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रामचरितमानस (अरण्यकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2087
आईएसबीएन :0

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।



बिटप बिसाल लता अरुझानी।
बिबिध बितान दिए जनु तानी॥
कदलि ताल बर धुजा पताका ।
देखि न मोह धीर मन जाका॥

विशाल वृक्षोंमें लताएँ उलझी हुई ऐसी मालूम होती हैं मानो नाना प्रकारके तंबू तान दिये गये हैं। केला और ताड़ सुन्दर ध्वजा-पताकाके समान हैं। इन्हें देखकर वही नहीं मोहित होता, जिसका मन धीर है ॥१॥

बिबिध भाँति फूले तरु नाना ।
जनु बानैत बने बहु बाना॥
कहुँ कहुँ सुंदर बिटप सुहाए ।
जनु भट बिलग बिलग होइ छाए॥

अनेकों वृक्ष नाना प्रकारसे फूले हुए हैं। मानो अलग-अलग बाना (वर्दी) धारण किये हुए बहुत-से तीरंदाज हों। कहीं-कहीं सुन्दर वृक्ष शोभा दे रहे हैं। मानो योद्धालोग अलग-अलग होकर छावनी डाले हों॥२॥

कूजत पिक मानहुँ गज माते ।
ढेक महोख ऊँट बिसराते॥
मोर चकोर कीर बर बाजी ।
पारावत मराल सब ताजी॥

कोयलें कूज रही हैं, वही मानो मतवाले हाथी [चिग्धाड़ रहे हैं । ढेक और महोख पक्षी मानो ऊँट और खच्चर हैं। मोर, चकोर, तोते, कबूतर और हंस मानो सब सुन्दर ताजी (अरबी) घोड़े हैं ॥३॥

तीतिर लावक पदचर जूथा।
बरनि न जाइ मनोज बरूथा॥
रथ गिरि सिला दुंदुभी झरना ।
चातक बंदी गुन गन बरना।

तीतर और बटेर पैदल सिपाहियोंके झुंड हैं। कामदेवकी सेनाका वर्णन नहीं हो सकता। पर्वतोंकी शिलाएँ रथ और जलके झरने नगाड़े हैं। पपीहे भाट हैं, जो गुणसमूह (विरदावली) का वर्णन करते हैं ॥४॥

मधुकर मुखर भेरि सहनाई।
त्रिबिध बयारि बसीठीं आई।
चतुरंगिनी सेन सँग लीन्हें ।
बिचरत सबहि चुनौती दीन्हें॥

भौंरोंकी गुंजार भेरी और शहनाई है। शीतल, मन्द और सुगन्धित हवा मानो दूतका काम लेकर आयी है। इस प्रकार चतुरङ्गिणी सेना साथ लिये कामदेव मानो सबको चुनौती देता हुआ विचर रहा है ॥५॥

लछिमन देखत काम अनीका ।
रहहिं धीर तिन्ह कै जग लीका।
एहि के एक परम बल नारी ।
तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी॥

हे लक्ष्मण! कामदेवकी इस सेनाको देखकर जो धीर बने रहते हैं, जगत्में उन्हींकी [वीरोंमें] प्रतिष्ठा होती है। इस कामदेवके एक स्त्रीका बड़ा भारी बल है। उससे जो बच जाय, वही श्रेष्ठ योद्धा. है ॥६॥

दो०- तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ॥३८ (क)॥

हे तात! काम, क्रोध और लोभ-ये तीन अत्यन्त प्रबल दुष्ट हैं। ये विज्ञानके धाम मुनियोंके भी मनोंको पलभरमें क्षुब्ध कर देते हैं ॥ ३८ (क)॥

लोभ के इच्छा दंभ बल काम के केवल नारि।
क्रोध कें परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि॥३८ (ख)॥

लोभको इच्छा और दम्भका बल है, कामको केवल स्त्रीका बल है और क्रोधको कठोर वचनोंका बल है; श्रेष्ठ मुीि विचारकर ऐसा कहते हैं ॥ ३८ (ख)॥

गुनातीत सचराचर स्वामी ।
राम उमा सब अंतरजामी।
कामिन्ह के दीनता देखाई।
धीरन्ह के मन बिरति दृढ़ाई।

[शिवजी कहते हैं-] हे पार्वती! श्रीरामचन्द्रजी गुणातीत (तीनों गुणोंसे परे), चराचर जगत्के स्वामी और सबके अन्तरकी जाननेवाले हैं। [उपर्युक्त बातें कहकर] उन्होंने कामी लोगोंकी दीनता (बेबसी) दिखलायी है और धीर (विवेकी) पुरुषोंके मनमें वैराग्यको दृढ़ किया है॥१॥

क्रोध मनोज लोभ मद माया ।
छूटहिं सकल राम की दाया।
सो नर इंद्रजाल नहिं भूला।
जा पर होइ सो नट अनुकूला॥

क्रोध, काम, लोभ, मद और माया-ये सभी श्रीरामजीकी दयासे छूट जाते हैं। वह नट (नटराज भगवान्) जिसपर प्रसन्न होता है, वह मनुष्य इन्द्रजाल (माया) में नहीं भूलता ॥२॥

उमा कहउँ मैं अनुभव अपना ।
सत हरि भजनु जगत सब सपना॥
पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा।
पंपा नाम सुभग गंभीरा॥

हे उमा! मैं तुम्हें अपना अनुभव कहता हूँ-हरिका भजन ही सत्य है, यह सारा जगत् तो स्वप्न [की भाँति झूठा] है। फिर प्रभु श्रीरामजी पंपा नामक सुन्दर और गहरे सरोवरके तीरपर गये ॥३॥

संत हृदय जस निर्मल बारी ।
बाँधे घाट मनोहर चारी॥
जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा ।
जनु उदार गृह जाचक भीरा॥

उसका जल संतोंके हृदय-जैसा निर्मल है। मनको हरनेवाले सुन्दर चार घाट बँधे हुए हैं। भाँति-भाँतिके पशु जहाँ-तहाँ जल पी रहे हैं। मानो उदार दानी पुरुषोंके घर याचकोंकी भीड़ लगी हो!॥४॥

दो०- पुरइनि सघन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म ।
मायाछन्न न देखिऐ जैसें निर्गुन ब्रह्म॥३९ (क)॥

घनी पुरइनों (कमलके पत्तों) की आड़में जलका जल्दी पता नहीं मिलता। जैसे मायासे ढके रहनेके कारण निर्गुण ब्रह्म नहीं दीखता॥३९ (क)॥

सुखी मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं।
जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजुत जाहिं॥३९ (ख)॥

उस सरोवरके अत्यन्त अथाह जलमें सब मछलियाँ सदा एकरस (एक समान) सुखी रहती हैं। जैसे धर्मशील पुरुषोंके सब दिन सुखपूर्वक बीतते हैं ॥३९ (ख)॥

बिकसे सरसिज नाना रंगा।
मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा।
बोलत जलकुक्कुट कलहंसा।
प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा॥

उसमें रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं। बहुत-से भौंरे मधुर स्वरसे गुंजार कर रहे हैं। जलके मुर्गे और राजहंस बोल रहे हैं, मानो प्रभुको देखकर उनकी प्रशंसा कर रहे हों॥१॥

चक्रबाक बक खग समुदाई।
देखत बनइ बरनि नहिं जाई॥
सुंदर खग गन गिरा सुहाई।
जात पथिक जनु लेत बोलाई॥

चक्रवाक, बगुले आदि पक्षियोंका समुदाय देखते ही बनता है, उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। सुन्दर पक्षियोंकी बोली बड़ी सुहावनी लगती है, मानो [रास्तेमें] जाते हुए पथिकको बुलाये लेती हो।।२।।

ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए।
चहु दिसि कानन बिटप सुहाए।
चंपक बकुल कदंब तमाला।
पाटल पनस परास रसाला॥


उस झील (पंपासरोवर) के समीप मुनियोंने आश्रम बना रखे हैं। उसके चारों ओर वनके सुन्दर वृक्ष हैं। चम्पा, मौलसिरी, कदम्ब, तमाल, पाटल, कटहल, ढाक और आम आदि- ॥३॥

नव पल्लव कुसुमित तरु नाना।
चंचरीक पटली कर गाना॥
सीतल मंद सुगंध सुभाऊ।
संतत बहइ मनोहर बाऊ॥

बहुत प्रकारके वृक्ष नये-नये पत्तों और [सुगन्धित] पुष्पोंसे युक्त हैं, [जिनपर] भौंरोंके समूह गुंजार कर रहे हैं । स्वभावसे ही शीतल, मन्द, सुगन्धित एवं मनको हरनेवाली हवा सदा बहती रहती है ॥४॥

कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं।
सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं।

कोयलें 'कुहू' 'कुहू' का शब्द कर रही हैं। उनकी रसीली बोली सुनकर मुनियोंका भी ध्यान टूट जाता है॥५॥

दो०- फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ।
पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ॥४०॥

फलोंके बोझसे झुककर सारे वृक्ष पृथ्वीके पास आ लगे हैं, जैसे परोपकारी पुरुष बड़ी सम्पत्ति पाकर [विनयसे] झुक जाते हैं ॥ ४० ॥

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