मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस (अरण्यकाण्ड) रामचरितमानस (अरण्यकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा ।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
मेरे (राम) मन्त्रका जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास-यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदोंमें प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इन्द्रियोंका निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्योंसे वैराग्य और निरंतर संत पुरुषोंके धर्म (आचरण) में लगे रहना।। १ ।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा ।
मोतें संत अधिक करि लेखा।
आठवें जथालाभ संतोषा ।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥
मोतें संत अधिक करि लेखा।
आठवें जथालाभ संतोषा ।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥
सातवीं भक्ति है जगत्भरको समभावसे मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतोंको मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाय, उसीमें संतोष करना और स्वप्न में भी पराये दोषोंको न देखना ॥२॥
नवम सरल सब सन छलहीना ।
मम भरोस हियँ हरष न दीना।।
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई ।
नारि पुरुष सचराचर कोई॥
मम भरोस हियँ हरष न दीना।।
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई ।
नारि पुरुष सचराचर कोई॥
नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदयमें मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्थामें हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवोंमेंसे जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-- ॥३॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें।
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोगि बंद दुरलभ गति जोई।
तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोगि बंद दुरलभ गति जोई।
तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥
हे भामिनि ! मुझे वही अत्यन्त प्रिय है। फिर तुझमें तो सभी प्रकारकी भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियोंको भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिये सुलभ हो गयी है ।। ४॥
मम दरसन फल परम अनूपा ।
जीव पाव निज सहज सरूपा॥
जनकसुता कइ सुधि भामिनी ।
जानहि कहु करिबरगामिनी॥
जीव पाव निज सहज सरूपा॥
जनकसुता कइ सुधि भामिनी ।
जानहि कहु करिबरगामिनी॥
मेरे दर्शनका परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूपको प्राप्त हो जाता है। हे भामिनि ! अब यदि तू गजगामिनी जानकीकी कुछ खबर जानती हो तो बता ॥५॥
पंपा सरहि जाहु रघुराई ।
तहँ होइहि सुग्रीव मिताई।
सो सब कहिहि देव रघुबीरा ।
जानतहूँ पूछहु मतिधीरा॥
तहँ होइहि सुग्रीव मिताई।
सो सब कहिहि देव रघुबीरा ।
जानतहूँ पूछहु मतिधीरा॥
[शबरीने कहा-] हे रघुनाथजी! आप पंपा नामक सरोवरको जाइये, वहाँ आपकी सुग्रीवसे मित्रता होगी। हे देव! हे रघुवीर! वह सब हाल बतावेगा। हे धीरबुद्धि! आप सब जानते हुए भी मुझसे पूछते हैं !॥ ६ ॥
बार बार प्रभु पद सिरु नाई।
प्रेम सहित सब कथा सुनाई।
प्रेम सहित सब कथा सुनाई।
बार-बार प्रभुके चरणोंमें सिर नवाकर, प्रेमसहित उसने सब कथा सुनायी॥७॥
छं०- कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदयँ पद पंकज धरे।
तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे।।
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥
तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे।।
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥
सब कथा कहकर भगवान्के मुखके दर्शन कर, हृदयमें उनके चरणकमलोंको धारण कर लिया और योगाग्निसे देहको त्यागकर (जलाकर) वह उस दुर्लभ हरिपदमें लीन हो गयी, जहाँसे लौटना नहीं होता। तुलसीदासजी कहते हैं कि अनेकों प्रकारके कर्म, अधर्म और बहुत-से मत-ये सब शोकप्रद हैं; हे मनुष्यो! इनका त्याग कर दो और विश्वास करके श्रीरामजीके चरणोंमें प्रेम करो।
दो०- जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि॥३६॥
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि॥३६॥
जो नीच जातिकी और पापोंकी जन्मभूमि थी, ऐसी स्त्रीको भी जिन्होंने मुक्त कर दिया, अरे महादुर्बुद्धि मन! तू ऐसे प्रभुको भूलकर सुख चाहता है ? ॥ ३६॥
चले राम त्यागा बन सोऊ।
अतुलित बल नर केहरि दोऊ॥
बिरही इव प्रभु करत बिषादा ।
कहत कथा अनेक संबादा॥
अतुलित बल नर केहरि दोऊ॥
बिरही इव प्रभु करत बिषादा ।
कहत कथा अनेक संबादा॥
श्रीरामचन्द्रजीने उस वनको भी छोड़ दिया और वे आगे चले। दोनों भाई अतुलनीय बलवान् और मनुष्योंमें सिंहके समान हैं। प्रभु विरहीकी तरह विषाद करते हुए अनेकों कथाएँ और संवाद कहते हैं-- ॥१॥
लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा।
देखत केहि कर मन नहिं छोभा॥
नारि सहित सब खग मृग बंदा ।
मानहुँ मोरि करत हहिं निंदा॥
देखत केहि कर मन नहिं छोभा॥
नारि सहित सब खग मृग बंदा ।
मानहुँ मोरि करत हहिं निंदा॥
हे लक्ष्मण! जरा वनकी शोभा तो देखो। इसे देखकर किसका मन क्षुब्ध नहीं होगा? पक्षी और पशुओंके समूह सभी स्त्रीसहित हैं। मानो वे मेरी निन्दा कर रहे हैं ॥२॥
हमहि देखि मृग निकर पराहीं ।
मृगीं कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीं॥
तुम्ह आनंद करहु मृग जाए।
कंचन मृग खोजन ए आए।
मृगीं कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीं॥
तुम्ह आनंद करहु मृग जाए।
कंचन मृग खोजन ए आए।
हमें देखकर [जब डरके मारे] हिरनोंके झुंड भागने लगते हैं, तब हिरनियाँ उनसे कहती हैं-तुमको भय नहीं है। तुम तो साधारण हिरनोंसे पैदा हुए हो, अतः तुम आनन्द करो। ये तो सोनेका हिरन खोजने आये हैं ॥३॥
संग लाइ करिनी करि लेहीं।
मानहुँ मोहि सिखावनु देहीं॥
सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ ।
भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ॥
मानहुँ मोहि सिखावनु देहीं॥
सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ ।
भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ॥
हाथी हथिनियोंको साथ लगा लेते हैं। वे मानो मुझे शिक्षा देते हैं [कि स्त्रीको कभी अकेली नहीं छोड़ना चाहिये] । भलीभाँति चिन्तन किये हुए शास्त्रको भी बार बार देखते रहना चाहिये। अच्छी तरह सेवा किये हुए भी राजाको वशमें नहीं समझना चाहिये॥४॥
राखिअ नारि जदपि उर माहीं ।
जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं॥
देखहु तात बसंत सुहावा ।
प्रिया हीन मोहि भय उपजावा॥
जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं॥
देखहु तात बसंत सुहावा ।
प्रिया हीन मोहि भय उपजावा॥
और स्त्रीको चाहे हृदयमें ही क्यों न रखा जाय; परन्तु युवती स्त्री, शास्त्र और राजा किसीके वशमें नहीं रहते। हे तात! इस सुन्दर वसन्तको तो देखो। प्रियाके बिना मुझको यह भय उत्पन्न कर रहा है ॥५॥
दो०- बिरह बिकल बलहीन मोहि जानेसि निपट अकेल।
सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल॥३७ (क)॥
सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल॥३७ (क)॥
मुझे विरहसे व्याकुल, बलहीन और बिलकुल अकेला जानकर कामदेवने वन, भौंरों और पक्षियोंको साथ लेकर मुझपर धावा बोल दिया ॥ ३७ (क)।
देखि गयउ भ्राता सहित तासु दूत सुनि बात।।
डेरा कीन्हेउ मनहुँ तब कटकु हटकि मनजात॥३७ (ख)॥
डेरा कीन्हेउ मनहुँ तब कटकु हटकि मनजात॥३७ (ख)॥
परन्तु जब उसका दूत यह देख गया कि मैं भाईके साथ हूँ (अकेला नहीं हूँ), तब उसकी बात सुनकर कामदेवने मानो सेनाको रोककर डेरा डाल दिया है । ३७ (ख)॥
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