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रामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 4471
आईएसबीएन :0

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।


उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता।
जगदंबा संततमनिंदिता।।5।।

[शिवजी कहते हैं-] हे उमा! जगज्जननी रमा (सीताजी) ब्रह्मा आदि देवताओं से वन्दित और सदा अनिन्दित (सर्वगुणसम्पन्न हैं।।5।।

दो.-जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोई।
राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोई।।24।।

देवता जिनका कृपा कटाक्ष चाहते हैं, परंतु वे उनकी ओर देखती भी नहीं, वे ही लक्ष्मीजी जानकीजी अपने [महामहिम] स्वभावको छोड़कर श्रीरामचन्द्रजी के चरणारविन्दमें प्रीति करती हैं।।24।।

चौ.-सेवहिं सानुकूल सब भाई।
राम चरन रति अति अधिकाई।।
प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं।
कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं।।1।।

सब भाई अनुकूल रहकर उनकी सेवा करते हैं। श्रीरामचन्द्रजीके चरणों में उनकी अत्यन्त अधिक प्रीति है। वे सदा प्रभु का मुखारविन्द ही देखते रहते हैं कि कृपाल श्रीरामजी कभी हमें कुछ सेवा करने को कहें।।1।।

राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती।
नाना भाँति सिखावहिं नीती।।
हरषित रहहिं नगर के लोगा।
करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा।।2।।

श्रीरामचन्द्रजी भी भाइयों पर प्रेम करते हैं और उन्हें नाना प्रकारकी नीतियाँ सिखलाते हैं। नगर के लोग हर्षित होते रहते हैं और सब प्रकारके देवदुर्लभ (देवताओंको भी कठिनतासे प्राप्त होने योग्य) भोग भोगते हैं।।2।।

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