मूल्य रहित पुस्तकें >> रामचरितमानस (उत्तरकाण्ड) रामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
|
234 पाठक हैं |
वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
अहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं।
श्रीरघुबीर चरन रति चहहीं।।
दुइ सुत सुंदर सीताँ जाए।
लव कुस बेद पुरान्ह गाए।।3।।
श्रीरघुबीर चरन रति चहहीं।।
दुइ सुत सुंदर सीताँ जाए।
लव कुस बेद पुरान्ह गाए।।3।।
वे दिन रात ब्रह्मा जी को मानते रहते हैं और [उनसे]
श्रीरघुवीरके चरणोंमें प्रीति चाहते हैं। सीताजी के लव और कुश-ये दो पुत्र
उत्पन्न हुए, जिनका वेद पुराणों ने वर्णन किया है।।3।।
दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर।
हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर।।
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे।
भए रूप गुन सील घनेरे।।4।।
हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर।।
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे।
भए रूप गुन सील घनेरे।।4।।
वे दोनों ही विजयी (विख्यात योद्धा), नम्र और गुणोंके धाम हैं
और अत्यन्त सुन्दर हैं, मानो श्री हरि के प्रतिबिम्ब ही हों। दो-दो पुत्र सभी
भाइयों के हुए, जो बड़े ही सुन्दर, गुणवान् और सुशील थे।।4।।
दो.-ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार।
सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार।।25।।
सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार।।25।।
जो [बौद्धिक] ज्ञान, वाणी और इन्दियों से परे और अजन्मा
हैं तथा माया, मन और गुणोंके परे हैं, वही सच्चिदादन्घन भगवान् श्रेष्ठ
नर-लीला करते हैं।।25।।
|