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रामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 4471
आईएसबीएन :0

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

दो.-सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार।
अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार।।13क।।

वेदोंने सबके देखते यह श्रेष्ठ विनती की। फिर वे अन्तर्धान हो गये और ब्रह्मलोक को चले गये।।13(क)।।

बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर।
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर।।13ख।।

[काकभुशुण्डिजी कहते हैं-] हे गरुड़जी! सुनिये, तब शिवजी वहाँ आये जहाँ श्रीरघुवीर जी थे और गद्गद वाणीसे स्तुति करने लगे। उनका शरीर पुलकावली से पूर्ण हो गया-।।13(ख)।।

छं.-जय राम रमारमनं समनं।
भवताप भयाकुल पाहि जनं।।
अवधेस सुरेस रमेस बिभो।
सरनागत मागत पाहि प्रभो।।1।।

हे राम! हे रमारमण (लक्ष्मीकान्त)! हे जन्म-मरणके संतापका नाश करनेवाले! आपकी जय हो; आवागमनके भयसे व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिये। हे अवधिपति! हे देवताओं के स्वामी! हे रमापति! हे विभो! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिये।।1।।

दससीस बिनासन बीस भुजा।
कृत दूरि महा महि भूरि रुजा।।
रजनीचर बृंद पतंग रहे।
सर पावक तेज प्रचंड दहे।।2।।

हे दस सिर और बीस भुजाओंवाले रावणका विनाश करके पृथ्वीके सब महान् रोगों (कष्टों) को दूर करने वाले श्रीरामजी! राक्षस समूह रूपी जो पतंगे थे, वे सब आपको बाणरूपी अग्नि के प्रचण्ड तेजसे भस्म हो गये।।2।।

महि मंडल मंडन चारुतरं।
धृत सायक चाप निषंग बरं।।
मद मोह महा ममता रजनी।
तम पुंज दिवाकर तेज अनी।।3।।

आप पृथ्वी मण्डल के अत्यन्त आभूषण हैं; आप श्रेष्ठ बाण, धनुष और तरकस धारण किये हुए हैं। महान् मद मोह और ममतारूपी रात्रिके अन्धकार समूहके नाश करनेके लिये आप सूर्य तेजोमय किरणसमूह हैं।।3।।

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