मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड) रामचरितमानस अर्थात् रामायण(बालकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में गोस्वामी जी इस मनोहारी राम कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।
बारात का जनकपुर में आना और स्वागतादि
सगुन ब्रह्म सुंदर सुत जाकें।
राम सरिस बरु दुलहिनि सीता ।
समधी दसरथु जनकु पुनीता॥
स्वयं सगुण ब्रह्म जिसके सुन्दर पुत्र हैं, उसके लिये सब मङ्गल शकुन सुलभ हैं। जहाँ श्रीरामचन्द्रजी-सरीखे दूल्हा और सीताजी-जैसी दुलहिन हैं तथा दशरथजी और जनकजी-जैसे पवित्र समधी हैं, ॥१॥
अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे॥
एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना ।
हय गय गाजहिं हने निसाना॥
ऐसा ब्याह सुनकर मानो सभी शकुन नाच उठे [और कहने लगे-] अब ब्रह्माजीने हमको सच्चा कर दिया। इस तरह बारात ने प्रस्थान किया। घोड़े, हाथी गरज रहे हैं और नगाड़ोंपर चोट लग रही है॥२॥
सरितन्हि जनक बँधाए सेतू॥
बीच बीच बर बास बनाए।
सुरपुर सरिस संपदा छाए।
सूर्यवंशके पताकास्वरूप दशरथजीको आते हुए जानकर जनकजीने नदियोंपर पुल बँधवा दिये। बीच-बीचमें ठहरनेके लिये सुन्दर घर (पड़ाव) बनवा दिये, जिनमें देवलोकके समान सम्पदा छायी है, ॥३॥
पावहिं सब निज निज मन भाए।
नित नूतन सुख लखि अनुकूले।
सकल बरातिन्ह मंदिर भूले॥
और जहाँ बारातके सब लोग अपने-अपने मनकी पसंदके अनुसार सुहावने उत्तम भोजन, बिस्तर और वस्त्र पाते हैं। मनके अनुकूल नित्य नये सुखोंको देखकर सभी बरातियोंको अपने घर भूल गये॥४॥
सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान॥३०४॥
बड़े जोरसे बजते हुए नगाड़ोंकी आवाज सुनकर श्रेष्ठ बारातको आती हुई जानकर अगवानी करनेवाले हाथी, रथ, पैदल और घोड़े सजाकर बारात लेने चले॥३०४॥
भाजन ललित अनेक प्रकारा॥
भरे सुधा सम सब पकवाने ।
नाना भाँति न जाहिं बखाने॥
[दूध, शर्बत, ठंढाई, जल आदिसे] भरकर सोनेके कलश तथा जिनका वर्णन नहीं हो सकता ऐसे अमृतके समान भाँति-भांतिके सब पकवानोंसे भरे हुए परात, थाल आदि अनेक प्रकारके सुन्दर बर्तन, ॥१॥
हरषि भेंट हित भूप पठाईं।
भूषन बसन महामनि नाना ।
खग मृग हय गय बहुबिधि जाना।
उत्तम फल तथा और भी अनेकों सुन्दर वस्तुएँ राजाने हर्षित होकर भेंटके लिये भेजी। गहने, कपड़े, नाना प्रकारकी मूल्यवान् मणियाँ (रत्न), पक्षी, पशु, घोड़े, हाथी और बहुत तरहकी सवारियाँ, ॥२॥
बहुत भाँति महिपाल पठाए॥
दधि चिउरा उपहार अपारा ।
भरि भरि काँवरि चले कहारा॥
तथा बहुत प्रकारके सुगन्धित एवं सुहावने मङ्गल-द्रव्य और सगुनके पदार्थ राजाने भेजे। दही, चिउड़ा और अगणित उपहारकी चीजें काँवरोंमें भर-भरकर कहार चले॥३॥
उर आनंदु पुलक भर गाता॥
देखि बनाव सहित अगवाना ।
मुदित बरातिन्ह हने निसाना॥
अगवानी करनेवालोंको जब बारात दिखायी दी, तब उनके हृदयमें आनन्द छा गया और शरीर रोमाञ्चसे भर गया। अगवानोंको सज-धजके साथ देखकर बरातियोंने प्रसन्न होकर नगाड़े बजाये॥४॥
जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल॥३०५॥
[बराती तथा अगवानोंमेंसे] कुछ लोग परस्पर मिलनेके लिये हर्षके मारे बाग छोड़कर (सरपट) दौड़ चले, और ऐसे मिले मानो आनन्दके दो समुद्र मर्यादा छोड़कर मिलते हों ॥३०५ ॥
मुदित देव दुंदुभी बजावहिं॥
बस्तु सकल राखी नृप आगें ।
बिनय कीन्हि तिन्ह अति अनुरागें॥
देवसुन्दरियाँ फूल बरसाकर गीत गा रही हैं, और देवता आनन्दित होकर नगाड़े बजा रहे हैं। [अगवानीमें आये हुए] उन लोगोंने सब चीजें दशरथजीके आगे रख दी और अत्यन्त प्रेमसे विनती की॥१॥
भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा॥
करि पूजा मान्यता बड़ाई।
जनवासे कहुँ चले लवाई॥
राजा दशरथजीने प्रेमसहित सब वस्तुएँ ले ली, फिर उनकी बख्शीशें होने लगीं और वे याचकोंको दे दी गयीं । तदनन्तर पूजा, आदर-सत्कार और बड़ाई करके अगवान लोग उनको जनवासेकी ओर लिवा ले चले ॥२॥
देखि धनदु धन मदु परिहरहीं।
अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा ।
जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा॥
विलक्षण वस्त्रोंके पाँवड़े पड़ रहे हैं, जिन्हें देखकर कुबेर भी अपने धनका अभिमान छोड़ देते हैं। बड़ा सुन्दर जनवासा दिया गया, जहाँ सबको सब प्रकारका सुभीता था॥३॥
कछु निज महिमा प्रगटि जनाई॥
हृदय सुमिरि सब सिद्धि बोलाई ।
भूप पहुनई करन पठाईं।
सीताजीने बारात जनकपुरमें आयी जानकर अपनी कुछ महिमा प्रकट करके दिखलायी। हृदयमें स्मरणकर सब सिद्धियोंको बुलाया और उन्हें राजा दशरथजीकी मेहमानी करनेके लिये भेजा ॥४॥
लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास ॥३०६॥
सीताजीकी आज्ञा सुनकर सब सिद्धियाँ जहाँ जनवासा था वहाँ सारी सम्पदा, सुख और इन्द्रपुरीके भोग-विलासको लिये हुए गयीं ॥ ३०६ ॥
सुरसुख सकल सुलभ सब भाँती॥
बिभव भेद कछु कोउ न जाना।
सकल जनक कर करहिं बखाना॥
बरातियोंने अपने-अपने ठहरनेके स्थान देखे तो वहाँ देवताओंके सब सुखोंको सब प्रकारसे सुलभ पाया। इस ऐश्वर्यका कुछ भी भेद कोई जान न सका। सब जनकजीकी बड़ाई कर रहे हैं ॥१॥
हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी॥
पितु आगमनु सुनत दोउ भाई ।
हृदयँ न अति आनंदु अमाई॥
श्रीरघुनाथजी यह सब सीताजीकी महिमा जानकर और उनका प्रेम पहचानकर हृदयमें हर्षित हुए। पिता दशरथजीके आनेका समाचार सुनकर दोनों भाइयोंके हृदयमें महान् आनन्द समाता न था॥२॥
पितु दरसन लालचु मन माहीं॥
बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी।
उपजा उर संतोषु बिसेषी॥
संकोचवश वे गुरु विश्वामित्रजीसे कह नहीं सकते थे; परन्तु मनमें पिताजीके दर्शनोंकी लालसा थी। विश्वामित्रजीने उनकी बड़ी नम्रता देखी, तो उनके हृदयमें बहुत सन्तोष उत्पन्न हुआ॥३॥
पुलक अंग अंबक जल छाए॥
चले जहाँ दसरथु जनवासे ।
मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे॥
प्रसन्न होकर उन्होंने दोनों भाइयोंको हृदयसे लगा लिया। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रोंमें (प्रेमाश्रुओंका) जल भर आया। वे उस जनवासेको चले, जहाँ दशरथजी थे। मानो सरोवर प्यासेकी ओर लक्ष्य करके चला हो॥४॥
उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत॥३०७॥
जब राजा दशरथजीने पुत्रोंसहित मुनिको आते देखा, तब वे हर्षित होकर उठे और सुखके समुद्रमें थाह-सी लेते हुए चले॥ ३०७॥
बार बार पद रज धरि सीसा॥
कौसिक राउ लिए उर लाई।
कहि असीस पूछी कुसलाई॥
पृथ्वीपति दशरथजीने मुनिकी चरणधूलिको बारंबार सिरपर चढ़ाकर उनको दण्डवत्-प्रणाम किया। विश्वामित्रजीने राजाको उठाकर हृदयसे लगा लिया और आशीर्वाद देकर कुशल पूछी ॥१॥
देखि नृपति उर सुखु न समाई॥
सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे ।
मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे।
फिर दोनों भाइयोंको दण्डवत्-प्रणाम करते देखकर राजाके हृदयमें सुख समाया नहीं। पुत्रोंको [उठाकर] हृदयसे लगाकर उन्होंने अपने [वियोगजनित] दुःसह दुःखको मिटाया। मानो मृतक शरीरको प्राण मिल गये हों॥२॥
प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए॥
बिप्र बंद बंदे दुहुँ भाई।
मनभावती असीसें पाईं।
फिर उन्होंने वसिष्ठजीके चरणोंमें सिर नवाया। मुनिश्रेष्ठने प्रेमके आनन्दमें उन्हें हृदयसे लगा लिया। दोनों भाइयोंने सब ब्राह्मणोंकी वन्दना की और मनभाये आशीर्वाद पाये॥ ३॥
लिए उठाइ लाइ उर रामा॥
हरषे लखन देखि दोउ भ्राता ।
मिले प्रेम परिपूरित गाता॥
भरतजीने छोटे भाई शत्रुघ्नसहित श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम किया। श्रीरामजीने उन्हें उठाकर हृदयसे लगा लिया। लक्ष्मणजी दोनों भाइयोंको देखकर हर्षित हुए और प्रेमसे परिपूर्ण हुए शरीरसे उनसे मिले ॥४॥
मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत।। ३०८॥
तदनन्तर परम कृपालु और विनयी श्रीरामचन्द्रजी अयोध्यावासियों, कुटुम्बियों, जातिके लोगों, याचकों, मन्त्रियों और मित्रों-सभीसे यथायोग्य मिले॥३०८।।।
प्रीति कि रीति न जाति बखानी॥
नृप समीप सोहहिं सुत चारी ।
जनु धन धरमादिक तनुधारी॥
श्रीरामचन्द्रजीको देखकर बारात शीतल हुई (रामके वियोगमें सबके हृदयमें जो आग जल रही थी, वह शान्त हो गयी)। प्रीतिकी रीतिका बखान नहीं हो सकता। राजाके पास चारों पुत्र ऐसी शोभा पा रहे हैं मानो अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष शरीर धारण किये हुए हों॥१॥
मुदित नगर नर नारि बिसेषी॥
सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना ।
नाकनीं नाचहिं करि गाना॥
पुत्रोंसहित दशरथजीको देखकर नगरके स्त्री-पुरुष बहुत ही प्रसन्न हो रहे हैं। [आकाशमें] देवता फूलोंकी वर्षा करके नगाड़े बजा रहे हैं और अप्सराएँ गा-गाकर नाच रही हैं ॥२॥
मागध सूत बिदुष बंदीजन॥
सहित बरात राउ सनमाना ।
आयसु मागि फिरे अगवाना॥
अगवानीमें आये हुए शतानन्दजी, अन्य ब्राह्मण, मन्त्रीगण, मागध, सूत, विद्वान् और भाटोंने बारातसहित राजा दशरथजीका आदर-सत्कार किया। फिर आज्ञा लेकर वे वापस लौटे ॥३॥
तातें पुर प्रमोदु अधिकाई॥
ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं।
बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं।
बारात लग्नके दिनसे पहले आ गयी है, इससे जनकपुरमें अधिक आनन्द छा रहा है। सब लोग ब्रह्मानन्द प्राप्त कर रहे हैं और विधातासे मनाकर कहते हैं कि दिन-रात बढ़ जायँ (बड़े हो जायँ) ॥४॥
जहँ तहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज॥३०९॥
श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी सुन्दरताकी सीमा हैं और दोनों राजा पुण्यकी सीमा हैं, जहाँ-तहाँ जनकपुरवासी स्त्री-पुरुषोंके समूह इकट्ठे हो-होकर यही कह रहे हैं । ३०९॥
दसरथ सुकृत रामु धरें देही।
इन्ह सम काहुँ न सिव अवराधे ।
काहुँ न इन्ह समान फल लाधे॥
जनकजीके सुकृत (पुण्य) की मूर्ति जानकीजी हैं और दशरथजीके सुकृत देह धारण किये हुए श्रीरामजी हैं। इन [दोनों राजाओं] के समान किसीने शिवजीकी आराधना नहीं की; और न इनके समान किसीने फल ही पाये ॥१॥
है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं॥
हम सब सकल सुकृत कै रासी ।
भए जग जनमि जनकपुर बासी॥
इनके समान जगतमें न कोई हुआ, न कहीं है, न होनेका ही है। हम सब भी सम्पूर्ण पुण्योंकी राशि हैं, जो जगतमें जन्म लेकर जनकपुरके निवासी हुए, ॥२॥
को सुकृती हम सरिस बिसेषी।।
पुनि देखब रघुबीर बिआहू ।
लेब भली बिधि लोचन लाहू॥
और जिन्होंने जानकीजी और श्रीरामचन्द्रजीकी छबि देखी है। हमारे-सरीखा विशेष पुण्यात्मा कौन होगा! और अब हम श्रीरघुनाथजीका विवाह देखेंगे और भलीभाँति नेत्रोंका लाभ लेंगे॥३॥
एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं।
बड़ें भाग बिधि बात बनाई।
नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई॥
कोयलके समान मधुर बोलनेवाली स्त्रियाँ आपसमें कहती हैं कि हे सुन्दर नेत्रोंवाली! इस विवाहमें बड़ा लाभ है। बड़े भाग्यसे विधाताने सब बात बना दी है, ये दोनों भाई हमारे नेत्रोंके अतिथि हुआ करेंगे॥४॥
लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय॥३१०॥
जनकजी स्नेहवश बार-बार सीताजीको बुलावेंगे, और करोड़ों कामदेवोंके समान सुन्दर दोनों भाई सीताजीको लेने (विदा कराने) आया करेंगे॥३१० ॥
प्रिय न काहि अस सासुर माई॥
तब तब राम लखनहि निहारी ।
होइहहिं सब पुर लोग सुखारी॥
तब उनकी अनेकों प्रकारसे पहुनाई होगी। सखी! ऐसी ससुराल किसे प्यारी न होगी! तब-तब हम सब नगरनिवासी श्रीराम-लक्ष्मणको देख-देखकर सुखी होंगे॥१॥
तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा॥
स्याम गौर सब अंग सुहाए ।
ते सब कहहिं देखि जे आए।
हे सखी! जैसा श्रीराम-लक्ष्मणका जोड़ा है, वैसे ही दो कुमार राजाके साथ और भी हैं। वे भी एक श्याम और दूसरे गौर वर्णके हैं, उनके भी सब अङ्ग बहुत सुन्दर हैं। जो लोग उन्हें देख आये हैं, वे सब यही कहते हैं ॥२॥
जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे ।
भरतु रामही की अनुहारी ।
सहसा लखि न सकहिं नर नारी॥
एकने कहा-मैंने आज ही उन्हें देखा है; इतने सुन्दर हैं, मानो ब्रह्माजीने उन्हें अपने हाथों सँवारा है। भरत तो श्रीरामचन्द्रजीकी ही शकल-सूरतके हैं। स्त्री-पुरुष उन्हें सहसा पहचान नहीं सकते ॥३॥
नख सिख ते सब अंग अनूपा॥
मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं ।
उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥
लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनोंका एक रूप है। दोनोंके नखसे शिखातक सभी अङ्ग अनुपम हैं। मनको बड़े अच्छे लगते हैं, पर मुखसे उनका वर्णन नहीं हो सकता। उनकी उपमाके योग्य तीनों लोकोंमें कोई नहीं है॥४॥
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