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रामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2086
आईएसबीएन :0

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

इन्द्र बृहस्पति संवाद



देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू।
जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू॥
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई।
रामहि भरतहि भेट न होई॥

भरतजीके [इस प्रेमके] प्रभावको देखकर देवराज इन्द्रको सोच हो गया [कि कहीं इनके प्रेमवश श्रीरामजी लौट न जायँ और हमारा बना-बनाया काम बिगड़ जाय]। संसार भलेके लिये भला और बुरेके लिये बुरा है (मनुष्य जैसा आप होता है जगत् उसे वैसा ही दीखता है)। उसने गुरु बृहस्पतिजीसे कहा-हे प्रभो! वही उपाय कीजिये जिससे श्रीरामचन्द्रजी और भरतजीकी भेंट ही न हो ॥४॥

रामु सँकोची प्रेम बस भरत सपेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि॥२१७॥


श्रीरामचन्द्रजी संकोची और प्रेमके वश हैं और भरतजी प्रेमके समुद्र हैं। बनी-बनायी बात बिगड़ना चाहती है, इसलिये कुछ छल ढूँढ़कर इसका उपाय कीजिये॥ २१७॥

बचन सुनत सुरगुरु मुसुकाने।
सहसनयन बिनु लोचन जाने।
मायापति सेवक सन माया।
करइ त उलटि परइ सुरराया॥


इन्द्रके वचन सुनते ही देवगुरु बृहस्पतिजी मुसकराये। उन्होंने हजार नेत्रोंवाले इन्द्रको [ज्ञानरूपी] नेत्रों से रहित (मूर्ख) समझा और कहा-हे देवराज! माया के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी के सेवक के साथ कोई माया करता है तो वह उलटकर अपने ही ऊपर आ पड़ती है ॥१॥

तब किछु कीन्ह राम रुख जानी।
अब कुचालि करि होइहि हानी॥
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ।
निज अपराध रिसाहिं न काऊ॥

उस समय (पिछली बार) तो श्रीरामचन्द्रजीका रुख जानकर कुछ किया था। परन्तु इस समय कुचाल करनेसे हानि ही होगी। हे देवराज! श्रीरघुनाथजीका स्वभाव सुनो, वे अपने प्रति किये हुए अपराधसे कभी रुष्ट नहीं होते॥२॥

जो अपराधु भगत कर करई।
राम रोष पावक सो जरई॥
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा।
यह महिमा जानहिं दुरबासा।।


पर जो कोई उनके भक्तका अपराध करता है, वह श्रीरामकी क्रोधाग्निमें जल जाता है। लोक और वेद दोनोंमें इतिहास (कथा) प्रसिद्ध है। इस महिमाको दुर्वासाजी जानते हैं ॥३॥ भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही॥
सारा जगत् श्रीरामको जपता है, वे श्रीरामजी जिनको जपते हैं उन भरतजीके समान श्रीरामचन्द्रजीका प्रेमी कौन होगा? ॥४॥

मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु॥२१८॥


हे देवराज ! रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीके भक्तका काम बिगाड़नेकी बात मनमें भी न लाइये। ऐसा करनेसे लोकमें अपयश और परलोकमें दुःख होगा और शोकका सामान दिनोंदिन बढ़ता ही चला जायगा ॥ २१८॥

सुनु सुरेस उपदेसु हमारा।
रामहि सेवकु परम पिआरा॥
मानत सुखु सेवक सेवकाई।
सेवक बैर बैरु अधिकाईं॥


हे देवराज! हमारा उपदेश सुनो। श्रीरामजीको अपना सेवक परम प्रिय है। वे अपने सेवककी सेवासे सुख मानते हैं और सेवकके साथ वैर करनेसे बड़ा भारी वैर मानते हैं ॥१॥

जद्यपि सम नहिं राग न रोषू।
गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू।
करम प्रधान बिस्व करि राखा।
जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥


यद्यपि वे सम हैं-उनमें न राग है, न रोष है। और न वे किसीका पाप-पुण्य और गुण-दोष ही ग्रहण करते हैं। उन्होंने विश्वमें कर्मको ही प्रधान कर रखा है। जो जैसा करता है, वह वैसा ही फल भोगता है ॥२॥

तदपि करहिं सम बिषम बिहारा।
भगत अभगत हृदय अनुसारा॥
अगुन अलेप अमान एकरस।
रामु सगुन भए भगत पेम बस॥


तथापि वे भक्त और अभक्तके हृदयके अनुसार सम और विषम व्यवहार करते हैं (भक्तको प्रेमसे गले लगा लेते हैं और अभक्तको मारकर तार देते हैं)। गुणरहित, निर्लेप, मानरहित और सदा एकरस भगवान् श्रीराम भक्तके प्रेमवश ही सगुण हुए हैं॥३॥

राम सदा सेवक रुचि राखी।
बेद पुरान साधु सुर साखी॥
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई।
करहु भरत पद प्रीति सुहाई॥

श्रीरामजी सदा अपने सेवकों (भक्तों) की रुचि रखते आये हैं। वेद, पुराण, साधु और देवता इसके साक्षी हैं। ऐसा हृदयमें जानकर कुटिलता छोड़ दो और भरतजीके चरणोंमें सुन्दर प्रीति करो॥४॥

राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल।
भगत सिरोमनि भरत ते जनि डरपहु सुरपाल॥२१९।।

हे देवराज इन्द्र! श्रीरामचन्द्रजीके भक्त सदा दूसरोंके हितमें लगे रहते हैं, वे दूसरोंके दुःखसे दुःखी और दयालु होते हैं। फिर, भरतजी तो भक्तोंके शिरोमणि हैं, उनसे बिलकुल न डरो॥ २१९॥

सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी।
भरत राम आयस अनुसारी॥
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू।
भरत दोसु नहिं राउर मोहू॥

प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सत्यप्रतिज्ञ और देवताओं का हित करनेवाले हैं। और भरतजी श्रीरामजी की आज्ञा के अनुसार चलनेवाले हैं। तुम व्यर्थ ही स्वार्थक विशेष वश होकर व्याकुल हो रहे हो। इसमें भरतजीका कोई दोष नहीं, तुम्हारा ही मोह है ॥१॥

सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी।
भा प्रमोदु मन मिटी गलानी॥
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ।
लगे सराहन भरत सुभाऊ॥

देवगुरु बृहस्पतिजीकी श्रेष्ठ वाणी सुनकर इन्द्रके मनमें बड़ा आनन्द हुआ और उनकी चिन्ता मिट गयी। तब हर्षित होकर देवराज फूल बरसाकर भरतजीके स्वभावकी सराहना करने लगे॥२॥

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