मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड) रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में गोस्वामी जी इस मनोहारी राम कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।
देवताओं का शिवजी से ब्याह के लिए प्रार्थना करना, सप्तर्षियों का पार्वती के पास जाना
यह उत्सव देखिअ भरि लोचन ।
सोइ कछु करहु मदन मद मोचन॥
कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा ।
कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा॥
सोइ कछु करहु मदन मद मोचन॥
कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा ।
कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा॥
हे कामदेव के मद को चूर करनेवाले! आप ऐसा कुछ कीजिये जिससे सब लोग इस उत्सवको नेत्र भरकर देखें। हे कृपाके सागर! कामदेव को भस्म करके आपने रतिको जो वरदान दिया सो बहत ही अच्छा किया ।।१।।
सासति करि पुनि करहिं पसाऊ ।
नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥
पारबती तपु कीन्ह अपारा ।
करहु तासु अब अंगीकारा॥
नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥
पारबती तपु कीन्ह अपारा ।
करहु तासु अब अंगीकारा॥
हे नाथ! श्रेष्ठ स्वामियोंका यह सहज स्वभाव ही है कि वे पहले दण्ड देकर फिर कृपा किया करते हैं। पार्वतीने अपार तप किया है, अब उन्हें अङ्गीकार कीजिये ॥२॥
सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी ।
ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥
तब देवन्ह दुंदुभी बजाईं।
बरषि सुमन जय जय सुर साईं।
ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥
तब देवन्ह दुंदुभी बजाईं।
बरषि सुमन जय जय सुर साईं।
ब्रह्माजीकी प्रार्थना सुनकर और प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके वचनोंको याद करके शिवजीने प्रसन्नतापूर्वक कहा-'ऐसा ही हो।' तब देवताओंने नगाड़े बजाये और फूलोंकी वर्षा करके 'जय हो! देवताओंके स्वामीकी जय हो!' ऐसा कहने लगे ॥३॥
अवसरु जानि सप्तरिषि आए ।
तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए।
प्रथम गए जहँ रहीं भवानी ।
बोले मधुर बचन छल सानी।।
उचित अवसर जानकर सप्तर्षि आये और ब्रह्माजीने तुरंत ही उन्हें हिमाचलके घर भेज
दिया। वे पहले वहाँ गये जहाँ पार्वतीजी थीं और उनसे छलसे भरे मीठे (विनोदयुक्त,
आनन्द पहुँचानेवाले) वचन बोले---- ॥ ४॥ तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए।
प्रथम गए जहँ रहीं भवानी ।
बोले मधुर बचन छल सानी।।
दो०- कहा हमार न सुनेहु तब नारद के उपदेस।
अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस ॥८९।।
अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस ॥८९।।
नारदजीके उपदेशसे तुमने उस समय हमारी बात नहीं सुनी। अब तो तुम्हारा प्रण झूठा हो गया, क्योंकि महादेवजीने कामको ही भस्म कर डाला ॥ ८९ ॥
मासपारायण, तीसरा विश्राम
सुनि बोली मुसुकाइ भवानी।
उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥
तुम्हरें जान कामु अब जारा।
अब लगि संभु रहे सबिकारा॥
उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥
तुम्हरें जान कामु अब जारा।
अब लगि संभु रहे सबिकारा॥
यह सुनकर पार्वतीजी मुसकराकर बोलीं-हे विज्ञानी मुनिवरो! आपने उचित ही कहा। आपकी समझमें शिवजीने कामदेवको अब जलाया है, अबतक तो वे विकारयुक्त (कामी) ही रहे ! ॥१॥
हमरें जान सदा सिव जोगी।
अज अनवद्य अकाम अभोगी॥
जौं मैं सिव सेये अस जानी।
प्रीति समेत कर्म मन बानी॥
अज अनवद्य अकाम अभोगी॥
जौं मैं सिव सेये अस जानी।
प्रीति समेत कर्म मन बानी॥
किन्तु हमारी समझसे तो शिवजी सदासे ही योगी, अजन्मा, अनिन्द्य, कामरहित और भोगहीन हैं और यदि मैंने शिवजीको ऐसा समझकर ही मन, वचन और कर्मसे प्रेमसहित उनकी सेवा की है--- ॥२॥
तौ हमार पन सुनहु मुनीसा ।
करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा।।
तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा ।
सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा॥
करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा।।
तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा ।
सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा॥
तो हे मुनीश्वरो! सुनिये, वे कृपानिधान भगवान मेरी प्रतिज्ञाको सत्य करेंगे। आपने जो यह कहा कि शिवजीने कामदेवको भस्म कर दिया, यही आपका बड़ा भारी अविवेक है॥३॥
तात अनल कर सहज सुभाऊ ।
हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥
गएँ समीप सो अवसि नसाई ।
असि मन्मथ महेस की नाई॥
हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥
गएँ समीप सो अवसि नसाई ।
असि मन्मथ महेस की नाई॥
हे तात! अनिका तो यह सहज स्वभाव ही है कि पाला उसके समीप कभी जा ही नहीं सकता और जानेपर वह अवश्य नष्ट हो जायगा। महादेवजी और कामदेवके सम्बन्धमें भी यही न्याय (बात) समझना चाहिये ॥४॥
दो०- हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास।
चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास ॥९०॥
चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास ॥९०॥
पार्वतीके वचन सुनकर और उनका प्रेम तथा विश्वास देखकर मुनि हृदयमें बड़े प्रसन्न हुए। वे भवानीको सिर नवाकर चल दिये और हिमाचलके पास पहुँचे ॥९०॥
सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा ।
मदन दहन सुनि अति दुखु पावा।।
बहुरि कहेउ रति कर बरदाना ।
सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥
मदन दहन सुनि अति दुखु पावा।।
बहुरि कहेउ रति कर बरदाना ।
सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥
उन्होंने पर्वतराज हिमाचलको सब हाल सुनाया। कामदेवका भस्म होना सुनकर हिमाचल बहुत दु:खी हुए। फिर मुनियोंने रतिके वरदानकी बात कही, उसे सुनकर हिमवानने बहुत सुख माना ॥१॥
हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। स
ादर मुनिबर लिए बोलाई॥
सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई।
बेगि बेदबिधि लगन धराई।
ादर मुनिबर लिए बोलाई॥
सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई।
बेगि बेदबिधि लगन धराई।
शिवजीके प्रभावको मनमें विचारकर हिमाचलने श्रेष्ठ मुनियोंको आदरपूर्वक बुला लिया और उनसे शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और शुभ घड़ी शोधवाकर वेदकी विधिके अनुसार शीघ्र ही लग्न निश्चय कराकर लिखवा लिया।॥ २॥
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