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रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2085
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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में गोस्वामी जी इस मनोहारी राम कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।


श्रीराम-लक्ष्मण और परशुराम-संवाद



खरभरु देखि बिकल पुर नारी ।
सब मिलि देहिं महीपन्ह गारी॥
तेहिं अवसर सुनि सिवधनु भंगा ।
आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥


खलबली देखकर जनकपुरकी स्त्रियाँ व्याकुल हो गयीं और सब मिलकर राजाओंको गालियाँ देने लगीं। उसी मौकेपर शिवजीके धनुषका टूटना सुनकर भृगुकुलरूपी कमलके सूर्य परशुरामजी आये॥१॥

देखि महीप सकल सकुचाने ।
बाज झपट जनु लवा लुकाने॥
गौरि सरीर भूति भल भ्राजा ।
भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा।

इन्हें देखकर सब राजा सकुचा गये, मानो बाजके झपटनेपर बटेर लुक (छिप) गये हों। गोरे शरीरपर विभूति (भस्म) बड़ी फब रही है और विशाल ललाटपर त्रिपुण्ड्र विशेष शोभा दे रहा है ॥२॥

सीस जटा ससिबदनु सुहावा ।
रिसबस कछुक अरुन होइ आवा॥
भृकुटी कुटिल नयन रिस राते ।
सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥


सिरपर जटा है, सुन्दर मुखचन्द्र क्रोधके कारण कुछ लाल हो आया है। भौंहें टेढ़ी और आँखें क्रोधसे लाल हैं । सहज ही देखते हैं, तो भी ऐसा जान पड़ता है मानो क्रोध कर रहे हैं ॥३॥

बृषभ कंध उर बाहु बिसाला ।
चारु जनेउ माल मृगछाला॥
कटि मुनिबसन तून दुइ बाँधे ।
धनु सर कर कुठारु कल काँधे॥


बैलके समान (ऊँचे और पुष्ट) कंधे हैं; छाती और भुजाएँ विशाल हैं। सुन्दर यज्ञोपवीत धारण किये, माला पहने और मृगचर्म लिये हैं। कमरमें मुनियोंका वस्त्र (वल्कल) और दो तरकस बाँधे हैं। हाथमें धनुष-बाण और सुन्दर कंधेपर फरसा धारण किये हैं ॥४॥

दो०- सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरूप।
धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥ २६८॥


शान्त वेष है, परन्तु करनी बहुत कठोर है; स्वरूपका वर्णन नहीं किया जा सकता। मानो वीर-रस ही मुनिका शरीर धारण करके, जहाँ सब राजालोग हैं वहाँ आ गया हो। २६८॥



देखत भगपति बेष कराला ।
उठे सकल भय बिकल भआला॥
पितु समेत कहि कहि निज नामा ।
लगे करन सब दंड प्रनामा॥


परशुरामजीका भयानक वेष देखकर सब राजा भयसे व्याकुल हो उठ खड़े हुए और पितासहित अपना नाम कह-कहकर सब दण्डवत्-प्रणाम करने लगे॥१॥

जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी ।
सो जानइ जनु आइ खुटानी।
जनक बहोरि आइ सिरु नावा ।
सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥


परशरामजी हित समझकर भी सहज ही जिसकी ओर देख लेते हैं, वह समझता है मानो मेरी आयु पूरी हो गयी। फिर जनकजीने आकर सिर नवाया और सीताजीको बुलाकर प्रणाम कराया ॥ २ ॥

आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं ।
निज समाज लै गईं सयानीं।
बिस्वामित्रु मिले पुनि आई।
पद सरोज मेले दोउ भाई॥


परशुरामजीने सीताजीको आशीर्वाद दिया। सखियाँ हर्षित हुईं और [वहाँ अब अधिक देर ठहरना ठीक न समझकर] वे सयानी सखियाँ उनको अपनी मण्डलीमें ले गयीं। फिर विश्वामित्रजी आकर मिले और उन्होंने दोनों भाइयोंको उनके चरणकमलोंपर गिराया॥३॥

रामु लखनु दसरथ के ढोटा।
दीन्हि असीस देखि भल जोटा।
रामहि चितइ रहे थकि लोचन ।
रूप अपार मार मद मोचन।


[विश्वामित्रजीने कहा-] ये राम और लक्ष्मण राजा दशरथके पुत्र हैं। उनकी सुन्दर जोड़ी देखकर परशुरामजी ने आशीर्वाद दिया। कामदेव के भी मदको छुड़ानेवाले श्रीरामचन्द्रजी के अपार रूप को देखकर उनके नेत्र थकित (स्तम्भित) हो रहे ॥४॥

दो०- बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर।
पूँछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर॥२६९॥

फिर सब देखकर, जानते हुए भी अनजान की तरह जनकजी से पूछते हैं कि कहो, यह बड़ी भारी भीड़ कैसी है ? उनके शरीरमें क्रोध छा गया।। २६९ ॥
समाचार कहि जनक सुनाए ।
जेहि कारन महीप सब आए।
सुनत बचन फिरि अनत निहारे ।
देखे चापखंड महि डारे।।


जिस कारण सब राजा आये थे, राजा जनक ने वे सब समाचार कह सुनाये। जनक के वचन सुनकर परशुरामजी ने फिरकर दूसरी ओर देखा तो धनुष के टुकड़े पृथ्वी पर पड़े हुए दिखायी दिये ॥१॥

अति रिस बोले बचन कठोरा ।
कहु जड़ जनक धनुष के तोरा॥
बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू ।
उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥


अत्यन्त क्रोधमें भरकर वे कठोर वचन बोले-रे मूर्ख जनक! बता, धनुष किसने तोड़ा? उसे शीघ्र दिखा, नहीं तो अरे मूढ़ ! आज मैं जहाँतक तेरा राज्य है, वहाँतककी पृथ्वी उलट दूंगा॥२॥

अति डर उतरु देत नृपु नाहीं ।
कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥
सुर मुनि नाग नगर नर नारी ।
सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥


राजाको अत्यन्त डर लगा, जिसके कारण वे उत्तर नहीं देते। यह देखकर कुटिल राजा मनमें बड़े प्रसन्न हुए। देवता, मुनि, नाग और नगरके स्त्री-पुरुष सभी सोच करने लगे, सबके हृदयमें बड़ा भय है ॥३॥

मन पछिताति सीय महतारी ।
बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥
भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता ।
अरध निमेष कलप सम बीता।


सीताजीकी माता मनमें पछता रही हैं कि हाय! विधाताने अब बनी-बनायी बात बिगाड़ दी। परशुरामजीका स्वभाव सुनकर सीताजीको आधा क्षण भी कल्पके समान बीतने लगा।॥ ४॥

दो०- सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु॥२७०॥


तब श्रीरामचन्द्रजी सब लोगोंको भयभीत देखकर और सीताजीको डरी हुई जानकर बोले-उनके हृदयमें न कुछ हर्ष था, न विषाद-- ॥ २७० ॥

मासपारायण, नवाँ विश्राम

नाथ संभुधनु भंजनिहारा ।
होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयसु काह कहिअ किन मोही।
सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥


हे नाथ! शिवजीके धनुषको तोड़नेवाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर क्रोधी मुनि रिसाकर बोले- ॥१॥

सेवकु सो जो करै सेवकाई।
अरि करनी करि करिअ लराई।
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा ।
सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥


सेवक वह है जो सेवाका काम करे। शत्रुका काम करके तो लड़ाई ही करनी चाहिये। हे राम! सुनो, जिसने शिवजीके धनुषको तोड़ा है, वह सहस्रबाहुके समान मेरा शत्रु है ॥२॥

सो बिलगाउ बिहाइ समाजा।
न त मारे जैहहिं सब राजा।।
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने ।
बोले परसुधरहि अपमाने॥


वह इस समाजको छोड़कर अलग हो जाय, नहीं तो सभी राजा मारे जायंगे। मुनिके वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुसकराये और परशुरामजीका अपमान करते हुए बोले- ॥३॥

बहु धनुहीं तोरी लरिकाईं।
कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
एहि धनु पर ममता केहि हेतू ।
सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥

हे गोसाईं ! लड़कपनमें हमने बहुत-सी धनुहियाँ तोड़ डालीं। किन्तु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुषपर इतनी ममता किस कारणसे है ? यह सुनकर भृगुवंशकी ध्वजास्वरूप परशुरामजी कुपित होकर कहने लगे- ॥४॥

दो०- रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥२७१ ।।


अरे राजपुत्र! कालके वश होनेसे तुझे बोलने में कुछ भी होश नहीं है। सारे संसार में विख्यात शिवजीका यह धनुष क्या धनुही के समान है ? ।। २७१ ॥



लखन कहा हँसि हमरें जाना ।
सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जून धनु तोरें।
देखा राम नयन के भोरें॥

लक्ष्मणजीने हँसकर कहा-हे देव! सुनिये, हमारे जानमें तो सभी धनुष एक से ही हैं। पुराने धनुषके तोड़ने में क्या हानि-लाभ! श्रीरामचन्द्रजीने तो इसे नवीनके धोखेसे देखा था॥१॥

छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू ।
मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥
बोले चितइ परसु की ओरा ।
रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥


फिर यह तो छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजीका भी कोई दोष नहीं है। मुनि! आप बिना ही कारण किसलिये क्रोध करते हैं ? परशुरामजी अपने फरसेकी ओर देखकर बोले-अरे दुष्ट ! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना ॥२॥

बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही ।
केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥
बाल ब्रह्मचारी अति कोही ।
बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥

मैं तुझे बालक जानकर नहीं मारता हूँ। अरे मूर्ख! क्या तू मुझे निरा मुनि ही जानता है ? मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूँ। क्षत्रियकुलका शत्रु तो विश्वभरमें विख्यात हूँ॥३॥

भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही ।
बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहु भुज छेदनिहारा ।
परसु बिलोकु महीपकुमारा॥

अपनी भुजाओंके बलसे मैंने पृथ्वीको राजाओंसे रहित कर दिया और बहुत बार उसे ब्राह्मणोंको दे डाला। हे राजकुमार! सहस्रबाहुकी भुजाओंको काटनेवाले मेरे इस फरसेको देख!॥४॥

दो०- मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥२७२॥

अरे राजाके बालक! तू अपने माता-पिताको सोचके वश न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक है, यह गर्भोके बच्चोंका भी नाश करनेवाला है ॥ २७२॥

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी।
अहो मुनीसु महा भटमानी॥
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू ।
चहत उड़ावन फूंकि पहारू।


लक्ष्मणजी हँसकर कोमल वाणीसे बोले-अहो, मुनीश्वर तो अपनेको बड़ा भारी योद्धा समझते हैं। बार-बार मुझे कुल्हाड़ी दिखाते हैं। फूंकसे पहाड़ उड़ाना चाहते हैं ॥ १॥

इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं ।
जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
देखि कुठारु सरासन बाना ।
मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥


यहाँ कोई कुम्हड़ेकी बतिया (छोटा कच्चा फल) नहीं है, जो तर्जनी (सबसे आगेकी) उँगलीको देखते ही मर जाती हैं। कुठार और धनुष-बाण देखकर ही मैंने कुछ अभिमानसहित कहा था ॥२॥

भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी ।
जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी।
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई।
हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥


भृगुवंशी समझकर और यज्ञोपवीत देखकर तो जो कुछ आप कहते हैं, उसे मैं क्रोधको रोककर सह लेता हूँ। देवता, ब्राह्मण, भगवानके भक्त और गौ-इनपर हमारे कुलमें वीरता नहीं दिखायी जाती ॥३॥

बधे पापु अपकीरति हारें।
मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें॥
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा ।
ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥

 
क्योंकि इन्हें मारनेसे पाप लगता है और इनसे हार जानेपर अपकीर्ति होती है। इसलिये आप मारें तो भी आपके पैर ही पड़ना चाहिये। आपका एक-एक वचन ही करोड़ों वज्रोंके समान है। धनुष-बाण और कुठार तो आप व्यर्थ ही धारण करते हैं ॥४॥

दो०- जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर॥२७३॥


इन्हें (धनुष-बाण और कुठारको) देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो, तो उसे हे धीर महामुनि! क्षमा कीजिये। यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुरामजी क्रोधके साथ गम्भीर वाणी बोले- ॥ २७३॥



कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु ।
कुटिल कालबस निज कुल घालकु॥
भानु बंस राकेस कलंकू।
निपट निरंकुस अबुध असंकू॥


हे विश्वामित्र! सुनो, यह बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है, कालके वश होकर यह अपने कुलका घातक बन रहा है। यह सूर्यवंशरूपी पूर्णचन्द्रका कलङ्क है। यह बिलकुल उद्दण्ड, मूर्ख और निडर है ॥१॥

काल कवलु होइहि छन माहीं ।
कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
तुम्ह हटकहु जौं चहहु उबारा ।
कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥


अभी क्षणभरमें यह कालका ग्रास हो जायगा। मैं पुकारकर कहे देता हूँ, फिर मुझे दोष नहीं है। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलाकर इसे मना कर दो ॥२॥

लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा ।
तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी ।
बार अनेक भाँति बहु बरनी॥


लक्ष्मणजीने कहा-हे मुनि! आपका सुयश आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है ? आपने अपने ही मुँहसे अपनी करनी अनेकों बार बहुत प्रकारसे वर्णन की है॥३॥

नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू ।
जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा ।
गारी देत न पावहु सोभा॥

इतनेपर भी सन्तोष न हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिये। क्रोध रोककर असह्य दुःख मत सहिये। आप वीरताका व्रत धारण करनेवाले, धैर्यवान् और क्षोभरहित हैं। गाली देते शोभा नहीं पाते ॥४॥

दो०- सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आप।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥२७४॥


शूरवीर तो युद्धमें करनी (शूरवीरता का कार्य) करते हैं, कहकर अपने को नहीं जनाते। शत्रुको युद्ध में उपस्थित पाकर कायरही अपने प्रताप की डींगमारा करते हैं ॥ २७४॥



तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा ।
बार बार मोहि लागि बोलावा॥
सुनत लखन के बचन कठोरा ।
परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥


आप तो मानो कालको हाँक लगाकर बार-बार उसे मेरे लिये बुलाते हैं। लक्ष्मणजीके कठोर वचन सुनते ही परशुरामजीने अपने भयानक फरसेको सुधारकर हाथमें ले लिया ॥१॥

अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू।
कटुबादी बालकु बधजोगू॥
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा ।
अब यहु मरनिहार भा साँचा॥ [

और बोले-] अब लोग मुझे दोष न दें। यह कड़आ बोलनेवाला बालक मारे जानेके ही योग्य है। इसे बालक देखकर मैंने बहुत बचाया, पर अब यह सचमुच मरनेको ही आ गया है ॥२॥

कौसिक कहा छमिअ अपराधू । ब
ाल दोष गुन गनहिं न साधू॥
खर कुठार मैं अकरुन कोही।
आगे अपराधी गुरुद्रोही॥


विश्वामित्रजीने कहा-अपराध क्षमा कीजिये। बालकोंके दोष और गुणको साधुलोग नहीं गिनते। [परशुरामजी बोले-] तीखी धारका कुठार, मैं दयारहित और क्रोधी, और यह गुरुद्रोही और अपराधी मेरे सामने ॥३॥

उतर देत छोड़उँ बिनु मारें ।
केवल कौसिक सील तुम्हारें॥
न त एहि काटि कुठार कठोरें ।
गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥


उत्तर दे रहा है। इतनेपर भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ, सो हे विश्वामित्र! केवल तुम्हारे शील (प्रेम) से। नहीं तो इसे इस कठोर कुठारसे काटकर थोड़े ही परिश्रमसे गुरुसे उऋण हो जाता ॥ ४॥

दो०- गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥२७५॥


विश्वामित्रजीने हृदयमें हँसकर कहा-मुनिको हरा-ही-हरा सूझ रहा है (अर्थात् सर्वत्र विजयी होनेके कारण ये श्रीराम-लक्ष्मणको भी साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं)। किन्तु यह लोहमयी (केवल फौलादकी बनी हुई) खाँड़ (खाँड़ा-खड्ग) है, ऊखकी (रसकी) खाँड़ नहीं है [जो मुँहमें लेते ही गल जाय। खेद है,] मुनि अब भी बेसमझ बने हुए हैं। इनके प्रभावको नहीं समझ रहे हैं ॥ २७५ ॥



कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा ।
को नहिं जान बिदित संसारा॥
माता पितहि उरिन भए नीकें ।
गुर रिनु रहा सोचु बड़ जी कें॥


लक्ष्मणजीने कहा-हे मुनि! आपके शीलको कौन नहीं जानता? वह संसारभरमें प्रसिद्ध है। आप माता-पितासे तो अच्छी तरह उऋण हो ही गये, अब गुरुका ऋण रहा, जिसका जीमें बड़ा सोच लगा है ॥१॥

सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा ।
दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा॥
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली ।
तुरत देउँ मैं थैली खोली॥


वह मानो हमारे ही मत्थे काढ़ा था। बहुत दिन बीत गये, इससे ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब करनेवालेको बुला लाइये, तो मैं तुरंत थैली खोलकर दे दूँ॥२॥

सुनि कटु बचन कुठार सुधारा
हाय हाय सब सभा पुकारा॥
भृगुबर परसु देखावहु मोही ।
बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही॥


लक्ष्मणजीके कड़वे वचन सुनकर परशुरामजीने कुठार सँभाला। सारी सभा हाय! हाय! करके पुकार उठी। [लक्ष्मणजीने कहा-] हे भृगुश्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं? पर हे राजाओंके शत्रु! मैं ब्राह्मण समझकर बचा रहा हूँ (तरह दे रहा हूँ) ॥३॥

मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े।
द्विज देवता घरहि के बाढ़े।
अनुचित कहि सब लोग पुकारे ।
रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे।


आपको कभी रणधीर बलवान् वीर नहीं मिले। हे ब्राह्मण देवता! आप घरहीमें . बड़े हैं। यह सुनकर 'अनुचित है, अनुचित है' कहकर सब लोग पुकार उठे। तब श्रीरघुनाथजीने इशारेसे लक्ष्मणजीको रोक दिया।॥ ४॥

दो०- लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥२७६ ॥


लक्ष्मणजीके उत्तरसे, जो आहुतिके समान थे, परशुरामजीके क्रोधरूपी अग्निको बढ़ते देखकर रघुकुलके सूर्य श्रीरामचन्द्रजी जलके समान (शान्त करनेवाले) वचन बोले- ॥ २७६ ॥



नाथ करहु बालक पर छोहू ।
सूध दूधमुख करिअ न कोहू।
जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना ।
तौ कि बराबरि करत अयाना॥


हे नाथ! बालकपर कृपा कीजिये। इस सीधे और दुधमुंहे बच्चेपर क्रोध न कीजिये। यदि यह प्रभुका (आपका) कुछ भी प्रभाव जानता, तो क्या यह बेसमझ आपकी बराबरी करता? ॥१॥

जौं लरिका कछु अचगरि करहीं ।
गुर पितु मातु मोद मन भरहीं।
करिअ कृपा सिसु सेवक जानी ।
तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥


बालक यदि कुछ चपलता भी करते हैं, तो गुरु, पिता और माता मनमें आनन्दसे भर जाते हैं। अतः इसे छोटा बच्चा और सेवक जानकर कृपा कीजिये। आप तो समदर्शी, सुशील, धीर और ज्ञानी मुनि हैं ॥२॥

राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने ।
कहि कछु लखनु बहुरि मुसुकाने॥
हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी ।
राम तोर भ्राता बड़ पापी॥


श्रीरामचन्द्रजीके वचन सुनकर वे कुछ ठंडे पड़े। इतने में लक्ष्मणजी कुछ कहकर फिर मुसकरा दिये। उनको हँसते देखकर परशुरामजीके नखसे शिखातक (सारे शरीरमें) क्रोध छा गया। उन्होंने कहा-हे राम! तेरा भाई बड़ा पापी है ॥३॥

गौर सरीर स्याम मन माहीं। क
ालकूटमुख पयमुख नाहीं॥
सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही ।
नीचु मीचु सम देख न मोही।

यह शरीरसे गोरा, पर हृदयका बड़ा काला है। यह विषमुख है, दुधमुँहा नहीं। स्वभावसे ही टेढ़ा है, तेरा अनुसरण नहीं करता (तेरे--जैसा शीलवान् नहीं है)। यह नीच मुझे कालके समान नहीं देखता॥४॥

दो०- लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥२७७॥


लक्ष्मणजीने हँसकर कहा-हे मुनि! सुनिये, क्रोध पापका मूल है, जिसके वशमें होकर मनुष्य अनुचित कर्म कर बैठते हैं और विश्वभरके प्रतिकूल चलते (सबका अहित करते) हैं ॥ २७७॥



मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया।
परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥
टूट चाप नहिं जुरिहि रिसाने ।
बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥


हे मुनिराज ! मैं आपका दास हूँ। अब क्रोध त्यागकर दया कीजिये। टूटा हुआ धनुष क्रोध करनेसे जुड़ नहीं जायगा। खड़े-खड़े पैर दुखने लगे होंगे, बैठ जाइये॥१॥

जौं अति प्रिय तौ करिअ उपाई।
जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई॥
बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं।
मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥


यदि धनुष अत्यन्त ही प्रिय हो, तो कोई उपाय किया जाय और किसी बड़े गुणी (कारीगर)को बुलाकर जुड़वा दिया जाय। लक्ष्मणजीके बोलनेसे जनकजी डर जाते हैं और कहते हैं-बस, चुप रहिये, अनुचित बोलना अच्छा नहीं ॥२॥

थर थर काँपहिं पुर नर नारी ।
छोट कुमार खोट बड़ भारी॥
भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी ।
रिस तन जरइ होइ बल हानी॥


जनकपुरके स्त्री-पुरुष थर-थर काँप रहे हैं [और मन-ही-मन कह रहे हैं कि] छोटा कुमार बड़ा ही खोटा है। लक्ष्मणजीकी निर्भय वाणी सुन-सुनकर परशुरामजीका शरीर क्रोधसे जला जा रहा है और उनके बलकी हानि हो रही है (उनका बल घट रहा है) ॥३॥

बोले रामहि देइ निहोरा ।
बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा॥
मनु मलीन तनु सुंदर कैसें ।
बिष रस भरा कनक घटु जैसें॥


तब श्रीरामचन्द्रजीपर एहसान जनाकर परशुरामजी बोले-तेरा छोटा भाई समझकर मैं इसे बचा रहा हूँ। यह मनका मैला और शरीरका कैसा सुन्दर है, जैसे विषके रससे भरा हुआ सोनेका घड़ा!॥४॥

दो०- सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।
गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम॥२७८॥

यह सुनकर लक्ष्मणजी फिर हँसे। तब श्रीरामचन्द्रजीने तिरछी नजरसे उनकी ओर देखा, जिससे लक्ष्मणजी सकुचाकर, विपरीत बोलना छोड़कर, गुरुजीके पास चले गये॥ २७८ ॥



अति बिनीत मृदु सीतल बानी ।
बोले रामु जोरि जुग पानी।
सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना ।
बालक बचनु करिअ नहिं काना॥


श्रीरामचन्द्रजी दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त विनयके साथ कोमल और शीतल वाणी बोले-हे नाथ! सुनिये, आप तो स्वभावसे ही सुजान हैं। आप बालकके वचनपर कान न कीजिये (उसे सुना-अनसुना कर दीजिये)॥१॥

बरै बालकु एकु सुभाऊ ।
इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ॥
तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा।
अपराधी मैं नाथ तुम्हारा॥


बरै और बालकका एक स्वभाव है। संतजन इन्हें कभी दोष नहीं लगाते। फिर ..... . उसने (लक्ष्मणने) तो कुछ काम भी नहीं बिगाड़ा है, हे नाथ! आपका अपराधी तो मैं हूँ॥२॥

कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं।
मो पर करिअ दास की नाईं।
कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई ।
मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥


अत: हे स्वामी ! कृपा, क्रोध, वध और बन्धन, जो कुछ करना हो, दासकी तरह (अर्थात् दास समझकर) मुझपर कीजिये। जिस प्रकारसे शीघ्र आपका क्रोध दूर हो, हे मुनिराज! बताइये, मैं वही उपाय करूँ॥३॥

कह मुनि राम जाइ रिस कैसें ।
अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें।
एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा ।
तो मैं काह कोपु करि कीन्हा॥


मुनिने कहा-हे राम! क्रोध कैसे जाय; अब भी तेरा छोटा भाई टेढ़ा ही ताक रहा है। इसकी गर्दनपर मैंने कुठार न चलाया, तो क्रोध करके किया ही क्या? ॥ ४॥

दो०- गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।
परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर ॥ २७९॥


मेरे जिस कुठारकी घोर करनी सुनकर राजाओंकी स्त्रियोंके गर्भ गिर पड़ते हैं, उसी फरसेके रहते मैं इस शत्रु राजपुत्रको जीवित देख रहा हूँ ।। २७९ ॥



बहइ न हाथु दहइ रिस छाती ।
भा कुठारु कुंठित नृपघाती।
भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ ।
मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ॥


हाथ चलता नहीं, क्रोधसे छाती जली जाती है। [हाय!] राजाओंका घातक यह कुठार भी कुण्ठित हो गया। विधाता विपरीत हो गया, इससे मेरा स्वभाव बदल गया, नहीं तो भला, मेरे हृदयमें किसी समय भी कृपा कैसी? ॥ १ ॥

आजु दया दुखु दुसह सहावा ।
सुनि सौमित्रि बिहसि सिरु नावा॥
बाउ कृपा मूरति अनुकूला ।
बोलत बचन झरत जनु फूला॥


आज दया मुझे यह दुःसह दुःख सहा रही है। यह सुनकर लक्ष्मणजीने मुसकराकर सिर नवाया [ और कहा-] आपकी कृपारूपी वायु भी आपकी मूर्तिके अनुकूल ही है, वचन बोलते हैं, मानो फूल झड़ रहे हैं ! ॥ २ ॥

जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता ।
क्रोध भएँ तनु राख बिधाता॥
देखु जनक हठि बालकु एहू ।
कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू॥


हे मुनि ! यदि कृपा करनेसे आपका शरीर जला जाता है, तो क्रोध होनेपर तो शरीरकी रक्षा विधाता ही करेंगे। [परशुरामजीने कहा-] हे जनक! देख, यह मूर्ख बालक हठ करके यमपुरीमें घर (निवास) करना चाहता है ।। ३॥

बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा ।
देखत छोट खोट नृपु ढोटा॥
बिहसे लखनु कहा मन माहीं ।
मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं॥


इसको शीघ्र ही आँखोंकी ओट क्यों नहीं करते? यह राजपुत्र देखनेमें छोटा है, पर है बड़ा खोटा। लक्ष्मणजीने हँसकर मन-ही-मन कहा-आँख मूंद लेनेपर कहीं कोई नहीं है ॥ ४॥

दो०- परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।
संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु ॥२८० ॥


तब परशुरामजी हृदयमें अत्यन्त क्रोध भरकर श्रीरामजीसे बोले-अरे शठ! तू शिवजीका धनुष तोड़कर उलटा हमींको ज्ञान सिखाता है ! ॥ २८० ॥



बंधु कहइ कटु संमत तोरें ।
तू छल बिनय करसि कर जोरें।
करु परितोषु मोर संग्रामा ।
नाहिं त छाड़ कहाउब रामा।


तेरा यह भाई तेरी ही सम्मतिसे कटु वचन बोलता है और तू छलसे हाथ जोड़कर विनय करता है। या तो युद्धमें मेरा सन्तोष कर, नहीं तो राम कहलाना छोड़ दे॥१॥

छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही ।
बंधु सहित न त मारउँ तोही।
भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ ।
मन मुसुकाहिं रामु सिर नाएँ।


अरे शिवद्रोही! छल त्यागकर मुझसे युद्ध कर। नहीं तो भाईसहित तुझे मार डालूँगा। इस प्रकार परशुरामजी कुठार उठाये बक रहे हैं और श्रीरामचन्द्रजी सिर झुकाये मन-ही-मन मुसकरा रहे हैं ॥२॥

गुनह लखन कर हम पर रोषू ।
कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू ।।
टेढ़ जानि सब बंदइ काहू ।
बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू॥


[श्रीरामचन्द्रजीने मन-ही-मन कहा-] गुनाह (दोष) तो लक्ष्मणका और क्रोध मुझपर करते हैं ! कहीं-कहीं सीधेपनमें भी बड़ा दोष होता है। टेढ़ा जानकर सब लोग किसीकी भी वन्दना करते हैं; टेढ़े चन्द्रमाको राहु भी नहीं ग्रसता ॥ ३॥

राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा ।
कर कुठारु आगे यह सीसा॥
जेहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी ।
मोहि जानिअ आपन अनुगामी॥

श्रीरामचन्द्रजीने [प्रकट] कहा-हे मुनीश्वर! क्रोध छोड़िये। आपके हाथमें कुठार है और मेरा यह सिर आगे है। जिस प्रकार आपका क्रोध जाय, हे स्वामी! वही कीजिये। मुझे अपना अनुचर (दास) जानिये ॥४॥

दो०- प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।
बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु॥२८१॥

स्वामी और सेवकमें युद्ध कैसा? हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! क्रोधका त्याग कीजिये। आपका [वीरोंका-सा] वेष देखकर ही बालकने कुछ कह डाला था; वास्तवमें उसका भी कोई दोष नहीं है ॥ २८१ ।।



देखि कुठार बान धनु धारी ।
भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥
नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा ।
बंस सुभायँ उतरु तेहिं दीन्हा॥


आपको कुठार, बाण और धनुष धारण किये देखकर और वीर समझकर बालकको क्रोध आ गया। वह आपका नाम तो जानता था, पर उसने आपको पहचाना नहीं। अपने वंश (रघुवंश) के स्वभावके अनुसार उसने उत्तर दिया॥१॥

जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं।
पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥
छमहु चूक अनजानत केरी।
चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी॥

यदि आप मुनिकी तरह आते, तो हे स्वामी! बालक आपके चरणोंकी धूलि सिरपर रखता । अनजानेकी भूलको क्षमा कर दीजिये। ब्राह्मणोंके हृदयमें बहुत अधिक दया होनी चाहिये॥२॥

हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा।
कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥
राम मात्र लघु नाम हमारा।
परसु सहित बड़ नाम तोहारा॥


हे नाथ! हमारी और आपकी बराबरी कैसी? कहिये न, कहाँ चरण और कहाँ मस्तक! कहाँ मेरा राममात्र छोटा-सा नाम और कहाँ आपका परशुसहित बड़ा नाम ॥३॥

देव एकु गुनु धनुष हमारें ।
नव गुन परम पुनीत तुम्हारें।
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे ।
छमहु बिप्र अपराध हमारे॥


हे देव! हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके परम पवित्र [शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता-ये] नौ गुण हैं। हम तो सब प्रकारसे आपसे हारे हैं । हे विप्र! हमारे अपराधोंको क्षमा कीजिये॥४॥

दो०- बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।।
बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम॥२८२॥

श्रीरामचन्द्रजीने परशुरामजीको बार-बार 'मुनि' और 'विप्रवर' कहा। तब भृगुपति (परशुरामजी) कुपित होकर [अथवा क्रोधकी हँसी हँसकर] बोले-तू भी अपने भाईके समान ही टेढ़ा है ॥ २८२॥



निपटहिं द्विज करि जानहि मोही ।
मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥
चाप त्रुवा सर आहुति जानू ।
कोपु मोर अति घोर कृसानू॥


तू मुझे निरा ब्राह्मण ही समझता है? मैं जैसा विप्र हूँ, तुझे सुनाता हूँ। धनुषको स्रुवा, बाणको आहुति और मेरे क्रोधको अत्यन्त भयङ्कर अग्नि जान ॥१॥

समिधि सेन चतुरंग सुहाई।
महा महीप भए पसु आई॥
मैं एहिं परसु काटि बलि दीन्हे ।
समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे ॥


चतुरंगिणी सेना सुन्दर समिधाएँ (यज्ञमें जलायी जानेवाली लकड़ियाँ) हैं। बड़े बड़े राजा उसमें आकर बलिके पशु हुए हैं, जिनको मैंने इसी फरसेसे काटकर बलि दिया है। ऐसे करोड़ों जपयुक्त रणयज्ञ मैंने किये हैं (अर्थात् जैसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक 'स्वाहा' शब्दके साथ आहुति दी जाती है, उसी प्रकार मैंने पुकार-पुकारकर राजाओंकी बलि दी है)॥२॥

मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें ।
बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥
भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा ।
अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा॥


मेरा प्रभाव तुझे मालूम नहीं है, इसीसे तू ब्राह्मणके धोखे मेरा निरादर करके बोल रहा है। धनुष तोड़ डाला, इससे तेरा घमंड बहुत बढ़ गया है। ऐसा अहंकार है, मानो संसारको जीतकर खड़ा है ॥३॥

राम कहा मुनि कहहु बिचारी ।
रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना ।
मैं केहि हेतु करौं अभिमाना॥


श्रीरामचन्द्रजीने कहा-हे मुनि ! विचारकर बोलिये। आपका क्रोध बहुत बड़ा है। और मेरी भूल बहुत छोटी है। पुराना धनुष था, छूते ही टूट गया। मैं किस कारण अभिमान करूँ?॥४॥

दो०- जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥२८३॥

हे भृगुनाथ! यदि हम सचमुच ब्राह्मण कहकर निरादर करते हैं, तो यह सत्य सुनिये, फिर संसारमें ऐसा कौन योद्धा है जिसे हम डरके मारे मस्तक नवायें? ॥ २८३ ।।



देव दनुज भूपति भट नाना ।
समबल अधिक होउ बलवाना॥
जौं रन हमहि पचारै कोऊ ।
लरहिं सुखेन कालु किन होऊ॥


देवता, दैत्य. राजा या और बहुत-से योद्धा, वे चाहे बलमें हमारे बराबर हों चाहे अधिक बलवान् हों, यदि रणमें हमें कोई भी ललकारे तो हम उससे सुखपूर्वक लड़ेंगे, चाहे काल ही क्यों न हो?॥१॥

छत्रिय तनु धरि समर सकाना ।
कुल कलंकु तेहिं पावर आना।
कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी।
कालहु डरहिं न रन रघुबंसी।

क्षत्रियका शरीर धरकर जो युद्धमें डर गया, उस नीचने अपने कुलपर कलङ्क लगा दिया। मैं स्वभावसे ही कहता हूँ, कुलकी प्रशंसा करके नहीं, कि रघुवंशी रणमें कालसे भी नहीं डरते ॥२॥

बिप्रबंस कै असि प्रभुताई।
अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
सुनि मृदु गूढ़ बचन रघुपति के ।
उघरे पटल परसुधर मति के॥


ब्राह्मणवंशकी ऐसी ही प्रभुता (महिमा) है कि जो आपसे डरता है, वह सबसे निर्भय हो जाता है [अथवा जो भयरहित होता है वह भी आपसे डरता है] । श्रीरघुनाथजीके कोमल और रहस्यपूर्ण वचन सुनकर परशुरामजीकी बुद्धिके परदे खुल गये॥३॥

राम रमापति कर धनु लेहू ।
खैंचहु मिटै मोर संदेहू ।।
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ ।
परसुराम मन बिसमय भयऊ।


परशुरामजीने कहा-] हे राम! हे लक्ष्मीपति ! धनुषको हाथमें [अथवा लक्ष्मीपति विष्णुका धनुष] लीजिये और इसे खींचिये, जिससे मेरा सन्देह मिट जाय। परशुरामजी धनुष देने लगे, तब वह आप ही चला गया। तब परशुरामजीके मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ॥४॥

दो०- जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
जोरि पानि बोले बचन हृदय न प्रेमु अमात॥ २८४॥


तब उन्होंने श्रीरामजीका प्रभाव जाना, [जिसके कारण] उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। वे हाथ जोड़कर वचन बोले-प्रेम उनके हृदयमें समाता न था- ॥२८४॥



जय रघुबंस बनज बन भानू ।
गहन दनुज कुल दहन कृसानू॥
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी ।
जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥


हे रघुकुलरूपी कमलवनके सूर्य! हे राक्षसोंके कुलरूपी घने जंगलको जलानेवाले अग्नि! आपकी जय हो! हे देवता, ब्राह्मण और गौका हित करनेवाले! आपकी जय हो। हे मद, मोह, क्रोध और भ्रमके हरनेवाले! आपकी जय हो॥१॥

बिनय सील करुना गुन सागर ।
जयति बचन रचना अति नागर॥
सेवक सुखद सुभग सब अंगा।
जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥


हे विनय, शील, कृपा आदि गुणोंके समुद्र और वचनोंकी रचनामें अत्यन्त चतुर! आपकी जय हो। हे सेवकोंको सुख देनेवाले, सब अङ्गोंसे सुन्दर और शरीरमें करोड़ों कामदेवोंकी छबि धारण करनेवाले! आपकी जय हो॥२॥

करौं काह मुख एक प्रसंसा ।
जय महेस मन मानस हंसा॥
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता ।
छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता।


मैं एक मुखसे आपकी क्या प्रशंसा करूँ? हे महादेवजीके मनरूपी मानसरोवरके हंस! आपकी जय हो। मैंने अनजानमें आपको बहुत-से अनुचित वचन कहे। हे क्षमाके मन्दिर दोनों भाई! मुझे क्षमा कीजिये ॥ ३ ॥

कहि जय जय जय रघुकुलकेतू ।
भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥
अपभय कुटिल महीप डेराने ।
जहँ तहँ कायर गवहिं पराने॥


हे रघुकुलके पताकास्वरूप श्रीरामचन्द्रजी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुरामजी तपके लिये वनको चले गये। [यह देखकर] दुष्ट राजालोग बिना ही कारणके (मन:कल्पित) डरसे (रामचन्द्रजीसे तो परशुरामजी भी हार गये, हमने इनका अपमान किया था, अब कहीं ये उसका बदला न लें, इस व्यर्थके डरसे) डर गये, वे कायर चुपकेसे जहाँ-तहाँ भाग गये ॥४॥

दो०- देवन्ह दीन्हीं दुंदुभी प्रभु पर बरषहिं फूल।
हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल॥२८५॥


देवताओंने नगाड़े बजाये, वे प्रभुके ऊपर फूल बरसाने लगे। जनकपुरके स्त्री पुरुष सब हर्षित हो गये। उनका मोहमय (अज्ञानसे उत्पन्न) शूल मिट गया। २८५ ॥

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