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रामचरितमानस (लंकाकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2094
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

देवताओं की स्तुति, इन्द्र की अमृत-वर्षा




दो०- बरषहिं सुमन हरषि सुर बाजहिं गगन निसान।
गावहिं किंनर सुरबधू नाचहिं चढ़ी बिमान॥१०९ (क)॥


देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगे। आकाशमें डंके बजने लगे। किन्नर गाने लगे। विमानोंपर चढी अप्सराएँ नाचने लगी।। १०९ (क)॥

जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार।
देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार॥१०९ (ख)॥


श्रीजानकीजीसहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजीकी अपरिमित और अपार शोभा देखकर रीछ-वानर हर्षित हो गये और सुखके सार श्रीरघुनाथजीकी जय बोलने लगे॥ १०९ (ख)॥

तब रघुपति अनुसासन पाई।
मातलि चलेउ चरन सिरु नाई।
आए देव सदा स्वारथी।
बचन कहहिं जनु परमारथी॥


तब श्रीरघुनाथजीकी आज्ञा पाकर इन्द्रका सारथि मातलि चरणों में सिर नवाकर [रथ लेकर] चला गया। तदनन्तर सदा के स्वार्थी देवता आये। वे ऐसे वचन कह रहे हैं मानो बड़े परमार्थी हों॥१॥

दीन बंधु दयाल रघुराया।
देव कीन्हि देवन्ह पर दाया॥
बिस्व द्रोह रत यह खल कामी।
निज अघ गयउ कुमारगगामी॥


हे दीनबन्धु! हे दयालु रघुराज! हे परमदेव! आपने देवताओंपर बड़ी दया की। विश्वके द्रोहमें तत्पर यह दुष्ट, कामी और कुमार्गपर चलनेवाला रावण अपने ही पापसे नष्ट हो गया॥२॥
<mark>
तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी।
सदा एकरस सहज उदासी॥
अकल अगुन अज अनघ अनामय।
अजित अमोघसक्ति करुनामय।


आप समरूप, ब्रह्म, अविनाशी, नित्य, एकरस, स्वभावसे ही उदासीन (शत्रु मित्र-भावरहित), अखण्ड, निर्गुण (मायिक गुणोंसे रहित), अजन्मा, निष्पाप, निर्विकार,
अजेय, अमोघशक्ति (जिनकी शक्ति कभी व्यर्थ नहीं होती) और दयामय हैं॥३॥
</mark>
मीन कमठ सूकर नरहरी।
बामन परसुराम बपु धरी॥
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो।
नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो॥


आपने ही मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन और परशुरामके शरीर धारण किये। हे नाथ! जब-जब देवताओंने दुःख पाया, तब-तब अनेकों शरीर धारण करके
आपने ही उनका दुःख नाश किया॥४॥

यह खल मलिन सदा सुरद्रोही।
काम लोभ मद रत अति कोही॥
अधम सिरोमनि तव पद पावा।
यह हमरें मन बिसमय आवा।।


यह दुष्ट मलिनहृदय, देवताओंका नित्य शत्रु, काम, लोभ और मदके परायण तथा अत्यन्त क्रोधी था। ऐसे अधमोंके शिरोमणिने भी आपका परमपद पा लिया। इस बातका हमारे मनमें आश्चर्य हुआ॥५॥

हम देवता परम अधिकारी।
स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी॥
भव प्रबाहँ संतत हम परे।
अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे॥


हम देवता श्रेष्ठ अधिकारी होकर भी स्वार्थपरायण हो आपकी भक्तिको भुलाकर निरन्तर भवसागरके प्रवाह (जन्म-मृत्युके चक्र) में पड़े हैं। अब हे प्रभो! हम आपकी शरणमें आ गये हैं, हमारी रक्षा कीजिये॥६॥

दो०- करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि।
अति सप्रेम तन पुलकि बिधि अस्तुति करत बहोरि॥११०॥


विनती करके देवता और सिद्ध सब जहाँ-के-तहाँ हाथ जोड़े खड़े रहे। तब अत्यन्त प्रेमसे पुलकितशरीर होकर ब्रह्माजी स्तुति करने लगे-॥ ११०।।

छं०-जय राम सदा सुखधाम हरे।
रघुनायक सायक चाप धरे॥
भव बारन दारन सिंह प्रभो।
गुन सागर नागर नाथ बिभो॥


हे नित्य सुखधाम और [दुःखोंको हरनेवाले] हरि! हे धनुष-बाण धारण किये हुए रघुनाथजी! आपकी जय हो। हे प्रभो! आप भव (जन्म-मरण) रूपी हाथीको विदीर्ण करनेके लिये सिंहके समान हैं। हे नाथ! हे सर्वव्यापक! आप गुणोंके समुद्र और परम चतुर हैं॥१॥

तन काम अनेक अनूप छबी।
गुन गावत सिद्ध मुनींद्र कबी॥
जसुपावन रावन नाग महा।
खगनाथ जथा करिकोप गहा॥


आपके शरीरकी अनेकों कामदेवोंके समान, परन्तु अनुपम छवि है। सिद्ध, मुनीश्वर और कवि आपके गुण गाते रहते हैं। आपका यश पवित्र है। आपने रावणरूपी महासर्पको गरुड़की तरह क्रोध करके पकड़ लिया॥२॥

जन रंजन भंजन सोक भयं।
गतक्रोध सदा प्रभु बोधमयं॥
अवतार उदार अपार गुनं।
महि भार बिभंजन ग्यानधनं॥

हे प्रभो! आप सेवकोंको आनन्द देनेवाले, शोक और भयका नाश करनेवाले, सदा क्रोधरहित और नित्य ज्ञानस्वरूप हैं। आपका अवतार श्रेष्ठ, अपार दिव्य गुणोंवाला, पृथ्वीका भार उतारनेवाला और ज्ञानका समूह है॥ ३॥

अज ब्यापकमेकमनादि सदा।
करुनाकर राम नमामि मुदा॥
रघुबंस बिभूषन दूषन हा।
कृत भूप बिभीषन दीन रहा।

[किन्तु अवतार लेनेपर भी] आप नित्य, अजन्मा, व्यापक, एक (अद्वितीय) और अनादि हैं। हे करुणाकी खान श्रीरामजी! मैं आपको बड़े ही हर्षके साथ नमस्कार करता हूँ। हे रघुकुलके आभूषण ! हे दूषण राक्षसको मारनेवाले तथा समस्त दोषोंको हरनेवाले! विभीषण दीन था, उसे आपने [लंकाका] राजा बना दिया॥४॥

गुन ग्यान निधान अमान अजं।
नित राम नमामि बिभुं बिरजं॥
भुजदंड प्रचंड प्रताप बलं।
खल बंद निकंद महा कुसलं॥

हे गुण और ज्ञानके भण्डार ! हे मानरहित ! हे अजन्मा, व्यापक और मायिक विकारोंसे रहित श्रीराम! मैं आपको नित्य नमस्कार करता हूँ। आपके भुजदण्डोंका प्रताप और बल प्रचण्ड है। दुष्टसमूहके नाश करने में आप परम निपुण हैं॥५॥

बिनु कारन दीन दयाल हितं।
छबि धाम नमामि रमा सहितं॥
भव तारन कारन काज परं!
मन संभव दारुन दोष हरं॥

हे बिना ही कारण दीनों पर दया तथा उनका हित करनेवाले और शोभाके धाम! मैं श्रीजानकीजीसहित आपको नमस्कार करता हूँ। <mark>आप भवसागरसे तारनेवाले हैं, कारणरूपा प्रकृति और कार्यरूप जगत दोनोंसे परे हैं और मनसे उत्पन्न होनेवाले कठिन दोषोंको हरनेवाले हैं।॥ ६॥</mark>

सर चाप मनोहर त्रोन धरं।
जलजारुन लोचन भूपबरं॥
सुख मंदिर सुंदर श्रीरमनं।
मद मार मुधा ममता समनं॥

आप मनोहर बाण, धनुष और तरकस धारण करनेवाले हैं। [लाल] कमलके समान रक्तवर्ण आपके नेत्र हैं। आप राजाओंमें श्रेष्ठ, सुखके मन्दिर, सुन्दर, श्री (लक्ष्मीजी) के वल्लभ तथा मद (अहङ्कार), काम और झूठी ममताके नाश करनेवाले हैं॥७॥

अनवद्य अखंड न गोचर गो।
सबरूप सदा सब होइ न गो॥
इति बेद बदंति न दंतकथा।
रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा।

आप अनिन्द्य या दोषरहित हैं, अखण्ड हैं, इन्द्रियोंके विषय नहीं हैं। सदा सर्वरूप होते हुए भी आप वह सब कभी हुए ही नहीं, ऐसा वेद कहते हैं। यह [कोई] दन्तकथा (कोरी कल्पना) नहीं है। जैसे सूर्य और सूर्यका प्रकाश अलग-अलग हैं और अलग नहीं भी हैं, वैसे ही आप भी संसारसे भिन्न तथा अभिन्न दोनों ही हैं॥ ८॥

कृतकृत्य बिभो सब बानर ए।
निरखंति तवानन सादर ए॥
धिग जीवन देव सरीर हरे।
तव भक्ति बिना भव भूलि परे॥

हे व्यापक प्रभो! ये सब वानर कृतार्थरूप हैं, जो आदरपूर्वक ये आपका मुख देख रहे हैं। [और] हे हरे! हमारे [अमर] जीवन और देव (दिव्य) शरीरको धिक्कार है, जो हम आपकी भक्तिसे रहित हुए संसारमें (सांसारिक विषयोंमें) भूले पड़े हैं॥ ९॥

अब दीनदयाल दया करिए।
मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ॥
जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ।
दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ॥

हे दीनदयालु! अब दया कीजिये और मेरी उस विभेद उत्पन्न करनेवाली बुद्धिको हर लीजिये, जिससे मैं विपरीत कर्म करता हूँ और जो दुःख है, उसे सुख मानकर आनन्दसे विचरता हूँ॥१०॥

खल खंडन मंडन रम्य छमा।
पद पंकज सेवित संभु उमा॥
नृप नायक दे बरदानमिदं।
चरनांबुज प्रेमु सदा सुभदं॥

आप दुष्टोंका खण्डन करनेवाले और पृथ्वीके रमणीय आभूषण हैं। आपके चरण कमल श्रीशिव-पार्वतीद्वारा सेवित हैं। हे राजाओंके महाराज! मुझे यह वरदान दीजिये कि आपके चरणकमलोंमें सदा मेरा कल्याणदायक [अनन्य] प्रेम हो॥११॥

दो०- बिनय कीन्हि चतुरानन प्रेम पुलक अति गात।
सोभासिंधु बिलोकत लोचन नहीं अघात॥१११॥


इस प्रकार ब्रह्माजीने अत्यन्त प्रेम-पुलकित शरीरसे विनती की। शोभाके समुद्र श्रीरामजीके दर्शन करते-करते उनके नेत्र तृप्त ही नहीं होते थे॥१११॥

तेहि अवसर दसरथ तहँ आए।
तनय बिलोकि नयन जल छाए॥
अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा।
आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा॥


उसी समय दशरथजी वहाँ आये। पुत्र (श्रीरामजी) को देखकर उनके नेत्रोंमें [प्रेमाश्रुओंका] जल छा गया। छोटे भाई लक्ष्मणजीसहित प्रभुने उनकी वन्दना की और तब पिताने उनको आशीर्वाद दिया॥१॥

तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ।
जीत्यों अजय निसाचर राऊ॥
सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ी।
नयन सलिल रोमावलि ठाढ़ी।


[श्रीरामजीने कहा-] हे तात! यह सब आपके पुण्योंका प्रभाव है, जो मैंने अजेय राक्षसराजको जीत लिया। पुत्रके वचन सुनकर उनकी प्रीति अत्यन्त बढ़ गयी। नेत्रोंमें जल छा गया और रोमावली खड़ी हो गयी॥२॥

रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना।
चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना॥
ताते उमा मोच्छ नहिं पायो।
दसरथ भेद भगति मन लायो।


श्रीरघुनाथजीने पहलेके (जीवित कालके) प्रेमको विचारकर, पिताकी ओर देखकर ही उन्हें अपने स्वरूपका दृढ़ ज्ञान करा दिया। हे उमा! दशरथजीने भेद-भक्तिमें अपना मन लगाया था, इसीसे उन्होंने [कैवल्य] मोक्ष नहीं पाया॥३॥

सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं।
तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं॥
बार बार करि प्रभुहि प्रनामा।
दसरथ हरषि गए सुरधामा॥


[मायारहित सच्चिदानन्दमय स्वरूपभूत दिव्यगुणयुक्त] सगुणस्वरूपकी उपासना करनेवाले भक्त इस प्रकारका मोक्ष लेते भी नहीं। उनको श्रीरामजी अपनी भक्ति देते हैं। प्रभुको [इष्टबुद्धिसे] बार-बार प्रणाम करके दशरथजी हर्षित होकर देवलोकको चले गये।॥४॥

दो०- अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस।
सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस॥११२॥


छोटे भाई लक्ष्मणजी और जानकीजीसहित परम कुशल प्रभु श्रीकोसलाधीशकी शोभा देखकर देवराज इन्द्र मनमें हर्षित होकर स्तुति करने लगे-॥ ११२।।

छं०-जय राम सोभा धाम।
दायक प्रनत बिश्राम।।
धृत त्रोन बर सर चाप।
भुजदंड प्रबल प्रताप।


शोभाके धाम, शरणागतको विश्राम देनेवाले, श्रेष्ठ तरकस, धनुष और बाण धारण किये हुए, प्रबल प्रतापी भुजदण्डोंवाले श्रीरामचन्द्रजीको जय हो!॥१॥

जय दूषनारि खरारि।
मर्दन निसाचर धारि।।
यह दुष्ट मारेउ नाथ।
भए देव सकल सनाथ।


हे खर और दूषणके शत्रु और राक्षसोंकी सेनाके मर्दन करनेवाले! आपकी जय हो! हे नाथ! आपने इस दुष्टको मारा, जिससे सब देवता सनाथ (सुरक्षित) हो गये॥२॥

जय हरन धरनी भार।
महिमा उदार अपार॥
जय रावनारि कृपाल।
किए जातुधान बिहाल॥

हे भूमिका भार हरनेवाले! हे अपार श्रेष्ठ महिमावाले! आपकी जय हो। हे रावणके शत्रु! हे कृपालु! आपकी जय हो। आपने राक्षसोंको बेहाल (तहस-नहस) कर दिया॥३॥

लंकेस अति बल गर्ब।
किए बस्य सुर गंधर्ब।
मुनि सिद्ध नर खग नाग।
हठि पंथ सब कें लाग॥

लंकापति रावणको अपने बलका बहुत घमंड था। उसने देवता और गन्धर्व सभीको अपने वशमें कर लिया था और वह मुनि, सिद्ध, मनुष्य, पक्षी और नाग आदि सभीके हठपूर्वक (हाथ धोकर) पीछे पड़ गया था।॥४॥

परद्रोह रत अति दुष्ट।
पायो सो फलु पापिष्ट॥
अब सुनहु दीन दयाल।
राजीव नयन बिसाल॥

वह दूसरोंसे द्रोह करनेमें तत्पर और अत्यन्त दुष्ट था। उस पापीने वैसा ही फल पाया। अब हे दीनोंपर दया करनेवाले ! हे कमलके समान विशाल नेत्रोंवाले! सुनिये॥५॥

मोहि रहा अति अभिमान।
नहिं कोउ मोहि समान॥
अब देखि प्रभु पद कंज।
गत मान प्रद दुख पुंज॥

मुझे अत्यन्त अभिमान था कि मेरे समान कोई नहीं है, पर अब प्रभु (आप) के चरणकमलोंके दर्शन करनेसे दुःख-समूहका देनेवाला मेरा वह अभिमान जाता रहा॥६॥

कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव।
अब्यक्त जेहि श्रुति गाव॥
मोहि भाव कोसल भूप।
श्रीराम सगुन सरूप॥

कोई उन निर्गुण ब्रह्मका ध्यान करते हैं जिन्हें वेद अव्यक्त (निराकार) कहते हैं। परन्तु हे रामजी ! मुझे तो आपका यह सगुण कोसलराज-स्वरूप ही प्रिय लगता है॥७॥

बैदेहि अनुज समेत।
मम हृदय करहु निकेत॥
मोहि जानिऐ निज दास।
दे भक्ति रमानिवास।

श्रीजानकीजी और छोटे भाई लक्ष्मणजीसहित मेरे हृदयमें अपना घर बनाइये। हे रमानिवास! मुझे अपना दास समझिये और अपनी भक्ति दीजिये॥८॥

छं०-दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं।
सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं॥
सुर बंद रंजन द्वंद भंजन मनुजतनु अतुलितबलं।
ब्रह्मादि संकर सेब्य राम नमामि करुना कोमलं॥

हे रमानिवास! हे शरणागतके भयको हरनेवाले और उसे सब प्रकारका सुख देनेवाले! मुझे अपनी भक्ति दीजिये। हे सुखके धाम! हे अनेकों कामदेवोंकी छबिवाले रघुकुलके स्वामी श्रीरामचन्द्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे देवसमूहको आनन्द देनेवाले, [जन्म-मृत्यु, हर्ष-विषाद, सुख-दुःख आदि] द्वन्द्वोंके नाश करनेवाले, मनुष्यशरीरधारी, अतुलनीय बलवाले, ब्रह्मा और शिव आदिसे सेवनीय, करुणासे कोमल श्रीरामजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

दो०- अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल।
काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल॥११३॥


हे कृपालु! अब मेरी ओर कृपा करके (कृपादृष्टिसे) देखकर आज्ञा दीजिये कि मैं क्या [सेवा] करूँ! इन्द्रके ये प्रिय वचन सुनकर दीनदयालु श्रीरामजी बोले-॥ ११३॥

सुनु सुरपति कपि भालु हमारे।
परे भूमि निसिचरन्हि जे मारे॥
मम हित लागि तजे इन्ह प्राना।
सकल जिआउ सुरेस सुजाना॥


हे देवराज! सुनो, हमारे वानर-भालू, जिन्हें निशाचरोंने मार डाला है, पृथ्वीपर पड़े हैं। इन्होंने मेरे हितके लिये अपने प्राण त्याग दिये। हे सुंजान देवराज! इन सबको जिला दो॥१॥

सुनु खगेस प्रभु के यह बानी।
अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी॥
प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई।
केवल सक्रहि दीन्हि बड़ाई॥


[काकभुशुण्डिजी कहते हैं-] हे गरुड़! सुनिये, प्रभुके ये वचन अत्यन्त गहन (गूढ़) हैं। ज्ञानी मुनि ही इन्हें जान सकते हैं। प्रभु श्रीरामजी त्रिलोकीको मारकर जिला सकते हैं। यहाँ तो उन्होंने केवल इन्द्रको बड़ाई दी है॥२॥

सुधा बरषि कपि भालु जिआए।
हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए।
सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर।
जिए भालु कपि नहिं रजनीचर।


इन्द्रने अमृत बरसाकर वानर-भालुओंको जिला दिया। सब हर्षित होकर उठे और प्रभुके पास आये। अमृतकी वर्षा दोनों ही दलोंपर हुई। पर रीछ-वानर ही जीवित हुए, राक्षस नहीं॥३॥

रामाकार भए तिन्ह के मन।
मुक्त भए छूटे भव बंधन॥
सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा।
जिए सकल रघुपति की ईछा।


क्योंकि राक्षसोंके मन तो मरते समय रामाकार हो गये थे। अत: वे मुक्त हो गये, उनके भव-बन्धन छूट गये। किन्तु वानर और भालू तो सब देवांश (भगवानकी लीलाके परिकर) थे। इसलिये वे सब श्रीरघुनाथजीकी इच्छासे जीवित हो गये॥४॥

राम सरिस को दीन हितकारी।
कीन्हे मुकुत निसाचर झारी॥
खल मल धाम काम रत रावन।
गति पाई जो मुनिबर पाव न॥


श्रीरामचन्द्रजीके समान दीनोंका हित करनेवाला कौन है? जिन्होंने सारे राक्षसोंको मुक्त कर दिया! दुष्ट, पापोंके घर और कामी रावणने भी वह गति पायी जिसे श्रेष्ठ मुनि भी नहीं पाते॥ ५॥

दो०- सुमन बरषि सब सुर चले चढ़ि चढ़ि रुचिर बिमान।
देखि सुअवसर प्रभु पहिं आयउ संभु सुजान॥११४ (क)॥


फूलोंकी वर्षा करके सब देवता सुन्दर विमानोंपर चढ़-चढ़कर चले। तब सुअवसर जानकर सुजान शिवजी प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके पास आये-॥ ११४ (क)॥

परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि।
पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि॥११४ (ख)।


और परम प्रेमसे दोनों हाथ जोड़कर, कमलके समान नेत्रोंमें जल भरकर, पुलकित शरीर और गद्गद वाणीसे त्रिपुरारि शिवजी विनती करने लगे-॥ ११४ (ख)।

छं०-मामभिरक्षय रघुकुल नायक।
धृत बर चाप रुचिर कर सायक।।
मोह महा घन पटल प्रभंजन।
संसय बिपिन अनल सुर रंजन॥


हे रघुकुलके स्वामी! सुन्दर हाथोंमें श्रेष्ठ धनुष और सुन्दर बाण धारण किये हुए आप मेरी रक्षा कीजिये। आप महामोहरूपी मेघसमूहके [उड़ानेके] लिये प्रचण्ड पवन हैं, संशयरूपी वनके [भस्म करनेके] लिये अग्नि हैं और देवताओंको आनन्द देनेवाले हैं॥१॥

अगुन सगुन गुन मंदिर सुंदर।
भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर॥
काम क्रोध मद गज पंचानन।
बसहु निरंतर जन मन कानन॥

आप निर्गुण, सगुण, दिव्य गुणोंके धाम और परम सुन्दर हैं। भ्रमरूपी अन्धकारके [नाशके] लिये प्रबल प्रतापी सूर्य हैं। काम, क्रोध और मदरूपी हाथियोंके [वधके] लिये सिंहके समान आप इस सेवकके मनरूपी वनमें निरन्तर निवास कीजिये॥ २॥

बिषय मनोरथ पुंज कंज बन।
प्रबल तुषार उदार पार मन॥
भव बारिधि मंदर परमं दर।
बारय तारय संसृति दुस्तर॥

विषयकामनाओंके समूहरूपी कमलवनके [नाशके] लिये आप प्रबल पाला हैं, आप उदार और मनसे परे हैं। भवसागर [को मथने] के लिये आप मन्दराचल पर्वत हैं। आप हमारे परम भयको दूर कीजिये और हमें दुस्तर संसारसागरसे पार कीजिये॥३॥

स्याम गात राजीव बिलोचन।
दीन बंधु प्रनतारति मोचन।।
अनुज जानकी सहित निरंतर।
बसहु राम नृप मम उर अंतर।
मुनि रंजन महि मंडल मंडन।
तुलसिदास प्रभुत्रास बिखंडन।

हे श्यामसुन्दर-शरीर ! हे कमलनयन ! हे दीनबन्धु ! हे शरणागत को दुःखसे छुड़ानेवाले! हे राजा रामचन्द्रजी! आप छोटे भाई लक्ष्मण और जानकीजी सहित निरन्तर मेरे हृदयके अंदर निवास कीजिये। आप मुनियोंको आनन्द देनेवाले, पृथ्वीमण्डलके भूषण, तुलसीदासके प्रभु और भयका नाश करनेवाले हैं॥ ४-५॥

दो०- नाथ जबहिं कोसलपुरी होइहि तिलक तुम्हार।
कृपासिंधु मैं आउब देखन चरित उदार॥११५॥


हे नाथ! जब अयोध्यापुरीमें आपका राजतिलक होगा, तब हे कृपासागर! मैं आपकी उदार लीला देखने आऊँगा॥ ११५॥

करि बिनती जब संभु सिधाए।
तब प्रभु निकट बिभीषनु आए॥
नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी।
बिनय सुनहु प्रभु सारंगपानी॥


जब शिवजी विनती करके चले गये, तब विभीषणजी प्रभुके पास आये और चरणोंमें सिर नवाकर कोमल वाणीसे बोले-हे शार्ङ्गधनुषके धारण करनेवाले प्रभो! मेरी विनती सुनिये-॥१॥

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