मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस (लंकाकाण्ड) रामचरितमानस (लंकाकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
हनुमानजी का सीताजी को कुशल समाचार देना, सीताजी का आगमन और अग्नि-परीक्षा
सब बिधि कुसल कोसलाधीसा।
मातु समर जीत्यो दससीसा॥
अबिचल राजु बिभीषन पायो।
सुनि कपि बचन हरष उर छायो॥
मातु समर जीत्यो दससीसा॥
अबिचल राजु बिभीषन पायो।
सुनि कपि बचन हरष उर छायो॥
[हनुमानजीने कहा-] हे माता! कोसलपति श्रीरामजी सब प्रकारसे सकुशल हैं। उन्होंने संग्राममें दस सिरवाले रावणको जीत लिया है और विभीषणने अचल राज्य प्राप्त किया है। हनुमानजीके वचन सुनकर सीताजीके हृदयमें हर्ष छा गया॥४॥
छं०- अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा।
का देउँ तोहि त्रैलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा॥
सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं।
रन जीति रिपुदल बंधु जुत पस्यामि राममनामयं।
श्रीजानकीजीके हृदयमें अत्यन्त हर्ष हुआ। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रोंमें [आनन्दाश्रुओंका] जल छा गया। वे बार-बार कहती हैं-हे हनुमान ! मैं तुझे क्या दूँ? इस वाणी (समाचार) के समान तीनों लोकोंमें और कुछ भी नहीं है! [हनुमानजीने कहा-] हे माता! सुनिये, मैंने आज निःसन्देह सारे जगतका राज्य पा लिया, जो मैं रणमें शत्रुसेनाको जीतकर भाईसहित निर्विकार श्रीरामजीको देख रहा हूँ।
दो०- सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमंत।
सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनंत॥१०७॥
सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनंत॥१०७॥
[जानकीजीने कहा-] हे पुत्र! सुन, समस्त सद्गुण तेरे हृदयमें बसें और हे हनुमान ! शेष (लक्ष्मणजी) सहित कोसलपति प्रभु सदा तुझपर प्रसन्न रहें॥१०७॥
अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता।
देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥
तब हनुमान राम पहिं जाई।
जनकसुता कै कुसल सुनाई।
देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥
तब हनुमान राम पहिं जाई।
जनकसुता कै कुसल सुनाई।
हे तात! अब तुम वही उपाय करो जिससे मैं इन नेत्रोंसे प्रभुके कोमल श्याम शरीरके दर्शन करूँ। तब श्रीरामचन्द्रजीके पास जाकर हनुमानजीने जानकीजीका कुशल समाचार सुनाया॥१॥
सुनि संदेसु भानुकुलभूषन।
बोलि लिए जुबराज बिभीषन॥
मारुतसुत के संग सिधावहु।
सादर जनकसुतहि लै आवहु॥
बोलि लिए जुबराज बिभीषन॥
मारुतसुत के संग सिधावहु।
सादर जनकसुतहि लै आवहु॥
सूर्यकुलभूषण श्रीरामजीने सन्देश सुनकर युवराज अंगद और विभीषणको बुला लिया [और कहा--] पवनपुत्र हनुमान के साथ जाओ और जानकी को आदर के साथ ले आओ॥२॥
तुरतहिं सकल गए जहँ सीता।
सेवहिं सब निसिचरौं बिनीता॥
बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो।
तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो॥
सेवहिं सब निसिचरौं बिनीता॥
बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो।
तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो॥
वे सब तुरंत ही वहाँ गये जहाँ सीताजी थीं। सब-की-सब राक्षसियाँ नम्रतापूर्वक उनकी सेवा कर रही थीं। विभीषणजीने शीघ्र ही उन लोगोंको समझा दिया। उन्होंने बहुत प्रकारसे सीताजीको स्नान कराया,॥३॥
बहु प्रकार भूषन पहिराए।
सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए।
ता पर हरषि चढ़ी बैदेही।
सुमिरि राम सुखधाम सनेही॥
सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए।
ता पर हरषि चढ़ी बैदेही।
सुमिरि राम सुखधाम सनेही॥
बहुत प्रकारके गहने पहनाये और फिर वे एक सुन्दर पालकी सजाकर ले आये। सीताजी प्रसन्न होकर सुखके धाम प्रियतम श्रीरामजीका स्मरण करके उसपर हर्षके साथ चढ़ीं॥ ४॥
बेतपानि रच्छक चहु पासा।
चले सकल मन परम हुलासा॥
देखन भालु कीस सब आए।
रच्छक कोपि निवारन धाए॥
चले सकल मन परम हुलासा॥
देखन भालु कीस सब आए।
रच्छक कोपि निवारन धाए॥
चारों ओर हाथोंमें छड़ी लिये रक्षक चले। सबके मनोंमें परम उल्लास (उमंग) है। रीछ-वानर सब दर्शन करनेके लिये आये, तब रक्षक क्रोध करके उनको रोकने दौड़े॥५॥
कह रघुबीर कहा मम मानहु।
सीतहि सखा पयादें आनहु॥
देखहुँ कपि जननी की नाईं।
बिहसि कहा रघुनाथ गोसाईं॥
श्रीरघुवीरने कहा-हे मित्र! मेरा कहना मानो और सीताको पैदल ले आओ, जिससे वानर उसको माताकी तरह देखें। गोसाईं श्रीरामजीने हँसकर ऐसा कहा॥६॥
सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरणे।
नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे॥
सीता प्रथम अनल महुँ राखी।
प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी॥
नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे॥
सीता प्रथम अनल महुँ राखी।
प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी॥
प्रभुके वचन सुनकर रीछ-वानर हर्षित हो गये। आकाशसे देवताओंने बहुत-से फूल बरसाये। सीताजी [के असली स्वरूप] को पहले अग्निमें रखा था। अब भीतरके साक्षी भगवान उनको प्रकट करना चाहते हैं॥७॥
दो०- तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद।
सुनत जातुधानी सब लागीं करै बिषाद॥१०८॥
सुनत जातुधानी सब लागीं करै बिषाद॥१०८॥
इसी कारण करुणाके भण्डार श्रीरामजीने लीलासे कुछ कड़े वचन कहे, जिन्हें सुनकर सब राक्षसियाँ विषाद करने लगीं॥१०८॥
प्रभु के बचन सीस धरि सीता।
बोली मन क्रम बचन पुनीता।
लछिमन होहु धरम के नेगी।
पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी।
प्रभुके वचनोंको सिर चढ़ाकर मन, वचन और कर्मसे पवित्र श्रीसीताजी बोली-हे लक्ष्मण ! तुम मेरे धर्मके नेगी (धर्माचरणमें सहायक) बनो और तुरंत आग तैयार करो॥१॥
सुनि लछिमन सीता कै बानी।
बिरह बिबेक धरम निति सानी॥
लोचन सजल जोरि कर दोऊ।
प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ।
श्रीसीताजीकी विरह, विवेक, धर्म और नीतिसे सनी हुई वाणी सुनकर लक्ष्मणजीके नेत्रोंमें [विषादके आँसुओंका] जल भर आया। वे दोनों हाथ जोड़े खड़े रहे। वे भी प्रभुसे कुछ कह नहीं सकते॥२॥
देखि राम रुख लछिमन धाए।
पावक प्रगटि काठ बहु लाए॥
पावक प्रबल देखि बैदेही।
हदय हरष नहिं भय कछु तेही॥
फिर श्रीरामजीका रुख देखकर लक्ष्मणजी दौड़े और आग तैयार करके बहुत सी लकड़ी ले आये। अग्निको खूब बढ़ी हुई देखकर जानकीजीके हृदयमें हर्ष हुआ। उन्हें भय कुछ भी नहीं हुआ॥३॥
जौं मन बच क्रम मम उर माहीं।
तजि रघुबीर आन गति नाहीं॥
तौ कृसानु सब कै गति जाना।
मो कहुँ होउ श्रीखंड समाना॥
तजि रघुबीर आन गति नाहीं॥
तौ कृसानु सब कै गति जाना।
मो कहुँ होउ श्रीखंड समाना॥
[सीताजीने लीलासे कहा-] यदि मन, वचन और कर्मसे मेरे हृदयमें श्रीरघुवीरको छोडकर दूसरी गति (अन्य किसीका आश्रय) नहीं है, तो अनिदेव जो सबके मनकी गति जानते हैं, [मेरे भी मनकी गति जानकर] मेरे लिये चन्दनके समान शीतल हो जायें॥४॥
छं०- श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली।
जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली॥
प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे।
प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे॥
प्रभु श्रीरामजीका स्मरण करके और जिनके चरण महादेवजीके द्वारा वन्दित हैं तथा जिनमें सीताजीकी अत्यन्त विशुद्ध प्रीति है, उन कोसलपतिकी जय बोलकर जानकीजीने चन्दनके समान शीतल हुई अग्निमें प्रवेश किया। प्रतिबिम्ब (सीताजीकी छायामूर्ति) और उनका लौकिक कलंक प्रचण्ड अग्निमें जल गये। प्रभुके इन चरित्रोंको किसीने नहीं जाना। देवता, सिद्ध और मुनि सब आकाशमें खड़े देखते हैं॥१॥
धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो।
जिमि छीरसागर इंदिरा रामहि समर्प आनि सो॥
सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली।
नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली।
जिमि छीरसागर इंदिरा रामहि समर्प आनि सो॥
सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली।
नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली।
तब अग्निने शरीर धारण करके वेदोंमें और जगतमें प्रसिद्ध वास्तविक श्री (सीताजी) का हाथ पकड़ उन्हें श्रीरामजीको वैसे ही समर्पित किया जैसे क्षीरसागरने विष्णुभगवानको लक्ष्मी समर्पित की थी। वे सीताजी श्रीरामचन्द्रजीके वाम भागमें विराजित हुईं। उनकी उत्तम शोभा अत्यन्त ही सुन्दर है। मानो नये खिले हुए नीले कमलके पास सोनेके कमलकी कली सुशोभित हो॥२॥
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