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रामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2086
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

श्रीराम-कौसल्या-सीता-संवाद



श्रीरामचन्द्रजी ने प्रिय वचन कहकर प्रियतमा सीताजी को समझाया। फिर माताके पैरों लगकर आशीर्वाद प्राप्त किया। [माताने कहा--] बेटा! जल्दी लौटकर प्रजाके दुःखको मिटाना और यह निठुर माता तुम्हें भूल न जाय!॥३॥

फिरिहि दसा बिधि बहुरि कि मोरी।
देखिहउँ नयन मनोहर जोरी॥
सुदिन सुघरी तात कब होइहि।
जननी जिअत बदन बिधु जोइहि॥

हे विधाता! क्या मेरी दशा भी फिर पलटेगी? क्या अपने नेत्रोंसे मैं इस मनोहर जोड़ीको फिर देख पाऊँगी? हे पुत्र! वह सुन्दर दिन और शुभ घड़ी कब होगी जब तुम्हारी जननी जीते-जी तुम्हारा चाँद-सा मुखड़ा फिर देखेगी!॥४॥

दो०- बहुरि बच्छ कहि लालु कहि रघुपति रघुबर तात।
कबहिं बोलाइ लगाइ हियँ हरषि निरखिहउँ गात॥६८॥

हे तात! 'वत्स' कहकर, 'लाल' कहकर, 'रघुपति' कहकर, 'रघुवर' कहकर, मैं फिर कब तुम्हें बुलाकर हृदयसे लगाऊँगी और हर्षित होकर तुम्हारे अङ्गोंको देगी!॥६८॥

लखि सनेह कातरि महतारी।
बचनु न आव बिकल भइ भारी॥
राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना।
समउ सनेहु न जाइ बखाना॥


यह देखकर कि माता स्नेहके मारे अधीर हो गयी हैं और इतनी अधिक व्याकुल हैं कि मुँहसे वचन नहीं निकलता, श्रीरामचन्द्रजीने अनेक प्रकारसे उन्हें समझाया। वह समय और स्नेह वर्णन नहीं किया जा सकता॥१॥

तब जानकी सासु पग लागी।
सुनिअ माय मैं परम अभागी॥
सेवा समय दैों बनु दीन्हा।
मोर मनोरथु सफल न कीन्हा।।


तब जानकीजी सासके पाँव लगी और बोली-हे माता! सुनिये, मैं बड़ी ही अभागिनी हूँ। आपकी सेवा करनेके समय दैवने मुझे वनवास दे दिया। मेरा मनोरथ सफल न किया॥२॥

तजब छोभु जनि छाडिअ छोहू।
करमु कठिन कछु दोसु न मोहू॥
सुनि सिय बचन सासु अकुलानी।
दसा कवनि बिधि कहौं बखानी॥


आप क्षोभका त्याग कर दें, परंतु कृपा न छोड़ियेगा। कर्मकी गति कठिन है, मुझे भी कुछ दोष नहीं है। सीताजीके वचन सुनकर सास व्याकुल हो गयीं। उनकी दशाको मैं किस प्रकार बखानकर कहूँ!॥३॥

बारहिं बार लाइ उर लीन्ही।
धरि धीरजु सिख आसिष दीन्ही॥
अचल होउ अहिवातु तुम्हारा।
जब लगि गंग जमुन जल धारा॥


उन्होंने सीताजीको बार-बार हृदयसे लगाया और धीरज धरकर शिक्षा दी और आशीर्वाद दिया कि जबतक गङ्गाजी और यमुनाजीमें जलकी धारा बहे, तबतक तुम्हारा सुहाग अचल रहे॥४॥

दो०- सीतहि सासु असीस सिख दीन्हि अनेक प्रकार।
चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार॥६९॥


सीताजीको सासने अनेकों प्रकारसे आशीर्वाद और शिक्षाएँ दी और वे (सीताजी) बड़े ही प्रेमसे बार-बार चरणकमलोंमें सिर नवाकर चलीं॥६९॥

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