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रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2085
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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में गोस्वामी जी इस मनोहारी राम कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।


दशरथजी के पास जनकजी का दूत भेजना, अयोध्या से बारात का प्रस्थान



अति गहगहे बाजने बाजे ।
सबहिं मनोहर मंगल साजे॥
जूथ जूथ मिलि सुमुखि सुनयनीं ।
करहिं गान कल कोकिलबयनी॥

खूब जोरसे बाजे बजने लगे। सभीने मनोहर मङ्गल-साज सजे। सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रोंवाली तथा कोयलके समान मधुर बोलनेवाली स्त्रियाँ झुंड-की-झुंड मिलकर सुन्दर गान करने लगीं ॥१॥

सुखु बिदेह कर बरनि न जाई।
जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई॥
बिगत त्रास भइ सीय सुखारी ।
जनु बिधु उदय चकोरकुमारी॥


जनकजीके सुखका वर्णन नहीं किया जा सकता; मानो जन्मका दरिद्री धनका खजाना पा गया हो! सीताजीका भय जाता रहा; वे ऐसी सुखी हुईं जैसे चन्द्रमाके उदय होनेसे चकोरकी कन्या सुखी होती है ॥ २॥

जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा ।
प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा॥
मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं।
अब जो उचित सो कहिअ गोसाईं।


जनकजीने विश्वामित्रजीको प्रणाम किया [और कहा-] प्रभुहीकी कृपासे श्रीरामचन्द्रजीने धनुष तोड़ा है। दोनों भाइयोंने मुझे कृतार्थ कर दिया। हे स्वामी! अब जो उचित हो सो कहिये ॥३॥

कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना ।
रहा बिबाहु चाप आधीना॥
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू ।
सुर नर नाग बिदित सब काहू॥


मुनिने कहा-हे चतुर नरेश! सुनो, यों तो विवाह धनुषके अधीन था; धनुषके टूटते ही विवाह हो गया। देवता, मनुष्य और नाग सब किसीको यह मालूम है॥४॥

दो०- तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।
बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥२८६॥


तथापि तुम जाकर अपने कुलका जैसा व्यवहार हो, ब्राह्मणों, कुलके बूढ़ों और गुरुओंसे पूछकर और वेदोंमें वर्णित जैसा आचार हो वैसा करो॥२८६॥

दूत अवधपुर पठवहु जाई।
आनहिं नृप दसरथहि बोलाई॥
मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला ।
पठए दूत बोलि तेहि काला॥


जाकर अयोध्याको दूत भेजो, जो राजा दशरथको बुला लावें। राजाने प्रसन्न होकर कहा-हे कृपालु! बहुत अच्छा! और उसी समय दूतोंको बुलाकर भेज दिया॥१॥

बहुरि महाजन सकल बोलाए ।
आइ सबन्हि सादर सिर नाए॥
हाट बाट मंदिर सुरबासा ।
नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा ।।


फिर सब महाजनोंको बुलाया और सबने आकर राजाको आदरपूर्वक सिर नवाया। [राजाने कहा-] बाजार, रास्ते, घर, देवालय और सारे नगरको चारों ओरसे सजाओ।॥ २॥

हरषि चले निज निज गृह आए।
पुनि परिचारक बोलि पठाए।
रचहु बिचित्र बितान बनाई।
सिर धरि बचन चले सचु पाई॥


महाजन प्रसन्न होकर चले और अपने-अपने घर आये। फिर राजाने नौकरोंको बुला भेजा [और उन्हें आज्ञा दी कि] विचित्र मण्डप सजाकर तैयार करो। यह सुनकर वे सब राजाके वचन सिरपर धरकर और सुख पाकर चले॥३॥

पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना ।
जे बितान बिधि कुसल सुजाना।
बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा ।
बिरचे कनक कदलि के खंभा॥

उन्होंने अनेक कारीगरोंको बुला भेजा, जो मण्डप बनानेमें कुशल और चतुर थे। उन्होंने ब्रह्माकी वन्दना करके कार्य आरम्भ किया और [पहले] सोनेके केलेके खंभे बनाये॥४॥

दो०- हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।
रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल ॥२८७॥


हरी-हरी मणियों (पन्ने) के पत्ते और फल बनाये तथा पद्मराग मणियों (माणिक) के फूल बनाये। मण्डपकी अत्यन्त विचित्र रचना देखकर ब्रह्माका मन भी भूल गया॥ २८७॥



बेनु हरित मनिमय सब कीन्हे ।
सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे॥
कनक कलित अहिबेलि बनाई।
लखि नहिं परइ सपरन सुहाई॥


बाँस सब हरी-हरी मणियों (पन्ने) के सीधे और गाँठोंसे युक्त ऐसे बनाये जो पहचाने नहीं जाते थे [कि मणियोंके हैं या साधारण] । सोनेकी सुन्दर नागबेलि (पानकी लता) बनायी, जो पत्तोंसहित ऐसी भली मालूम होती थी कि पहचानी नहीं जाती थी॥१॥

तेहि के रचि पचि बंध बनाए।
बिच बिच मुकुता दाम सुहाए।
मानिक मरकत कुलिस पिरोजा।
चीरि कोरि पचि रचे सरोजा॥


उसी नागबेलिके रचकर और पच्चीकारी करके बन्धन (बाँधनेकी रस्सी) बनाये। बीच-बीचमें मोतियोंकी सुन्दर झालरें हैं। माणिक, पन्ने, हीरे और फिरोजे, इन रत्नोंको चीरकर, कोरकर और पच्चीकारी करके, इनके [लाल, हरे, सफेद और फिरोजी रंगके] कमल बनाये॥२॥


किए भंग बहुरंग बिहंगा ।
गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा॥
सुर प्रतिमा खंभन गढ़ि काढ़ीं ।
मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ीं॥


भौरे और बहुत रंगोंके पक्षी बनाये, जो हवाके सहारे गूंजते और कूजते थे। खंभों पर देवताओंकी मूर्तियाँ गढ़कर निकालीं, जो सब मङ्गलद्रव्य लिये खड़ी थीं॥३॥

चौकें भाँति अनेक पुराईं।
सिंधुर मनिमय सहज सुहाई।।

गजमुक्ताओंके सहज ही सुहावने अनेकों तरहके चौक पुराये ॥४॥


दो०- सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि।
हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि॥२८८॥


नीलमणिको कोरकर अत्यन्त सुन्दर आमके पत्ते बनाये। सोनेके बौर (आमके फूल) और रेशमकी डोरीसे बँधे हुए पनेके बने फलोंके गुच्छे सुशोभित हैं ॥ २८८ ॥

रचे रुचिर बर बंदनिवारे ।
मनहुँ मनोभवं फंद सँवारे॥
मंगल कलस अनेक बनाए ।
ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥


ऐसे सुन्दर और उत्तम बंदनवार बनाये मानो कामदेवने फंदे सजाये हों। अनेकों मङ्गल-कलश और सुन्दर ध्वजा, पताका, परदे और चँवर बनाये॥१॥

दीप मनोहर मनिमय नाना ।
जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥
जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही ।
सो बरनै असि मति कबि केही॥


जिसमें मणियोंके अनेकों सुन्दर दीपक हैं, उस विचित्र मण्डपका तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। जिस मण्डपमें श्रीजानकीजी दुलहिन होंगी, किस कविकी ऐसी बुद्धि है जो उसका वर्णन कर सके॥२॥

दूलहु रामु रूप गुन सागर ।
सो बितानु तिहुँ लोक उजागर ।।
जनक भवन के सोभा जैसी ।
गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी॥


जिस मण्डपमें रूप और गुणोंके समुद्र श्रीरामचन्द्रजी दूल्हे होंगे, वह मण्डप तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध होना ही चाहिये। जनकजीके महलकी जैसी शोभा है, वैसी ही शोभा नगरके प्रत्येक घरकी दिखायी देती है॥३॥

जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी ।
तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥
जो संपदा नीच गृह सोहा ।
सो बिलोकि सुरनायक मोहा।।


उस समय जिसने तिरहुतको देखा, उसे चौदह भुवन तुच्छ जान पड़े। जनकपुरमें नीचके घर भी उस समय जो सम्पदा सुशोभित थी, उसे देखकर इन्द्र भी मोहित हो जाता था॥४॥

दो०- बसइ नगर जेहिं लच्छि करि कपट नारि बर बेषु।
तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु॥२८९॥


जिस नगरमें साक्षात् लक्ष्मीजी कपटसे स्त्रीका सुन्दर वेष बनाकर बसती हैं, उस पुरकी शोभाका वर्णन करने में सरस्वती और शेष भी सकुचाते हैं ॥ २८९ ।।

पहुँचे दूत राम पुर पावन ।
हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥
भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई।
दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई॥


जनकजीके दूत श्रीरामचन्द्रजीकी पवित्र पुरी अयोध्यामें पहुँचे। सुन्दर नगर देखकर वे हर्षित हुए। राजद्वारपर जाकर उन्होंने खबर भेजी; राजा दशरथजीने सुनकर उन्हें बुला लिया ।।१॥

करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही ।
मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥
बारि बिलोचन बाँचत पाती।
पुलक गात आई भरि छाती॥


दूतोंने प्रणाम करके चिट्ठी दी। प्रसन्न होकर राजाने स्वयं उठकर उसे लिया। चिट्ठी बाँचते समय उनके नेत्रों में जल (प्रेम और आनन्दके आँसू) छा गया, शरीर पुलकित हो गया और छाती भर आयी ॥२॥

रामु लखनु उर कर बर चीठी ।
रहि गए कहत न खाटी मीठी॥
पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची ।
हरषी सभा बात सुनि साँची॥


हृदयमें राम और लक्ष्मण हैं, हाथमें सुन्दर चिट्ठी है, राजा उसे हाथमें लिये ही रह गये, खट्टी-मीठी कुछ भी कह न सके। फिर धीरज धरकर उन्होंने पत्रिका पढ़ी। सारी सभा सच्ची बात सुनकर हर्षित हो गयी ॥३॥

खेलत रहे तहाँ सुधि पाई।
आए भरतु सहित हित भाई॥
पूछत अति सनेहँ सकुचाई।
तात कहाँ तें पाती आई।


भरतजी अपने मित्रों और भाई शत्रुघ्नके साथ जहाँ खेलते थे, वहीं समाचार पाकर वे आ गये। बहुत प्रेमसे सकुचाते हुए पूछते हैं-पिताजी! चिट्ठी कहाँसे आयी है ? ॥ ४॥

दो०- कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।
सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस ।। २९०॥


हमारे प्राणोंसे प्यारे दोनों भाई, कहिये सकुशल तो हैं और वे किस देशमें हैं ? स्नेहसे सने ये वचन सुनकर राजाने फिरसे चिट्ठी पढ़ी ॥ २९० ॥

सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता ।
अधिक सनेहु समात न गाता॥
प्रीति पुनीत भरत कै देखी ।
सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी॥


चिट्ठी सुनकर दोनों भाई पुलकित हो गये। स्नेह इतना अधिक हो गया कि वह शरीरमें समाता नहीं। भरतजीका पवित्र प्रेम देखकर सारी सभाने विशेष सुख पाया॥१॥

तब नृप दूत निकट बैठारे ।
मधुर मनोहर बचन उचारे॥
भैआ कहहु कुसल दोउ बारे ।
तुम्ह नीकें निज नयन निहारे॥


तब राजा दूतोंको पास बैठाकर मनको हरनेवाले मीठे वचन बोले- भैया! कहो, दोनों बच्चे कुशलसे तो हैं? तुमने अपनी आँखोंसे उन्हें अच्छी तरह देखा है न? ॥२॥

स्यामल गौर धरें धनु भाथा ।
बय किसोर कौसिक मुनि साथा॥
पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ ।
प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ॥


साँवले और गोरे शरीरवाले वे धनुष और तरकस धारण किये रहते हैं, किशोर अवस्था है, विश्वामित्र मुनिके साथ हैं। तुम उनको पहचानते हो तो उनका स्वभाव बताओ। राजा प्रेमके विशेष वश होनेसे बार-बार इस प्रकार कह (पूछ) रहे हैं ॥३॥

जा दिन तें मुनि गए लवाई।
तब तें आजु साँचि सुधि पाई।
कहहु बिदेह कवन बिधि जाने ।
सुनि प्रिय बचन दूत मुसुकाने॥


[भैया!] जिस दिनसे मुनि उन्हें लिवा ले गये, तबसे आज ही हमने सच्ची खबर पायी है। कहो तो महाराज जनकने उन्हें कैसे पहचाना? ये प्रिय (प्रेमभरे) वचन सुनकर दूत मुसकराये॥४॥

दो०- सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ।
रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ॥२९१॥


[दूतोंने कहा-] हे राजाओंके मुकुटमणि ! सुनिये, आपके समान धन्य और कोई नहीं है, जिनके राम-लक्ष्मण-जैसे पुत्र हैं, जो दोनों विश्वके विभूषण हैं॥ २९१॥

पूछन जोगु न तनय तुम्हारे ।
पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे॥
जिन्ह के जस प्रताप के आगे।
ससि मलीन रबि सीतल लागे॥


आपके पुत्र पूछने योग्य नहीं हैं। वे पुरुषसिंह तीनों लोकोंके प्रकाशस्वरूप हैं। जिनके यशके आगे चन्द्रमा मलिन और प्रतापके आगे सूर्य शीतल लगता है, ॥१॥

तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे ।
देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे॥
सीय स्वयंबर भूप अनेका ।
समिटे सुभट एक तें एका॥


हे नाथ! उनके लिये आप कहते हैं कि उन्हें कैसे पहचाना! क्या सूर्यको हाथमें दीपक लेकर देखा जाता है ? सीताजीके स्वयंवरमें अनेकों राजा और एक-से-एक बढ़कर योद्धा एकत्र हुए थे, ॥२॥

संभु सरासनु काहुँ न टारा ।
हारे सकल बीर बरिआरा॥
तीनि लोक महँ जे भटमानी ।
सभ कै सकति संभु धनु भानी॥


परन्तु शिवजीके धनुषको कोई भी नहीं हटा सका। सारे बलवान् वीर हार गये। तीनों लोकोंमें जो वीरताके अभिमानी थे, शिवजीके धनुषने सबकी शक्ति तोड़ दी॥३॥

सकइ उठाइ सरासुर मेरू ।
सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू॥
जेहिं कौतुक सिवसैलु उठावा।
सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा॥


बाणासुर, जो सुमेरुको भी उठा सकता था, वह भी हृदयमें हारकर परिक्रमा करके चला गया; और जिसने खेलसे ही कैलासको उठा लिया था, वह रावण भी उस सभामें पराजयको प्राप्त हुआ॥४॥

दो०- तहाँ राम रघुबंसमनि सुनिअ महा महिपाल।
भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल॥२९२॥


हे महाराज! सुनिये, वहाँ (जहाँ ऐसे-ऐसे योद्धा हार मान गये) रघुवंशमणि श्रीरामचन्द्रजीने बिना ही प्रयास शिवजीके धनुषको वैसे ही तोड़ डाला जैसे हाथी कमलकी डंडीको तोड़ डालता है ! ॥ २९२ ।।

सुनि सरोष भृगुनायकु आए ।
बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥
देखि राम बलु निज धनु दीन्हा ।
करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥


धनुष टूटनेकी बात सुनकर परशुरामजी क्रोध भरे आये और उन्होंने बहुत प्रकार से आँखें दिखलायीं। अन्तमें उन्होंने भी श्रीरामचन्द्रजीका बल देखकर उन्हें अपना धनुष दे दिया और बहुत प्रकारसे विनती करके वनको गमन किया॥१॥

राजन रामु अतुलबल जैसें।
तेज निधान लखनु पुनि तैसें।
कंपहिं भूप बिलोकत जाकें ।
जिमि गज हरि किसोर के ताकें।


हे राजन् ! जैसे श्रीरामचन्द्रजी अतुलनीय बली हैं, वैसे ही तेजनिधान फिर लक्ष्मणजी भी हैं, जिनके देखनेमात्रसे राजालोग ऐसे काँप उठते थे, जैसे हाथी सिंहके बच्चेके ताकनेसे काँप उठते हैं।॥२॥

देव देखि तव बालक दोऊ ।
अब न आँखि तर आवत कोऊ॥
दूत बचन रचना प्रिय लागी ।
प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥


हे देव! आपके दोनों बालकोंको देखनेके बाद अब आँखोंके नीचे कोई आता ही नहीं (हमारी दृष्टि पर कोई चढ़ता ही नहीं)। प्रेम, प्रताप और वीर-रसमें पगी हुई दूतोंकी वचनरचना सबको बहुत प्रिय लगी। ३ ।।।

सभा समेत राउ अनुरागे।
दूतन्ह देन निछावरि लागे॥
कहि अनीति ते मूदहिं काना ।
धरमु बिचारि सबहिं सुखु माना।


सभासहित राजा प्रेममें मग्न हो गये और दूतोंको निछावर देने लगे। [उन्हें निछावर देते देखकर] यह नीतिविरुद्ध है, ऐसा कहकर दूत अपने हाथोंसे कान मूंदने लगे। धर्मको विचारकर (उनका धर्मयुक्त बर्ताव देखकर) सभीने सुख माना ॥ ४॥

दो०- तब उठि भूप बसिष्ट कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ।
कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ॥२९३॥


तब राजाने उठकर वसिष्ठजीके पास जाकर उन्हें पत्रिका दी और आदरपूर्वक दूतोंको बुलाकर सारी कथा गुरुजीको सुना दी ।। २९३ ॥

सुनि बोले गुर अति सुखु पाई।
पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥
जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं ।
जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥


सब समाचार सुनकर और अत्यन्त सुख पाकर गुरु बोले-पुण्यात्मा पुरुषके लिये पृथ्वी सुखोंसे छायी हुई है। जैसे नदियाँ समुद्रमें जाती हैं, यद्यपि समुद्रको नदीकी कामना नहीं होती॥१॥

तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ ।
धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।
तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी।
तसि पुनीत कौसल्या देबी।


वैसे ही सुख और सम्पत्ति बिना ही बुलाये स्वाभाविक ही धर्मात्मा पुरुषके पास जाती हैं। तुम जैसे गुरु, ब्राह्मण, गाय और देवताकी सेवा करनेवाले हो, वैसी ही पवित्र कौसल्या देवी भी हैं ॥२॥

सुकृती तुम्ह समान जग माहीं।
भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥
तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें ।
राजन राम सरिस सुत जाकें।


तुम्हारे समान पुण्यात्मा जगतमें न कोई हुआ, न है और न होनेका ही है। हे राजन्! तुमसे अधिक पुण्य और किसका होगा, जिसके राम-सरीखे पुत्र हैं ॥३॥

बीर बिनीत धरम ब्रत धारी ।
गुन सागर बर बालक चारी॥
तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना ।
सजहु बरात बजाइ निसाना॥


और जिसके चारों बालक वीर, विनम्र, धर्मका व्रत धारण करनेवाले और गुणोंके सुन्दर समुद्र हैं। तुम्हारे लिये सभी कालोंमें कल्याण है। अतएव डंका बजवाकर बारात सजाओ॥४॥

दो०- चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ।
भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥२९४॥


और जल्दी चलो। गुरुजीके ऐसे वचन सुनकर, 'हे नाथ! बहुत अच्छा' कहकर और सिर नवाकर तथा दूतोंको डेरा दिलवाकर राजा महलमें गये॥२९४ ॥

राजा सबु रनिवास बोलाई ।
जनक पत्रिका बाचि सुनाई।
सुनि संदेसु सकल हरषानीं ।
अपर कथा सब भूप बखानी॥


राजाने सारे रनिवासको बुलाकर जनकजीकी पत्रिका बाँचकर सुनायी। समाचार सुनकर सब रानियाँ हर्षसे भर गयीं। राजाने फिर दूसरी सब बातोंका (जो दूतोंके मुखसे सुनी थीं) वर्णन किया॥१॥

प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी ।
मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बानी॥
मुदित असीस देहिं गुर नारी ।
अति आनंद मगन महतारी॥


प्रेममें प्रफुल्लित हुई रानियाँ ऐसी सुशोभित हो रही हैं जैसे मोरनी बादलों की गरज सुनकर प्रफुल्लित होती हैं। बड़ी-बूढ़ी [अथवा गुरुओंकी] स्त्रियाँ प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे रही हैं। माताएँ अत्यन्त आनन्दमें मग्न हैं ॥२॥

लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती ।
हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती॥
राम लखन कै कीरति करनी ।
बारहिं बार भूपबर बरनी॥


उस अत्यन्त प्रिय पत्रिकाको आपसमें लेकर सब हृदयसे लगाकर छाती शीतल करती हैं। राजाओंमें श्रेष्ठ दशरथजीने श्रीराम-लक्ष्मणकी कीर्ति और करनीका बारंबार वर्णन किया ॥३॥

मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए ।
रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥
दिए दान आनंद समेता ।
चले बिप्रबर आसिष देता।


यह सब मुनिकी कृपा है' ऐसा कहकर वे बाहर चले आये। तब रानियोंने ब्राह्मणोंको बुलाया और आनन्दसहित उन्हें दान दिये। श्रेष्ठ ब्राह्मण आशीर्वाद देते हुए चले॥४॥

सो०- जाचक लिए हँकारिदीन्हि निछावरिकोटि बिधि।
चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरस्थ के॥२९५॥


फिर भिक्षुकोंको बुलाकर करोड़ों प्रकारकी निछावरें उनको दी। 'चक्रवर्ती महाराज दशरथके चारों पुत्र चिरंजीवी हों' ॥ २९५ ॥

कहत चले पहिरें पट नाना ।
हरषि हने गहगहे निसाना॥
समाचार सब लोगन्ह पाए ।
लागे घर घर होन बधाए॥


यों कहते हुए वे अनेक प्रकारके सुन्दर वस्त्र पहन-पहनकर चले। आनन्दित होकर नगाड़ेवालोंने बड़े जोरसे नगाड़ोंपर चोट लगायी। सब लोगोंने जब यह समाचार पाया, तब घर-घर बधावे होने लगे॥१॥

भुवन चारिदस भरा उछाहू ।
जनकसुता रघुबीर बिआहू॥
सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे ।
मग गृह गली सँवारन लागे॥


चौदहों लोकोंमें उत्साह भर गया कि जानकीजी और श्रीरघुनाथजीका विवाह होगा। यह शुभ समाचार पाकर लोग प्रेममग्न हो गये और रास्ते, घर तथा गलियाँ सजाने लगे॥२॥

जद्यपि अवध सदैव सुहावनि ।
राम पुरी मंगलमय पावनि॥
तदपि प्रीति के प्रीति सुहाई।
मंगल रचना रची बनाई॥


यद्यपि अयोध्या सदा सुहावनी है, क्योंकि वह श्रीरामजीकी मङ्गलमयी पवित्र पुरी है, तथापि प्रीति-पर-प्रीति होनेसे वह सुन्दर मङ्गलरचनासे सजायी गयी॥३॥

ध्वज पताक पट चामर चारू।
छावा परम बिचित्र बजारू॥
कनक कलस तोरन मनि जाला ।
हरद दूब दधि अच्छत माला॥


ध्वजा, पताका, परदे और सुन्दर चँवरोंसे सारा बाजार बहुत ही अनूठा छाया हुआ है। सोनेके कलश, तोरण, मणियोंकी झालरें, हलदी, दूब, दही, अक्षत और मालाओंसे- ॥४॥

दो०- मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।
बीथीं सींची चतुरसम चौकें चारु पुराइ॥२९६॥


लोगोंने अपने-अपने घरोंको सजाकर मङ्गलमय बना लिया। गलियोंको चतुरसमसे सींचा और [द्वारोंपर] सुन्दर चौक पुराये। [चन्दन, केशर, कस्तूरी और कपूरसे बने हुए एक सुगन्धित द्रवको चतुरसम कहते हैं] ॥ २९६ ॥

जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि ।
सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥
बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि ।
निज सरूप रति मानु बिमोचनि॥


बिजलीकी-सी कान्तिवाली चन्द्रमुखी, हरिनके बच्चे के-से नेत्रवाली और अपने सुन्दर रूपसे कामदेव की स्त्री रति के अभिमान को छुड़ानेवाली सुहागिनी स्त्रियाँ सभी सोलहों श्रृंगार सजकर, जहाँ-तहाँ झुंड-को-झुंड मिलकर, ॥१॥


गावहिं मंगल मंजुल बानी ।
सुनि कल रव कलकंठि लजानी।
भूप भवन किमि जाइ बखाना ।
बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना॥


मनोहर वाणीसे मङ्गलगीत गा रही हैं, जिनके सुन्दर स्वरको सुनकर कोयलें भी लजा जाती हैं। राजमहलका वर्णन कैसे किया जाय, जहाँ विश्वको विमोहित करनेवाला मण्डप बनाया गया है।॥ २॥

मंगल द्रब्य मनोहर नाना ।
राजत बाजत बिपुल निसाना॥
कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं ।
कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं।


अनेकों प्रकारके मनोहर माङ्गलिक पदार्थ शोभित हो रहे हैं और बहुत-से नगाड़े बज रहे हैं। कहीं भाट विरुदावली (कुलकीर्ति) का उच्चारण कर रहे हैं और कहीं ब्राह्मण वेदध्वनि कर रहे हैं ॥३॥

गावहिं सुंदरि मंगल गीता ।
लै लै नामु रामु अरु सीता॥
बहुत उछाहु भवनु अति थोरा ।
मानहुँ उमगि चला चहु ओरा॥


सुन्दरी स्त्रियाँ श्रीरामजी और श्रीसीताजीका नाम ले-लेकर मङ्गलगीत गा रही हैं। उत्साह बहुत है और महल अत्यन्त ही छोटा है। इससे [उसमें न समाकर] मानो वह उत्साह (आनन्द) चारों ओर उमड़ चला है॥४॥

दो०- सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।
जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार॥२९७॥


दशरथके महलकी शोभाका वर्णन कौन कवि कर सकता है, जहाँ समस्त देवताओंके शिरोमणि रामचन्द्रजीने अवतार लिया है॥ २९७॥

भूप भरत पुनि लिए बोलाई ।
हय गय स्यंदन साजहु जाई॥
चलहु बेगि रघुबीर बराता ।
सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥


फिर राजाने भरतजीको बुला लिया और कहा कि जाकर घोड़े, हाथी और रथ सजाओ, जल्दी रामचन्द्रजीकी बारातमें चलो। यह सुनते ही दोनों भाई (भरतजी और शत्रुघ्नजी) आनन्दवश पुलकसे भर गये॥१॥

भरत सकल साहनी बोलाए ।
आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥
रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे ।
बरन बरन बर बाजि बिराजे॥


भरतजीने सब साहनी (घुड़सालके अध्यक्ष) बुलाये और उन्हें [घोड़ोंको सजानेकी] आज्ञा दी, वे प्रसन्न होकर उठ दौड़े। उन्होंने रुचिके साथ (यथायोग्य) जीनें कसकर घोड़े सजाये। रंग-रंगके उत्तम घोड़े शोभित हो गये॥२॥

सुभग सकल सुठि चंचल करनी ।
अय इव जरत धरत पग धरनी॥
नाना जाति न जाहिं बखाने ।
निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने॥


सब घोड़े बड़े ही सुन्दर और चञ्चल करनी (चाल) के हैं। वे धरतीपर ऐसे पैर रखते हैं जैसे जलते हुए लोहेपर रखते हों। अनेकों जातिके घोड़े हैं, जिनका वर्णन नहीं हो सकता। [ ऐसी तेज चालके हैं] मानो हवाका निरादर करके उड़ना चाहते हैं ॥३॥

तिन्ह सब छयल भए असवारा ।
भरत सरिस बय राजकुमारा॥
सब सुंदर सब भूषनधारी ।
कर सर चाप तून कटि भारी॥


उन सब घोड़ोंपर भरतजीके समान अवस्थावाले सब छैल छबीले राजकुमार सवार हुए। वे सभी सुन्दर हैं और सब आभूषण धारण किये हुए हैं। उनके हाथोंमें बाण और धनुष हैं तथा कमरमें भारी तरकस बँधे हैं ॥४॥

दो०- छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।
जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन ॥२९८॥


सभी चुने हुए छबीले छैल, शूरवीर, चतुर और नवयुवक हैं। प्रत्येक सवारके साथ दो पैदल सिपाही हैं, जो तलवार चलानेकी कलामें बड़े निपुण हैं ॥ २९८ ॥

बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े।
निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े॥
फेरहिं चतुर तुरग गति नाना ।
हरषहिं सुनि सुनि पनव निसाना॥


शूरताका बाना धारण किये हुए रणधीर वीर सब निकलकर नगरके बाहर आ खड़े हुए। वे चतुर अपने घोड़ोंको तरह-तरहकी चालोंसे फेर रहे हैं और भेरी तथा नगाड़ेकी आवाज सुन-सुनकर प्रसन्न हो रहे हैं ॥१॥

रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए ।
ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥
चवर चारु किंकिनि धुनि करहीं ।
भानु जान सोभा अपहरहीं।


सारथियोंने ध्वजा, पताका, मणि और आभूषणोंको लगाकर रथोंको बहुत विलक्षण बना दिया है। उनमें सुन्दर चँवर लगे हैं और घंटियाँ सुन्दर शब्द कर रही हैं। वे रथ इतने सुन्दर हैं मानो सूर्यके रथकी शोभाको छीने लेते हैं ॥२॥

सावकरन अगनित हय होते ।
ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते॥
सुंदर सकल अलंकृत सोहे।
जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे॥


अगणित श्यामकर्ण घोड़े थे। उनको सारथियोंने उन रथोंमें जोत दिया है, जो सभी देखने में सुन्दर और गहनोंसे सजाये हुए सुशोभित हैं, और जिन्हें देखकर मुनियोंके मन भी मोहित हो जाते हैं ॥३॥

जे जल चलहिं थलहि की नाईं।
टाप न बूड़ बेग अधिकाईं॥
अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई।
रथी सारथिन्ह लिए बोलाई॥


जो जलपर भी जमीनकी तरह ही चलते हैं। वेगकी अधिकता से उनकी टाप पानी में नहीं डूबती। अस्त्र-शस्त्र और सब साज सजाकर सारथियोंने रथियोंको बुला लिया।॥४॥

दो०- चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।
होत सगुन सुंदर सबहि जो जेहि कारज जात ॥२९९॥


रथोंपर चढ़-चढ़कर बारात नगरके बाहर जुटने लगी। जो जिस कामके लिये जाता है, सभीको सुन्दर शकुन होते हैं ॥ २९९ ।।

कलित करिबरन्हि परी अँबारी ।
कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारी॥
चले मत्त गज घंट बिराजी ।
मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥


श्रेष्ठ हाथियोंपर सुन्दर अंबारियाँ पड़ी हैं। वे जिस प्रकार सजायी गयी थीं, सो कहा नहीं जा सकता। मतवाले हाथी घंटोंसे सुशोभित होकर (घंटे बजाते हुए) चले, मानो सावनके सुन्दर बादलोंके समूह [गरजते हुए जा रहे हों॥१॥

बाहन अपर अनेक बिधाना ।
सिबिका सुभग सुखासन जाना॥
तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृंदा ।
जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा॥


सुन्दर पालकियाँ, सुखसे बैठने योग्य तामजान (जो कुर्सीनुमा होते हैं) और रथ आदि और भी अनेकों प्रकारकी सवारियाँ हैं। उनपर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके समूह चढ़कर चले, मानो सब वेदोंके छन्द ही शरीर धारण किये हुए हों ॥२॥

मागध सूत बंदि गुनगायक ।
चले जान चढ़ि जो जेहि लायक।
बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती।
चले बस्तु भरि अगनित भाँती॥


मागध, सूत, भाट और गुण गानेवाले सब, जो जिस योग्य थे, वैसी सवारीपर चढ़कर चले। बहुत जातियोंके खच्चर, ऊँट और बैल असंख्यों प्रकारकी वस्तुएँ लाद लादकर चले॥३॥

कोटिन्ह काँवरि चले कहारा ।
बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥
चले सकल सेवक समुदाई।
निज निज साजु समाजु बनाई॥


कहार करोड़ों काँवरें लेकर चले। उनमें अनेकों प्रकारकी इतनी वस्तुएँ थीं कि जिनका वर्णन कौन कर सकता है। सब सेवकोंके समूह अपना-अपना साज-समाज बनाकर चले॥४॥

दो०- सब के उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।
कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनु दोउ बीर॥३००॥


सबके हृदयमें अपार हर्ष है और शरीर पुलकसे भरे हैं। [सबको एक ही लालसा लगी है कि हम श्रीराम-लक्ष्मण दोनों भाइयोंको नेत्र भरकर कब देखेंगे॥३०० ॥

गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा ।
रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा॥
निदरि घनहि घुर्मरहिं निसाना ।
निज पराइ कछु सुनिअ न काना॥


हाथी गरज रहे हैं, उनके घंटोंकी भीषण ध्वनि हो रही है। चारों ओर रथोंकी घरघराहट और घोड़ोंकी हिनहिनाहट हो रही है। बादलोंका निरादर करते हुए नगाड़े घोर शब्द कर रहे हैं। किसीको अपनी-परायी कोई बात कानोंसे सुनायी नहीं देती॥१॥

महा भीर भूपति के द्वारें ।
रज होइ जाइ पषान पबारें॥
चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नारी।
लिएँ आरती मंगल थारी॥


राजा दशरथके दरवाजेपर इतनी भारी भीड़ हो रही है कि वहाँ पत्थर फेंका जाय तो वह भी पिसकर धूल हो जाय। अटारियोंपर चढ़ी स्त्रियाँ मङ्गल-थालोंमें आरती लिये देख रही हैं ॥ २॥

गावहिं गीत मनोहर नाना ।
अति आनंदु न जाइ बखाना॥
तब सुमंत्र दुइ स्यंदन साजी ।
जोते रबि हय निंदक बाजी।


और नाना प्रकारके मनोहर गीत गा रही हैं। उनके अत्यन्त आनन्दका बखान नहीं हो सकता। तब सुमन्त्रजीने दो रथ सजाकर उनमें सूर्यके घोड़ों को भी मात करने वाले घोड़े जोते॥३॥

दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने।
नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने॥
राज समाजु एक रथ साजा।
दूसर तेज पुंज अति भ्राजा॥


दोनों सुन्दर रथ वे राजा दशरथके पास ले आये, जिनकी सुन्दरताका वर्णन सरस्वतीसे भी नहीं हो सकता। एक रथपर राजसी सामान सजाया गया। और दूसरा जो तेजका पुंज और अत्यन्त ही शोभायमान था, ॥४॥

दो०- तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाइ नरेसु।।
आपु चढ़ेउ स्यंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु॥३०१॥


उस सुन्दर रथपर राजा वसिष्ठजीको हर्षपूर्वक चढ़ाकर फिर स्वयं शिव, गुरु, गौरी (पार्वती) और गणेशजीका स्मरण करके [दूसरे] रथपर चढ़े॥३०१॥

सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें ।
सुर गुर संग पुरंदर जैसें।
करि कुल रीति बेद बिधि राऊ ।
देखि सबहि सब भाँति बनाऊ।


वसिष्ठजीके साथ [जाते हुए] राजा दशरथजी कैसे शोभित हो रहे हैं, जैसे देवगुरु बृहस्पतिजीके साथ इन्द्र हों। वेदकी विधिसे और कुलकी रीतिके अनुसार सब कार्य करके तथा सबको सब प्रकारसे सजे देखकर, ॥१॥

सुमिरि रामु गुर आयसु पाई।
चले महीपति संख बजाई।
हरषे बिबुध बिलोकि बराता ।
बरषहिं सुमन सुमंगल दाता।


श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके, गुरुकी आज्ञा पाकर पृथ्वीपति दशरथजी शंख बजाकर चले। बारात देखकर देवता हर्षित हुए और सुन्दर मङ्गलदायक फूलोंकी वर्षा करने लगे॥२॥

भयउ कोलाहल हय गय गाजे ।
व्योम बरात बाजने बाजे।।
सुर नर नारि सुमंगल गाईं।
सरस राग बाजहिं सहनाईं।


बड़ा शोर मच गया, घोड़े और हाथी गरजने लगे। आकाशमें और बारातमें [दोनों जगह] बाजे बजने लगे। देवाङ्गनाएँ और मनुष्योंकी स्त्रियाँ सुन्दर मङ्गलगान करने लगी और रसीले रागसे शहनाइयाँ बजने लगीं ॥३॥

घंट घंटि धुनि बरनि न जाहीं ।
सरव करहिं पाइक फहराहीं॥
करहिं बिदूषक कौतुक नाना ।
हास कुसल कल गान सुजाना॥


घंटे-घंटियोंकी ध्वनिका वर्णन नहीं हो सकता। पैदल चलनेवाले सेवकगण अथवा पट्टेबाज कसरतके खेल कर रहे हैं और फहरा रहे हैं (आकाशमें ऊँचे उछलते हुए जा रहे हैं)। हँसी करनेमें निपुण और सुन्दर गानेमें चतुर विदूषक (मसखरे) तरह तरहके तमाशे कर रहे हैं॥४॥

दो०- तुरग नचावहिं कुर बर अकनि मृदंग निसान।
नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बंधान ॥३०२॥


सुन्दर राजकुमार मृदङ्ग और नगाड़ेके शब्द सुनकर घोड़ोंको उन्हींके अनुसार इस प्रकार नचा रहे हैं कि वे तालके बंधानसे जरा भी डिगते नहीं हैं। चतुर नट चकित होकर यह देख रहे हैं । ३०२॥

बनइ न बरनत बनी बराता।
होहिं सगुन सुंदर सुभदाता॥
चारा चाषु बाम दिसि लेई ।
मनहुँ सकल मंगल कहि देई॥


बारात ऐसी बनी है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता। सुन्दर शुभदायक शकुन हो रहे हैं। नीलकंठ पक्षी बायीं ओर चारा ले रहा है, मानो सम्पूर्ण मङ्गलोंकी सूचना दे रहा हो॥१॥

दाहिन काग सुखेत सुहावा ।
नकुल दरसु सब काहूँ पावा।
सानुकूल बह त्रिबिध बयारी ।
सघट सबाल आव बर नारी॥


दाहिनी ओर कौआ सुन्दर खेतमें शोभा पा रहा है। नेवलेका दर्शन भी सब किसीने पाया। तीनों प्रकारकी (शीतल, मन्द, सुगन्धित) हवा अनुकूल दिशामें चल रही है। श्रेष्ठ (सुहागिनी) स्त्रियाँ भरे हुए घड़े और गोदमें बालक लिये आ रही हैं ॥२॥

लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा ।
सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा॥
मृगमाला फिरि दाहिनि आई ।
मंगल गन जनु दीन्हि देखाई॥


लोमड़ी फिर-फिरकर (बार-बार) दिखायी दे जाती है। गायें सामने खड़ी बछड़ोंको दूध पिलाती हैं। हरिनोंकी टोली [बायीं ओरसे] घूमकर दाहिनी ओरको आयी, मानो सभी मङ्गलोंका समूह दिखायी दिया॥३॥

छेमकरी कह छम बिसेषी ।
स्यामा बाम सुतरु पर देखी।
सनमुख आयउ दधि अरु मीना ।
कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना॥


क्षेमकरी (सफेद सिरवाली चील) विशेष रूपसे क्षेम (कल्याण) कह रही है। श्यामा बायीं ओर सुन्दर पेड़पर दिखायी पड़ी। दही, मछली और दो विद्वान् ब्राह्मण हाथमें पुस्तक लिये हुए सामने आये॥४॥

दो०- मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार।
जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार॥३०३॥


सभी मङ्गलमय, कल्याणमय और मनोवाञ्छित फल देनेवाले शकुन मानो सच्चे होनेके लिये एक ही साथ हो गये ॥ ३०३ ॥


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