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रामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2086
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

भरद्वाज द्वारा भरत का सत्कार



सुनत राम गुन ग्राम सुहाए।
भरद्वाज मुनिबर पहिं आए।
दंड प्रनामु करत मुनि देखे।
मूरतिमंत भाग्य निज लेखे।

श्रीरामचन्द्रजीके सुन्दर गुणसमूहोंको सुनते हुए वे मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजीके पास आये। मुनिने भरतजीको दण्डवत्-प्रणाम करते देखा और उन्हें अपना मूर्तिमान् सौभाग्य समझा ॥ २ ॥

धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे।
दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे॥
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे।
चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे।


उन्होंने दौड़कर भरतजीको उठाकर हृदयसे लगा लिया और आशीर्वाद देकर कृतार्थ किया। मुनि ने उन्हें आसन दिया। वे सिर नवाकर इस तरह बैठे मानो भागकर संकोच के घर में घुस जाना चाहते हैं ॥३॥

मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू।
बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू॥
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई।
बिधि करतब पर किछु न बसाई॥


उनके मन में यह बड़ा सोच है कि मुनि कुछ पूछेगे [तो मैं क्या उत्तर दूंगा]। भरतजी के शील और संकोचको देखकर ऋषि बोले-भरत ! सुनो, हम सब खबर पा चुके हैं। विधाताके कर्तव्यपर कुछ वश नहीं चलता ॥४॥

तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझि मातु करतूति।।
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति ॥ २०६॥

माता की करतूत को समझकर (याद करके) तुम हृदय में ग्लानि मत करो। हे तात! कैकेयी का कोई दोष नहीं है, उसकी बुद्धि तो सरस्वती बिगाड़ गयी थी॥२०६।।

यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ।
लोकु बेद् बुध संमत दोऊ॥
तात तुम्हार बिमल जसु गाई।
पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई॥

यह कहते भी कोई भला न कहेगा, क्योंकि लोक और वेद दोनों ही विद्वानोंको मान्य है। किन्तु हे तात! तुम्हारा निर्मल यश गाकर तो लोक और वेद दोनों बड़ाई पावेंगे॥१॥

लोक बेद संमत सबु कहई।
जेहि पितु देइ राजु सो लहई॥
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई।
देत राजु सुखु धरमु बड़ाई।

यह लोक और वेद दोनोंको मान्य है और सब यही कहते हैं कि पिता जिसको राज्य दे वही पाता है। राजा सत्यव्रती थे; तुमको बुलाकर राज्य देते, तो सुख मिलता, धर्म रहता और बड़ाई होती ॥२॥

राम गवनु बन अनरथ मूला।
जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला।
सो भावी बस रानि अयानी।
करि कुचालि अंतहुँ पछितानी॥

सारे अनर्थ की जड़ तो श्रीरामचन्द्रजी का वनगमन है, जिसे सुनकर समस्त संसार को पीड़ा हुई। वह श्रीराम का वनगमन भी भावीवश हुआ। बेसमझ रानी तो भावीवश कुचाल करके अन्तमें पछतायी॥३॥

तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू।
कहै सो अधम अयान असाधू॥
करतेहु राजु त तुम्हहि न दोषू।
रामहि होत सुनत संतोषू॥


उसमें भी तुम्हारा कोई तनिक-सा भी अपराध कहे, तो वह अधम, अज्ञानी और असाधु है। यदि तुम राज्य करते तो भी तुम्हें दोष न होता। सुनकर श्रीरामचन्द्रजीको भी सन्तोष ही होता ॥ ४॥

अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु।
सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु।। २०७॥

हे भरत! अब तो तुमने बहुत ही अच्छा किया; यही मत तुम्हारे लिये उचित था। श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रेम होना ही संसारमें समस्त सुन्दर मङ्गलोंका मूल है।। २०७॥

सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना।
भूरिभाग को तुम्हहि समाना॥
यह तुम्हार आचरजु न ताता।
दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता।

सो वह (श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंका प्रेम) तो तुम्हारा धन, जीवन और प्राण ही है; तुम्हारे समान बड़भागी कौन है ? हे तात! तुम्हारे लिये यह आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि तुम दशरथजीके पुत्र और श्रीरामचन्द्रजीके प्यारे भाई हो ॥१॥

सुनहु भरत रघुबर मन माहीं।
पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं॥
लखन राम सीतहि अति प्रीती।
निसि सब तुम्हहि सराहत बीती॥

हे भरत ! सुनो, श्रीरामचन्द्रजीके मनमें तुम्हारे समान प्रेमपात्र दूसरा कोई नहीं है। लक्ष्मणजी, श्रीरामजी और सीताजी तीनोंको सारी रात उस दिन अत्यन्त प्रेमके साथ तुम्हारी सराहना करते ही बीती ॥ २॥

जाना मरमु नहात प्रयागा।
मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा॥
तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें।
सुख जीवन जग जस जड़ नर कें॥

प्रयागराजमें जब वे स्नान कर रहे थे, उस समय मैंने उनका यह मर्म जाना। वे तुम्हारे प्रेममें मग्न हो रहे थे। तुमपर श्रीरामचन्द्रजीका ऐसा ही (अगाध) स्नेह है जैसा मूर्ख (विषयासक्त) मनुष्यका संसारमें सुखमय जीवनपर होता है॥३॥

यह न अधिक रघुबीर बड़ाई।
प्रनत कुटुंब पाल रघुराई।
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू।
धरें देह जनु राम सनेहू।

यह श्रीरघुनाथजीकी बहुत बड़ाई नहीं है। क्योंकि श्रीरघुनाथजी तो शरणागतके कुटुम्बभरको पालनेवाले हैं। हे भरत! मेरा यह मत है कि तुम तो मानो शरीरधारी श्रीरामजीके प्रेम ही हो॥४॥

तुम्ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु।
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु॥२०८॥


हे भरत! तुम्हारे लिये (तुम्हारी समझमें) यह कलङ्क है, पर हम सबके लिये तो उपदेश है। श्रीरामभक्तिरूपी रसकी सिद्धिके लिये यह समय गणेश (बड़ा शुभ) हुआ है। २०८॥

नव बिधु बिमल तात जसु तोरा।
रघुबर किंकर कुमुद चकोरा॥
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना।
घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना॥

हे तात! तुम्हारा यश निर्मल नवीन चन्द्रमा है और श्रीरामचन्द्रजीके दास कुमुद और चकोर हैं [वह चन्द्रमा तो प्रतिदिन अस्त होता और घटता है, जिससे कुमुद और चकोरको दुःख होता है]; परन्तु यह तुम्हारा यशरूपी चन्द्रमा सदा उदय रहेगा; कभी अस्त होगा ही नहीं। जगत्पी आकाशमें यह घटेगा नहीं, वरं दिन दिन दूना होगा ॥१॥

कोक तिलोक प्रीति अति करिही।
प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही।
निसि दिन सुखद सदा सब काहू।
ग्रसिहि न कैकई करतबु राहू।।


त्रैलोक्यरूपी चकवा इस यशरूपी चन्द्रमापर अत्यन्त प्रेम करेगा और प्रभु श्रीरामचन्द्रजीका प्रतापरूपी सूर्य इसकी छविको हरण नहीं करेगा। यह चन्द्रमा रात-दिन सदा सब किसीको सुख देनेवाला होगा। कैकेयीका कुकर्मरूपी राहु इसे ग्रास नहीं करेगा ॥२॥

पूरन राम सुपेम पियूषा।
गुर अवमान दोष नहिं दूषा॥
राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ।
कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ।

यह चन्द्रमा श्रीरामचन्द्रजी के सुन्दर प्रेमरूपी अमृतसे पूर्ण है। यह गुरुके अपमानरूपी दोष से दूषित नहीं है। तुमने इस यशरूपी चन्द्रमा की सृष्टि करके पृथ्वीपर भी अमृतको सुलभ कर दिया। अब श्रीरामजीके भक्त इस अमृतसे तृप्त हो लें ॥३॥

भूप भगीरथ सुरसरि आनी।
सुमिरत सकल सुमंगल खानी॥
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं।
अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं॥

राजा भगीरथ गङ्गाजीको लाये, जिन (गङ्गाजी) का स्मरण ही सम्पूर्ण सुन्दर मङ्गलोंकी खान है। दशरथजीके गुणसमूहोंका तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता; अधिक क्या, जिनकी बराबरीका जगत्में कोई नहीं है ॥४॥

जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आइ।
जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ॥२०९॥


जिनके प्रेम और संकोच (शील) के वशमें होकर स्वयं [सच्चिदानन्दघन] भगवान् श्रीराम आकर प्रकट हुए, जिन्हें श्रीमहादेवजी अपने हृदयके नेत्रोंसे कभी अघाकर नहीं देख पाये (अर्थात् जिनका स्वरूप हृदयमें देखते-देखते शिवजी कभी तृप्त नहीं हुए)॥२०९॥

कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा।
जहँ बस राम पेम मृगरूपा॥
तात गलानि करहु जियँ जाएँ।
डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ।

[परन्तु उनसे भी बढ़कर] तुमने कीर्तिरूपी अनुपम चन्द्रमाको उत्पन्न किया, जिसमें श्रीरामप्रेम ही हिरनके [चिह्नके] रूपमें बसता है। हे तात! तुम व्यर्थ ही हृदयमें ग्लानि कर रहे हो। पारस पाकर भी तुम दरिद्रतासे डर रहे हो! ॥१॥

सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं।
उदासीन तापस बन रहहीं॥
सब साधन कर सुफल सुहावा।
लखन राम सिय दरसनु पावा॥

हे भरत! सुनो, हम झूठ नहीं कहते। हम उदासीन हैं (किसीका पक्ष नहीं करते), तपस्वी हैं (किसीकी मुँह-देखी नहीं कहते) और वनमें रहते हैं (किसीसे कुछ प्रयोजन नहीं रखते)। सब साधनोंका उत्तम फल हमें लक्ष्मणजी, श्रीरामजी और सीताजीका दर्शन प्राप्त हुआ॥२॥

तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा।
सहित पयाग सुभाग हमारा॥
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ।
कहि अस पेम मगन मुनि भयऊ।।


[सीता-लक्ष्मणसहित श्रीरामदर्शनरूप] उस महान् फलका परम फल यह तुम्हारा दर्शन है! प्रयागराजसमेत हमारा बड़ा भाग्य है। हे भरत! तुम धन्य हो, तुमने अपने यशसे जगत्को जीत लिया है। ऐसा कहकर मुनि प्रेममें मग्न हो गये॥ ३ ॥

सुनि मुनि बचन सभासद हरषे।
साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥
धन्य धन्य धुनि गगन पयागा।
सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा॥


भरद्वाज मनिके वचन सुनकर सभासद हर्षित हो गये। 'साधु-साधु' कहकर सराहना करते हुए देवताओंने फूल बरसाये। आकाशमें और प्रयागराजमें 'धन्य, धन्य' की ध्वनि सुन-सुनकर भरतजी प्रेममें मग्न हो रहे हैं ॥ ४॥

पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन।
करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन ॥२१०॥


भरतजी का शरीर पुलकित है, हृदयमें श्रीसीतारामजी हैं और कमल के समान नेत्र [प्रेमाश्रुके] जलसे भरे हैं। वे मुनियों की मण्डली को प्रणाम करके गद्गद वचन बोले- ॥ २१०॥

मुनि समाजु अरु तीरथराजू।
साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू॥
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई।
एहि सम अधिक न अघ अधमाई॥


मुनियोंका समाज है और फिर तीर्थराज है। यहाँ सच्ची सौगंध खानेसे भी भरपूर हानि होती है। इस स्थानमें यदि कुछ बनाकर कहा जाय, तो इसके समान कोई बड़ा पाप और नीचता न होगी ॥१॥

तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ।
उर अंतरजामी रघुराऊ।
मोहि न मातु करतब कर सोचू।
नहिं दुखु जिय जगु जानिहि पोचू॥


मैं सच्चे भावसे कहता हूँ। आप सर्वज्ञ हैं, और श्रीरघुनाथजी हृदयके भीतरकी जाननेवाले हैं (मैं कुछ भी असत्य कहूँगा तो आपसे और उनसे छिपा नहीं रह सकता)। मुझे माता कैकेयीकी करनीका कुछ भी सोच नहीं है। और न मेरे मन में इसी बात का दुःख है कि जगत् मुझे नीच समझेगा॥२॥

नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू।
पितहु मरन कर मोहि न सोकू॥
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए।
लछिमन राम सरिस सुत पाए।


न यही डर है कि मेरा परलोक बिगड़ जायगा और न पिताजीके मरनेका ही मुझे शोक है। क्योंकि उनका सुन्दर पुण्य और सुयश विश्वभरमें सुशोभित है। उन्होंने श्रीराम-लक्ष्मण-सरीखे पुत्र पाये॥३॥

राम बिरहँ तजि तनु छनभंगू।
भूप सोच कर कवन प्रसंगू॥
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं।
करि मुनि बेष फिरहिं बन बनहीं॥

 
फिर जिन्होंने श्रीरामचन्द्रजी के विरहमें अपने क्षणभङ्गर शरीर को त्याग दिया, ऐसे राजाके लिये सोच करने का कौन प्रसंग है? [सोच इसी बातका है कि] श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी पैरोंमें बिना जूतीके मुनियोंका वेष बनाये वन-वनमें फिरते हैं ॥ ४॥

अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात॥२११॥


वे वल्कल वस्त्र पहनते हैं, फलोंका भोजन करते हैं, पृथ्वीपर कुश और पत्ते बिछाकर सोते हैं और वृक्षोंके नीचे निवास करके नित्य सर्दी, गर्मी, वर्षा और हवा सहते हैं ॥२११॥

एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती।
भूख न बासर नीद न राती॥
एहि कुरोग कर औषधु नाहीं।
सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं॥


इसी दुःखकी जलनसे निरन्तर मेरी छाती जलती रहती है। मुझे न दिनमें भूख लगती है, न रातको नींद आती है। मैंने मन-ही-मन समस्त विश्वको खोज डाला, पर इस कुरोगकी औषध कहीं नहीं है ॥१॥

मातु कुमत बढ़ई अघ मूला।
तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला॥
कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू।
गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रू॥

माताका कुमत (बुरा विचार) पापोंका मूल बढ़ई है। उसने हमारे हित का बसूला बनाया। उससे कलहरूपी कुकाठ का कुयन्त्र बनाया और चौदह वर्ष की अवधिरूपी कठिन कुमन्त्र पढ़कर उस यन्त्रको गाड़ दिया। [यहाँ माताका कुविचार बढ़ई है, भरतको राज्य बसूला है, रामका वनवास कुयन्त्र है और चौदह वर्ष की अवधि कुमन्त्र है] ॥२॥

मोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा।
घालेसि सब जगु बारहबाटा॥
मिटइ कुजोगु राम फिरि आएँ।
बसइ अवध नहिं आन उपाएँ।


मेरे लिये उसने यह सारा कुठाट (बुरा साज) रचा और सारे जगत्को बारहबाट (छिन्न-भिन्न) करके नष्ट कर डाला। यह कुयोग श्रीरामचन्द्रजीके लौट आनेपर ही मिट सकता है और तभी अयोध्या बस सकती है, दूसरे किसी उपायसे नहीं ॥३॥

भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई।
सबहिं कीन्हि बहु भाँति बड़ाई।
तात करहु जनि सोचु बिसेषी।
सब दुखु मिटिहि राम पग देखी।


भरतजीके वचन सुनकर मुनिने सुख पाया और सभीने उनकी बहुत प्रकारसे बड़ाई की। [मुनिने कहा--] हे तात! अधिक सोच मत करो। श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंका दर्शन करते ही सारा दुःख मिट जायगा॥४॥

करि प्रबोधु मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु।
कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु ॥२१२॥


इस प्रकार मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजीने उनका समाधान करके कहा-अब आपलोग हमारे प्रेमप्रिय अतिथि बनिये और कृपा करके कन्द-मूल, फल-फूल जो कुछ हम दें, स्वीकार कीजिये ॥ २१२ ॥

सुनि मुनि बचन भरत हियँ सोचू।
भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू॥
जानि गरुइ गुर गिरा बहोरी।
चरन बंदि बोले कर जोरी॥


मुनि के वचन सुनकर भरतके हृदयमें सोच हुआ कि यह बेमौके बड़ा बेढब संकोच आ पडा! फिर गुरुजनों की वाणी को महत्त्वपूर्ण (आदरणीय) समझकर. चरणोंकी वन्दना करके हाथ जोड़कर बोले- ॥१॥

सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा।
परम धरम यहु नाथ हमारा॥
भरत बचन मुनिबर मन भाए।
सुचि सेवक सिष निकट बोलाए॥


हे नाथ! आपकी आज्ञाको सिर चढ़ाकर उसका पालन करना, यह हमारा परम धर्म है। भरतजी के ये वचन मुनिश्रेष्ठ के मन को अच्छे लगे। उन्होंने विश्वासपात्र सेवकों और शिष्यों को पास बुलाया॥२॥

चाहिअ कीन्हि भरत पहुनाई।
कंद मूल फल आनहु जाई॥
भलेहिं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए।
प्रमुदित निज निज काज सिधाए।


[और कहा कि] भरत की पहुनई करनी चाहिये। जाकर कन्द, मूल और फल लाओ। उन्होंने 'हे नाथ! बहुत अच्छा' कहकर सिर नवाया और तब वे बड़े आनन्दित होकर अपने-अपने कामको चल दिये॥३॥

मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता।
तसि पूजा चाहिअ जस देवता॥
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आईं।
आयसु होइ सो करहिं गोसाईं॥


मुनिको चिन्ता हुई कि हमने बहुत बड़े मेहमान को न्योता है। अब जैसा देवता हो, वैसी ही उसकी पूजा भी होनी चाहिये। यह सुनकर ऋद्धियाँ और अणिमादि सिद्धियाँ आ गयीं [और बोलीं-] हे गोसाईं ! जो आपकी आज्ञा हो सो हम करें॥४॥

राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज।
पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज ॥२१३॥


मुनिराजने प्रसन्न होकर कहा-छोटे भाई शत्रुघ्न और समाजसहित भरतजी श्रीरामचन्द्रजी के विरह में व्याकुल हैं, इनकी पहुनाई (आतिथ्य-सत्कार) करके इनके श्रमको दूर करो॥ २१३॥

रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी।
बड़भागिनि आपुहि अनुमानी।।
कहहिं परसपर सिधि समुदाई।
अतुलित अतिथि राम लघु भाई॥

ऋद्धि-सिद्धिने मुनिराजकी आज्ञाको सिर चढ़ाकर अपनेको बड़भागिनी समझा। सब सिद्धियाँ आपसमें कहने लगीं-श्रीरामचन्द्रजीके छोटे भाई भरत ऐसे अतिथि हैं, जिनकी तुलनामें कोई नहीं आ सकता ॥१॥

मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू।
होइ सुखी सब राज समाजू॥
अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना।
जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना।

अत: मुनिके चरणोंकी वन्दना करके आज वही करना चाहिये जिससे सारा राज समाज सुखी हो। ऐसा कहकर उन्होंने बहुत-से सुन्दर घर बनाये, जिन्हें देखकर विमान भी विलखते हैं (लजा जाते हैं)॥२॥

भोग बिभूति भूरि भरि राखे।
देखत जिन्हहि अमर अभिलाषे॥
दासी दास साजु सब लीन्हें।
जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हें।

उन घरोंमें बहुत-से भोग (इन्द्रियोंक विषय) और ऐश्वर्य (ठाट-बाट) का सामान भरकर रख दिया, जिन्हें देखकर देवता भी ललचा गये। दासी-दास सब प्रकार की सामग्री लिये हुए मन लगाकर उनके मनों को देखते रहते हैं (अर्थात् उनके मन की रुचि के अनुसार करते रहते हैं)॥३॥

सब समाजु सजि सिधि पल माहीं।
जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीं॥
प्रथमहिं बास दिए सब केही।
सुंदर सुखद जथा रुचि जेही॥


जो सुखके सामान स्वर्गमें भी स्वप्नमें भी नहीं हैं ऐसे सब सामान सिद्धियोंने पलभरमें सज दिये। पहले तो उन्होंने सब किसीको, जिसकी जैसी रुचि थी वैसे ही, सुन्दर सुखदायक निवासस्थान दिये॥४॥

बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसुदीन्ह।
बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबरतपबल कीन्ह॥२१४॥


और फिर कुटुम्बसहित भरतजी को दिये, क्योंकि ऋषि भरद्वाजजी ने ऐसी ही आज्ञा दे रखी थी। [भरतजी चाहते थे कि उनके सब संगियों को आराम मिले, इसलिये उनके मनकी बात जानकर मुनि ने पहले उन लोगोंको स्थान देकर पीछे सपरिवार भरतजी को स्थान देने के लिये आज्ञा दी थी।] मुनिश्रेष्ठने तपोबल से ब्रह्मा को भी चकित कर देनेवाला वैभव रच दिया॥ २१४।।

मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका।
सब लघु लगे लोकपति लोका॥
सुख समाजु नहिं जाइ बखानी।
देखत बिरति बिसारहिं ग्यानी॥


जब भरतजीने मुनिके प्रभावको देखा तो उसके सामने उन्हें [इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर आदि] सभी लोकपालोंके लोक तुच्छ जान पड़े। सुखकी सामग्रीका वर्णन नहीं हो सकता, जिसे देखकर ज्ञानीलोग भी वैराग्य भूल जाते हैं ॥१॥

आसन सयन सुबसन बिताना।
बन बाटिका बिहग मृग नाना॥
सुरभि फूल फल अमिअ समाना।
बिमल जलासय बिबिध बिधाना॥


आसन, सेज, सुन्दर वस्त्र, चँदोवे, वन, बगीचे, भाँति-भाँतिके पक्षी और पशु, सुगन्धित फूल और अमृतके समान स्वादिष्ट फल, अनेकों प्रकारके (तालाब, कुएँ, बावली आदि) निर्मल जलाशय, ॥ २॥

असन पान सुचि अमिअ अमी से।
देखि लोग सकुचात जमी से।
सुर सुरभी सुरतरु सबही कें।
लखि अभिलाषु सुरेस सची कें॥

तथा अमृत के भी अमृत-सरीखे पवित्र खान-पानके पदार्थ थे, जिन्हें देखकर सब लोग संयमी पुरुषों (विरक्त मुनियों) की भाँति सकुचा रहे हैं। सभीके डेरोंमें [मनोवाञ्छित वस्तु देनेवाले] कामधेनु और कल्पवृक्ष हैं, जिन्हें देखकर इन्द्र और इन्द्राणी को भी अभिलाषा होती है (उनका भी मन ललचा जाता है) ॥३॥

रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी।
सब कहँ सुलभ पदारथ चारी।
स्त्रक चंदन बनितादिक भोगा।
देखि हरष बिसमय बस लोगा॥


वसन्त ऋतु है। शीतल, मन्द, सुगन्ध तीन प्रकारकी हवा बह रही है। सभीको [धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष] चारों पदार्थ सुलभ हैं। माला, चन्दन, स्त्री आदिक भोगोंको देखकर सब लोग हर्ष और विषादके वश हो रहे हैं। [हर्ष तो भोग सामग्रियोंको और मुनिके तप:प्रभावको देखकर होता है और विषाद इस बातसे होता है कि श्रीरामके वियोगमें नियम-व्रतसे रहनेवाले हमलोग भोग-विलासमें क्यों आ फँसे; कहीं इनमें आसक्त होकर हमारा मन नियम-व्रतोंको न त्याग दे] ॥४॥

दो०-- संपति चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार।
तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार ॥२१५॥

सम्पत्ति (भोग-विलासकी सामग्री) चकवी है और भरतजी चकवा हैं और मुनिकी आज्ञा खेल है, जिसने उस रातको आश्रमरूपी पिंजड़ेमें दोनोंको बंद कर रखा और ऐसे ही सबेरा हो गया। [जैसे किसी बहेलियेके द्वारा एक पिंजड़े में रखे जानेपर भी चकवी चकवेका रातको संयोग नहीं होता, वैसे ही भरद्वाजजीकी आज्ञासे रातभर भोग-- सामग्रियों के साथ रहनेपर भी भरतजीने मनसे भी उनका स्पर्शतक नहीं किया।] ॥ २१५।।

मासपारायण, उन्नीसवाँ विश्राम


कीन्ह निमजनु तीरथराजा।
नाइ मुनिहि सिरु सहित समाजा॥
रिषि आयसु असीस सिर राखी।
करि दंडवत बिनय बहु भाषी॥


[प्रात:काल] भरतजीने तीर्थराजमें स्नान किया और समाजसहित मुनिको सिर नवाकर और ऋषिकी आज्ञा तथा आशीर्वादको सिर चढ़ाकर दण्डवत् करके बहुत विनती की॥१॥

पथ गति कुसल साथ सब लीन्हें।
चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें।
रामसखा कर दीन्हें लागू।
चलत देह धरि जनु अनुरागू॥


तदनन्तर रास्तेकी पहचान रखनेवाले लोगों (कुशल पथप्रदर्शकों) के साथ सब लोगोंको लिये हुए भरतजी चित्रकूटमें चित्त लगाये चले। भरतजी रामसखा गुहके हाथमें हाथ दिये हुए ऐसे जा रहे हैं, मानो साक्षात् प्रेम ही शरीर धारण किये हुए हो॥२॥

नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया।
पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया।
लखन राम सिय पंथ कहानी।
पूँछत सखहि कहत मृदु बानी।


न तो उनके पैरोंमें जूते हैं और न सिरपर छाया है। उनका प्रेम. नियम, व्रत और धर्म निष्कपट (सच्चा) है। वे सखा निषादराजसे लक्ष्मणजी, श्रीरामचन्द्रजी और सीताजीके रास्तेकी बातें पूछते हैं, और वह कोमल वाणीसे कहता है ॥ ३ ॥

राम बास थल बिटप बिलोकें।
उर अनुराग रहत नहिं रोकें।
देखि दसा सुर बरिसहिं फूला।
भइ मृदु महि मगु मंगल मूला।

श्रीरामचन्द्रजी के ठहरने की जगहों और वृक्षों को देखकर उनके हृदय में प्रेम रोके नहीं रुकता। भरतजी की यह दशा देखकर देवता फूल बरसाने लगे। पृथ्वी कोमल हो गयी और मार्ग मङ्गल का मूल बन गया॥४॥

किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात।
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात ॥ २१६॥


बादल छाया किये जा रहे हैं, सुख देनेवाली सुन्दर हवा बह रही है। भरतजीके जाते समय मार्ग जैसा सुखदायक हुआ, वैसा श्रीरामचन्द्रजी को भी नहीं हुआ था॥२१६॥

जड़ चेतन मग जीव घनेरे।
जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे।
ते सब भए परम पद जोगू।
भरत दरस मेटा भव रोगू॥


रास्ते में असंख्य जड़-चेतन जीव थे। उनमेंसे जिनको प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने देखा, अथवा जिन्होंने प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको देखा, वे सब [उसी समय] परमपदके अधिकारी हो गये। परन्तु अब भरतजीके दर्शनने तो उनका भव (जन्म-मरण) रूपी रोग मिटा ही दिया। [श्रीरामदर्शनसे तो वे परमपदके अधिकारी ही हुए थे, परन्तु भरतदर्शनसे उन्हें वह परमपद प्राप्त हो गया] ॥१॥

यह बड़ि बात भरत कइ नाहीं।
सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं।
बारक राम कहत जग जेऊ।
होत तरन तारन नर तेऊ।


भरतजीके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है, जिन्हें श्रीरामजी स्वयं अपने मनमें स्मरण करते रहते हैं। जगत् में जो भी मनुष्य एक बार 'राम' कह लेते हैं, वे भी तरने-तारनेवाले हो जाते हैं ! ॥२॥

भरतु राम प्रिय पुनि लघु भ्राता।
कस न होइ मगु मंगलदाता॥
सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं।
भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं।


फिर भरतजी तो श्रीरामचन्द्रजीके प्यारे तथा उनके छोटे भाई ठहरे। तब भला उनके लिये मार्ग मङ्गल (सुख) दायक कैसे न हो? सिद्ध, साधु और श्रेष्ठ मुनि ऐसा कह रहे हैं और भरतजीको देखकर हृदयमें हर्ष-लाभ करते हैं ॥३॥

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