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रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2085
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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में गोस्वामी जी इस मनोहारी राम कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।


शिवजी की विचित्र बारात और विवाह की तैयारी



पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही ।
गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही॥
जाइ बिधिहि तिन्ह दीन्हि सो पाती ।
बाचत प्रीति न हृदयँ समाती॥

फिर हिमाचल ने वह लग्नपत्रिका सप्तर्षियों को दे दी और चरण पकड़कर उनकी विनती की। उन्होंने जाकर वह लग्नपत्रिका ब्रह्माजी को दी। उसको पढ़ते समय उनके हृदयमें प्रेम समाता न था ॥३॥

लगन बाचि अज सबहि सुनाई।
हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥
सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे ।
मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे॥


ब्रह्माजीने लग्न पढ़कर सबको सुनाया, उसे सुनकर सब मुनि और देवताओंका सारा समाज हर्षित हो गया। आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी, बाजे बजने लगे और दसों दिशाओं में मङ्गल-कलश सजा दिये गये ॥ ४॥

दो०- लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥९१॥


सब देवता अपने भाँति-भाँतिके वाहन और विमान सजाने लगे, कल्याणप्रद मङ्गल शकुन होने लगे और अप्सराएँ गाने लगीं ॥ ९१ ॥

सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा ।
जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
कुंडल कंकन पहिरे ब्याला ।
तन बिभूति पट केहरि छाला॥



शिवजीके गण शिवजीका शृङ्गार करने लगे। जटाओंका मुकुट बनाकर उसपर साँपोंका मौर सजाया गया। शिवजीने साँपोंके ही कुण्डल और कङ्कण पहने, शरीरपर विभूति रमायी और वस्त्रकी जगह बाघम्बर लपेट लिया ॥१॥

ससि ललाट सुंदर सिर गंगा ।
नयन तीनि उपबीत भुजंगा।
गरल कंठ उर नर सिर माला ।
असिव बेष सिवधाम कृपाला॥


शिवजीके सुन्दर मस्तकपर चन्द्रमा, सिरपर गङ्गाजी, तीन नेत्र, साँपोंका जनेऊ, गलेमें विष और छातीपर नरमुण्डोंकी माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होनेपर भी वे कल्याणके धाम और कृपालु हैं ॥ २॥

कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा ।
चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा ।।
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं ।
बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥


एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू सुशोभित है। शिवजी बैलपर चढ़कर चले। बाजे बज रहे हैं। शिवजीको देखकर देवाङ्गनाएँ मुसकरा रही हैं [और कहती हैं कि] इस वरके योग्य दुलहिन संसारमें नहीं मिलेगी॥३॥

बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता ।
चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥
सुर समाज सब भाँति अनूपा ।
नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥


विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों (सवारियों) पर चढ़कर बरातमें चले। देवताओंका समाज सब प्रकारसे अनुपम (परम सुन्दर) था, पर दूल्हेके योग्य बरात न थी॥४॥

दो०- बिष्णु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।
बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज ॥९२॥


तब विष्णुभगवानने सब दिक्पालोंको बुलाकर हँसकर ऐसा कहा-सब लोग अपने-अपने दलसमेत अलग-अलग होकर चलो।।९२॥

बर अनुहारि बरात न भाई ।
हँसी करैहहु पर पुर जाई॥
बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने ।
निज निज सेन सहित बिलगाने॥


हे भाई! हमलोगोंकी यह बरात वरके योग्य नहीं है। क्या पराये नगरमें जाकर हँसी कराओगे? विष्णुभगवानकी बात सुनकर देवता मुसकराये और वे अपनी-अपनी सेनासहित अलग हो गये॥१॥

मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं ।
हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥
अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे ।
गिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥


महादेवजी [यह देखकर] मन-ही-मन मुसकराते हैं कि विष्णुभगवानके व्यङ्ग्य वचन (दिल्लगी) नहीं छूटते। अपने प्यारे (विष्णुभगवान) के इन अति प्रिय वचनोंको सुनकर शिवजीने भी भृङ्गीको भेजकर अपने सब गणोंको बुलवा लिया॥२॥

सिव अनुसासन सुनि सब आए ।
प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥
नाना बाहन नाना बेषा ।
बिहसे सिव समाज निज देखा।


शिवजीकी आज्ञा सुनते ही सब चले आये और उन्होंने स्वामीके चरणकमलोंमें सिर नवाया। तरह-तरहकी सवारियों और तरह-तरहके वेषवाले अपने समाजको देखकर शिवजी हँसे॥३॥

कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू ।
बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना ।
रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥


कोई बिना मुखका है, किसीके बहुत-से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैरका है तो किसीके कई हाथ-पैर हैं। किसीके बहुत आँखें हैं तो किसीके एक भी आँख नहीं है। कोई बहुत मोटा-ताजा है तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है॥४॥

छं०-तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।
भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें।
खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।
बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥


कोई बहुत दुबला, कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किये हुए है। भयङ्कर गहने पहने, हाथमें कपाल लिये हैं और सब-के-सब शरीरमें ताजा खून लपेटे हुए हैं। गधे, कुत्ते, सूअर और सियारके-से उनके मुख हैं। गणोंके अनगिनत वेषोंको कौन गिने? बहुत प्रकारके प्रेत, पिशाच और योगिनियोंकी जमातें हैं। उनका वर्णन करते नहीं बनता।

सो०- नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब।
देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥९३॥

भूत-प्रेत नाचते और गाते हैं, वे सब बड़े मौजी हैं। देखनेमें बहुत ही बेढंगे जान पड़ते हैं और बड़े ही विचित्र ढंगसे बोलते हैं । ९३ ॥

जस दूलहु तसि बनी बराता ।
कौतुक बिबिध होहिं मग जाता।
इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना ।
अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥

जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बरात बन गयी है। मार्गमें चलते हुए भाँति-भाँतिके कौतुक (तमाशे) होते जाते हैं। इधर हिमाचलने ऐसा विचित्र मण्डप बनाया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता ।।१।।

सैल सकल जहँ लगि जग माहीं ।
लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं।।
बन सागर सब नदी तलावा ।
हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा।

जगतमें जितने छोटे-बड़े पर्वत थे, जिनका वर्णन करके पार नहीं मिलता तथा जितने वन, समुद्र, नदियाँ और तालाब थे, हिमाचलने सबको नेवता भेजा ॥२॥

कामरूप सुंदर तन धारी ।
सहित समाज सहित बर नारी॥
गए सकल तुहिनाचल गेहा ।
गावहिं मंगल सहित सनेहा॥


वे सब अपने इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले सुन्दर शरीर धारणकर सुन्दरी स्त्रियों और समाजोंके साथ हिमाचलके घर गये। सभी स्नेहसहित मङ्गलगीत गाते हैं।। ३ ।।

प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए ।
जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए।
पुर सोभा अवलोकि सुहाई ।
लागइ लघु बिरंचि निपुनाई।


हिमाचलने पहलेहीसे बहुत-से घर सजवा रखे थे। यथायोग्य उन-उन स्थानोंमें सब लोग उतर गये। नगरकी सुन्दर शोभा देखकर ब्रह्माकी रचना-चातुरी भी तुच्छ लगती थी॥४॥

छं०- लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।
बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही।
मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं।
बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं।

नगरकी शोभा देखकर ब्रह्माकी निपुणता सचमुच तुच्छ लगती है। वन, बाग, कुएँ, तालाब, नदियाँ सभी सुन्दर हैं, उनका वर्णन कौन कर सकता है? घर-घर बहुत से मङ्गलसूचक तोरण और ध्वजा-पताकाएँ सुशोभित हो रही हैं। वहाँके सुन्दर और चतुर स्त्री-पुरुषोंकी छबि देखकर मुनियोंके भी मन मोहित हो जाते हैं।

दो०- जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ।
रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ॥९४॥


जिस नगरमें स्वयं जगदम्बाने अवतार लिया, क्या उसका वर्णन हो सकता है? वहाँ ऋद्धि, सिद्धि, सम्पत्ति और सुख नित-नये बढ़ते जाते हैं । ९४ ।।

नगर निकट बरात सुनि आई।
पुर खरभरु सोभा अधिकाई।
करि बनाव सजि बाहन नाना ।
चले लेन सादर अगवाना।

बरातको नगरके निकट आयी सुनकर नगरमें चहल-पहल मच गयी, जिससे उसकी शोभा बढ़ गयी। अगवानी करनेवाले लोग बनाव-श्रृंगार करके तथा नाना प्रकारको सवारियोंको सजाकर आदरसहित बरातको लेने चले॥१॥

हिय हरषे सुर सेन निहारी ।
हरिहि देखि अति भए सुखारी॥
सिव समाज जब देखन लागे ।
बिडरि चले बाहन सब भागे॥


देवताओके समाजको देखकर सब मनमें प्रसन्न हुए और विष्णुभगवान को देखकर तो बहुत ही सुखी हुए। किन्तु जब शिवजीके दलको देखने लगे तब तो उनके सब वाहन (सवारियोंके हाथी, घोड़े, रथके बैल आदि) डरकर भाग चले॥२॥

धरि धीरजु तह रहे सयाने ।
बालक सब लै जीव पराने॥
गएँ भवन पूछहिं पितु माता।
कहहिं बचन भय कंपित गाता॥


कुछ बड़ी उम्रके समझदार लोग धीरज धरकर वहाँ डटे रहे। लड़के तो सब अपने प्राण लेकर भागे। घर पहुँचनेपर जब माता-पिता पूछते हैं, तब वे भय से काँपते हुए शरीर से ऐसा वचन कहते हैं- ॥३॥

कहिअ काह कहि जाइ न बाता।
जम कर धार किधौं बरिआता॥
बरु बौराह बसहँ असवारा ।
ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥


क्या कहें, कोई बात कही नहीं जाती। यह बरात है या यमराजकी सेना? दूल्हा पागल है और बैलपर सवार है। साँप, कपाल और राख ही उसके गहने हैं ॥४॥

छं०-तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।
सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥
जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही।
देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही।


दूल्हेके शरीरपर राख लगी है, साँप और कपालके गहने हैं; वह नङ्गा, जटाधारी और भयङ्कर है। उसके साथ भयानक मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं। जो बरातको देखकर जीता बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पुण्य हैं, और वही पार्वतीका विवाह देखेगा। लड़कोंने घर-घर यही बात कही।

दो०- समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं।
बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥९५॥


महेश्वर (शिवजी) का समाज समझकर सब लड़कोंके माता-पिता मुसकराते हैं। उन्होंने बहुत तरह से लड़कों को समझाया कि निडर हो जाओ, डरकी कोई बात नहीं है ॥ ९५ ॥

लै अगवान बरातहि आए ।
दिए सबहि जनवास सुहाए।
मैनाँ सुभ आरती सँवारी ।
संग सुमंगल गावहिं नारी॥

अगवान लोग बरात को लिवा लाये, उन्होंने सबको सुन्दर जनवासे ठहरनेको दिये। मैना (पार्वतीजीकी माता) ने शुभ आरती सजायी और उनके साथकी स्त्रियाँ उत्तम मङ्गलगीत गाने लगीं ॥१॥

कंचन थार सोह बर पानी ।
परिछन चली हरहि हरषानी॥
बिकट बेष रुद्रहि जब देखा ।
अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा।

सुन्दर हाथोंमें सोनेका थाल शोभित है, इस प्रकार मैना हर्षके साथ शिवजीका परछन करने चलीं। जब महादेवजीको भयानक वेषमें देखा तब तो स्त्रियोंके मनमें बड़ा भारी भय उत्पन्न हो गया॥२॥

भागि भवन पैठीं अति त्रासा ।
गए महेसु जहाँ जनवासा ।।
मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी ।
लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी॥


बहुत ही डरके मारे भागकर वे घरमें घुस गयीं और शिवजी जहाँ जनवासा था, वहाँ चले गये। मैनाके हृदयमें बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने पार्वतीजीको अपने पास बुला लिया॥३॥

अधिक सनेहँ गोद बैठारी ।
स्याम सरोज नयन भरे बारी॥
जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा ।
तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा॥

और अत्यन्त स्नेहसे गोदमें बैठाकर अपने नील कमलके समान नेत्रोंमें आँसू भरकर कहा-जिस विधाता ने तुम को ऐसा सुन्दर रूप दिया, उस मूर्ख ने तुम्हारे दूल्हे को बावला कैसे बनाया? ॥ ४॥

छं०-कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई।
जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई।
तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं।
घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं।

जिस विधाताने तुमको सुन्दरता दी, उसने तुम्हारे लिये वर बावला कैसे बनाया? जो फल कल्पवृक्षमें लगना चाहिये, वह जबर्दस्ती बबूलमें लग रहा है। मैं तुम्हें लेकर पहाड़से गिर पड़ेंगी, आगमें जल जाऊँगी या समुद्रमें कूद पगी। चाहे घर उजड़ जाय और संसारभरमें अपकीर्ति फैल जाय, पर जीते-जी मैं इस बावले वरसे तुम्हारा विवाह न करूँगी।

दो०- भई बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि।
करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥९६॥

हिमाचलकी स्त्री (मैना) को दुःखी देखकर सारी स्त्रियाँ व्याकुल हो गयीं। मैना अपनी कन्याके स्नेहको याद करके विलाप करती, रोती और कहती थीं- ॥९६ ॥

नारद कर मैं काह बिगारा ।
भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥
अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा ।
बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा॥


मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया और जिन्होंने पार्वतीको ऐसा उपदेश दिया कि जिससे उसने बावले वरके लिये तप किया॥१॥

साचेहुँ उन्ह के मोह न माया।
उदासीन धनु धामु न जाया।
पर घर घालक लाज न भीरा ।
बाँझ कि जान प्रसव कै पीरा।।

सचमुच उनके न किसीका मोह है, न माया, न उनके धन है, न घर है और न स्त्री ही है; वे सबसे उदासीन हैं। इसीसे वे दूसरेका घर उजाड़नेवाले हैं। उन्हें न किसीकी लाज है, न डर है। भला, बाँझ स्त्री प्रसवकी पीड़ाको क्या जाने?॥२॥

जननिहि बिकल बिलोकि भवानी ।
बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥
अस बिचारि सोचहि मति माता ।
सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥


माताको विकल देखकर पार्वतीजी विवेकयुक्त कोमल वाणी बोलीं-हे माता! जो विधाता रच देते हैं, वह टलता नहीं; ऐसा विचारकर तुम सोच मत करो! ॥३॥

करम लिखा जौं बाउर नाहू ।
तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥
तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका ।
मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥


जो मेरे भाग्य में बावला ही पति लिखा है तो किसीको क्यों दोष लगाया जाय? हे माता! क्या विधाताके अङ्क तुमसे मिट सकते हैं ? वृथा कलङ्कका टीका मत लो॥४॥

छं०-जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं।
दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं।
सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं।
बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं।


हे माता! कलङ्क मत लो, रोना छोड़ो, यह अवसर विषाद करनेका नहीं है। मेरे भाग्यमें जो दुःख-सुख लिखा है, उसे मैं जहाँ जाऊँगी, वहीं पाऊँगी! पार्वतीजीके ऐसे विनयभरे कोमल वचन सुनकर सारी स्त्रियाँ सोच करने लगीं और भाँति-भाँतिसे विधाताको दोष देकर आँखोंसे आँसू बहाने लगीं।

दो०- तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।
समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥९७॥

इस समाचारको सुनते ही हिमाचल उसी समय नारदजी और सप्तर्षियोंको साथ लेकर अपने घर गये ॥९७॥
तब नारद सबही समुझावा।
पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा॥
मयना सत्य सुनहु मम बानी ।
जगदंबा तव सुता भवानी॥


तब नारदजीने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया और कहा कि हे मैना! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लड़की साक्षात् जगजननी भवानी है ॥१॥

अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि ।
सदा संभु अरधंग निवासिनि॥
जग संभव पालन लय कारिनि ।
निज इच्छा लीला बपु धारिनि।

ये अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शक्ति हैं। सदा शिवजीके अर्धाङ्गमें रहती हैं। ये जगतकी उत्पत्ति, पालन और संहार करनेवाली हैं; और अपनी इच्छासे ही लीला-शरीर धारण करती हैं ॥ २ ॥

जनमी प्रथम दच्छ गृह जाई ।
नामु सती सुंदर तनु पाई॥
तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं ।
कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं।


पहले ये दक्षके घर जाकर जन्मी थीं, तब इनका सती नाम था, बहुत सुन्दर शरीर पाया था। वहाँ भी सती शङ्करजीसे ही ब्याही गयी थीं। यह कथा सारे जगतमें प्रसिद्ध है ॥ ३ ॥

एक बार आवत सिव संगा।
देखेउ रघुकुल कमल पतंगा।
भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा ।
भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा॥


एक बार इन्होंने शिवजीके साथ आते हुए [राहमें] रघुकुलरूपी कमलके सूर्य श्रीरामचन्द्रजीको देखा, तब इन्हें मोह हो गया और इन्होंने शिवजीका कहना न मानकर भ्रमवश सीताजीका वेष धारण कर लिया।। ४॥

छं०-सिय बेषु सती जो कीन्ह तेहिं अपराध संकर परिहरीं।
हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरी॥
अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।
अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकरप्रिया॥


सतीजी ने जो सीता का वेष धारण किया, उसी अपराध के कारण शङ्करजी ने उनको त्याग दिया। फिर शिवजी के वियोग में ये अपने पिताके यज्ञमें जाकर वहीं योगाग्निसे भस्म हो गयीं। अब इन्होंने तुम्हारे घर जन्म लेकर अपने पतिके लिये कठिन तप किया है ऐसा जानकर सन्देह छोड़ दो, पार्वतीजी तो सदा ही शिवजीकी प्रिया (अर्धाङ्गिनी) हैं।

दो०- सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।
छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद॥९८॥

तब नारदके वचन सुनकर सबका विषाद मिट गया और क्षणभरमें यह समाचार सारे नगरमें घर-घर फैल गया॥९८॥

तब मयना हिमवंतु अनंदे ।
पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने ।
नगर लोग सब अति हरषाने॥

तब मैना और हिमवान आनन्दमें मग्न हो गये और उन्होंने बार-बार पार्वतीके चरणोंकी वन्दना की। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध नगरके सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए ॥१॥

लगे होन पुर मंगल गाना ।
सजे सबहिं हाटक घट नाना॥
भाँति अनेक भई जेवनारा ।
सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥

नगरमें मङ्गलगीत गाये जाने लगे और सबने भाँति-भांतिके सुवर्णके कलश सजाये। पाकशास्त्रमें जैसी रीति है, उसके अनुसार अनेक भांतिकी ज्योनार हुई (रसोई बनी) ॥२॥

सो जेवनार कि जाइ बखानी ।
बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥
सादर बोले सकल बराती ।
बिनु बिरंचि देव सब जाती।


जिस घरमें स्वयं माता भवानी रहती हों, वहाँकी ज्योनार (भोजनसामग्री) का वर्णन कैसे किया जा सकता है ? हिमाचलने आदरपूर्वक सब बरातियोंको-विष्णु, ब्रह्मा और सब जातिके देवताओंको बुलवाया॥३॥

बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा ।
लागे परुसन निपुन सुआरा॥
नारिबंद सुर जेवत जानी।
लगीं देन गारी मृदु बानी।।


भोजन [करनेवालों] की बहुत-सी पङ्गतें बैठीं। चतुर रसोइये परोसने लगे। स्त्रियोंकी मण्डलियाँ देवताओंको भोजन करते जानकर कोमल वाणीसे गालियाँ देने लगीं ॥४॥

छं०-गारी मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं।
भोजन करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
जेवत जो बढ्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कयो।
अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रहयो।


सब सुन्दरी स्त्रियाँ मीठे स्वरमें गालियाँ देने लगीं और व्यंग्यभरे वचन सुनाने लगीं। देवगण विनोद सुनकर बहुत सुख अनुभव करते हैं, इसलिये भोजन करने में बड़ी देर लगा रहे हैं। भोजनके समय जो आनन्द बढ़ा, वह करोड़ों मुँहसे भी नहीं कहा जा सकता। [भोजन कर चुकनेपर] सबके हाथ-मुँह धुलवाकर पान दिये गये। फिर सब लोग, जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गये।

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