जीवोंकी करनी कौन कह सकता है? आकाश, जल और पृथ्वीपर विचरनेवाले सारे पशु पक्षी (अपने संयोगका) समय भलाकर कामके वश हो गये ॥ २ ॥

मदन अंध ब्याकुल सब लोका ।
निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका।
देव दनुज नर किंनर ब्याला ।
प्रेत पिसाच भूत बेताला॥


सब लोग कामान्ध होकर व्याकुल हो गये। चकवा-चकवी रात-दिन नहीं देखते। देव, दैत्य, मनुष्य, किन्नर, सर्प, प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल-॥३॥

इन्ह के दसा न कहेउँ बखानी ।
सदा काम के चेरे जानी।
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी ।
तेपि कामबस भए बियोगी॥


ये तो सदा ही कामके गुलाम हैं, यह समझकर मैंने इनकी दशाका वर्णन नहीं किया। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महान् योगी भी कामके वश होकर योगरहित या स्त्रीके विरही हो गये ॥४॥

छं०-भए कामबस जोगीस तापस पावरन्हि की को कहै।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे।
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं ।
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं ॥

जब योगीश्वर और तपस्वी भी कामके वश हो गये, तब पामर मनुष्योंकी कौन कहे? जो समस्त चराचर जगतको ब्रह्ममय देखते थे, वे अब उसे स्त्रीमय देखने लगे। स्त्रियाँ सारे संसारको पुरुषमय देखने लगी और पुरुष उसे स्त्रीमय देखने लगे। दो घड़ीतक सारे ब्रह्माण्डके अंदर कामदेवका रचा हुआ यह कौतुक (तमाशा) रहा।

सो०- धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ। ८५॥

किसीने भी हृदयमें धैर्य नहीं धारण किया, कामदेवने सबके मन हर लिये। श्रीरघुनाथजीने जिनकी रक्षा की. केवल वे ही उस समय बचे रहे ।। ८५॥

उभय घरी अस कौतुक भयऊ ।
जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ॥
सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू ।
भयउ जथाथिति सबु संसारू॥

दो घड़ी तक ऐसा तमाशा हुआ. जब तक कामदेव शिवजी के पास पहुंच गया। शिवजी को देखकर कामदेव डर गया. तब सारा संसार फिर जैसा-का-तैसा स्थिर हो गया॥१॥

भए तुरत सब जीव सुखारे ।
जिमि मद उतरि गएँ मतवारे।
रुद्रहि देखि मदन भय माना ।
दुराधरष दुर्गम भगवाना॥


तुरंत ही सब जीव वैसे ही सुखी हो गये जैसे मतवाले (नशा पिये हुए) लोग मद (नशा) उतर जानेपर सुखी होते हैं। दुराधर्ष (जिनको पराजित करना अत्यन्त ही कठिन है) और दुर्गम (जिनका पार पाना कठिन है) भगवान (सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री. ज्ञान और वैराग्यरूप छः ईश्वरीय गुणोंसे युक्त) रुद्र (महाभयङ्कर) शिवजीको देखकर कामदेव भयभीत हो गया ॥२॥

फिरत लाज कछु करि नहिं जाई ।
मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा ।
कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥


लौट जाने में लज्जा मालूम होती है और करते कुछ बनता नहीं। आखिर मनमें मरनेका निश्चय करके उसने उपाय रचा। तुरंत ही सुन्दर ऋतुराज वसन्तको प्रकट किया। फूले हुए नये-नये वृक्षोंकी कतारें सुशोभित हो गयीं ॥३॥

बन उपबन बापिका तड़ागा ।
परम सुभग सब दिसा बिभागा॥
जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा ।
देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥


वन-उपवन, बावली-तालाब और सब दिशाओंके विभाग परम सुन्दर हो गये। जहाँ-तहाँ मानो प्रेम उमड़ रहा है, जिसे देखकर मरे मनोंमें भी कामदेव जाग उठा॥४॥

छं०- जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥
बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा।
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा॥

मरे हुए मनमें भी कामदेव जागने लगा, वनकी सुन्दरता कही नहीं जा सकती। कामरूपी अग्निका सच्चा मित्र शीतल-मन्द-सुगन्धित पवन चलने लगा। सरोवरोंमें अनेकों कमल खिल गये, जिनपर सुन्दर भौरोंके समूह गुंजार करने लगे। राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे और अप्सराएँ गा-गाकर नाचने लगीं।

दो०- सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत।
चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥८६॥


कामदेव अपनी सेनासमेत करोडों प्रकारकी सब कलाएँ (उपाय) करके हार गया, पर शिवजीकी अचल समाधि न डिगी। तब कामदेव क्रोधित हो उठा ।। ८६ ।।

देखि रसाल बिटप बर साखा ।
तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा॥
सुमन चाप निज सर संधाने ।
अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने।


आमके वृक्षको एक सुन्दर डाली देखकर मनमें क्रोधसे भरा हुआ कामदेव उसपर चढ़ गया। उसने पुष्प-धनुषपर अपने [पाँचों] बाण चढ़ाये और अत्यन्त क्रोधसे [लक्ष्यकी ओर] ताककर उन्हें कानतक तान लिया ॥१॥

छाड़े बिषम बिसिख उर लागे ।
छूटि समाधि संभु तब जागे॥
भयउ ईस मन छोभु बिसेषी ।
नयन उघारि सकल दिसि देखी॥


कामदेवने तीक्ष्ण पाँच बाण छोड़े, जो शिवजीके हृदयमें लगे। तब उनकी समाधि टूट गयी और वे जाग गये। ईश्वर (शिवजी) के मनमें बहुत क्षोभ हुआ। उन्होंने आँखें खोलकर सब ओर देखा ॥ २ ॥

सौरभ पल्लव मदनु बिलोका ।
भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका॥
तब सिर्वं तीसर नयन उघारा ।
चितवत कामु भयउ जरि छारा॥

जब आमके पत्तोंमें [छिपे हुए] कामदेवको देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ, जिससे तीनों लोक काँप उठे। तब शिवजीने तीसरा नेत्र खोला, उनके देखते ही कामदेव जलकर भस्म हो गया ॥३॥

हाहाकार भयउ जग भारी ।
डरपे सुर भए असुर सुखारी॥
समुझि कामसुख सोचहिं भोगी।
भए अकंटक साधक जोगी।

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