मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस (उत्तरकाण्ड) रामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।
षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने।।
फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे।।5।।
षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने।।
फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे।।5।।
वेद शास्त्रोंने कहा है कि जिसका मूल अव्यक्त (प्रकृति)
है; जो [प्रवाहरूपसे] अनादि है; जिसके चार त्वचाएँ छः तने, पचीस
शाखाएँ और अनेकों पत्ते और बहुत से फूल हैं; जिसमें कड़वे और मीठे दो प्रकार
के फल लगे हैं; जिस पर एक ही बेल है, जो उसीके आश्रित रहती है; जिसमें नित्य
नये पत्ते और फूल निकलते रहते हैं; ऐसे संसारवृक्षस्वरूप (विश्वरूपमें प्रकट)
आपको हम नमस्कार करते हैं।।5।।
जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं।।
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं।।
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं।
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं।।6।।
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं।।
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं।
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं।।6।।
ब्रह्म अजन्म है, अद्वैत है केवल अनुभवसे ही जाना जाना
जाता है और मन से परे है-जो [इस प्रकार कहकर उस] ब्रह्म का ध्यान
करते हैं, वे ऐसा कहा करें और जाना करें, किन्तु हे नाथ! हम तो नित्य आपका
सगुण यश ही गाते हैं। हे करुणा के धाम प्रभो! हे सद्गुणोंकी खान! हे देव! हम
यह बर माँगते हैं कि मन, वचन और कर्म से विकारों को त्यागकर आपके चरणोंमें ही
प्रेम करें।।6।।
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