लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 1

श्रीमद्भगवद्गीता भाग 1

महर्षि वेदव्यास

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :59
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 538
आईएसबीएन :000000000

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

679 पाठक हैं

(यह पुस्तक वेबसाइट पर पढ़ने के लिए उपलब्ध है।)

न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।।32।।

हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविन्द! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है?।।32।।

क्षत्रिय व्यक्ति का विजयाकाँक्षी होना तो स्वाभाविक है, जब विजय होगी तो राज्य और सुख भी प्राप्त ही होंगे। अर्जुन क्षत्रियों की स्वाभाविक इच्छा और क्षत्रिय होने के अस्तित्त्व की मूलभूत आवश्यकता से भी प्रभावित है, वह कहता है कि इस प्रकार अपने स्वजनों से ही युद्ध करके यदि राज्य और भोग मिल भी गये तो वे व्यर्थ हैं। वह न विजय चाहता है न क्षत्रियोचित् सुख। उसका मानसिक संतुलन अगले कुछ क्षणों में अकस्मात् धराशायी होता जाता है। अपनी बात को तर्क द्वारा सिद्ध करने के लिए अब वह ज्ञानियों और विचारकों की तरह अपने मत के पक्ष में अन्य प्रस्ताव प्रस्तुत करता है। सबसे पहले तो वह कृष्ण से ही प्रश्न करता है कि इस तरह अपने स्वजनों को मारकर पाया गया राज्य और उसके फलस्वरूप सुखी बनाया गया जीवन भी, जीवन जीने का कोई प्रयोजन है। वह प्रश्न अपने आप से भी कर रहा है, ठीक उसी तरह जैसे जब हम अनिश्चय की स्थिति में होते हैं, तो अपने साधारण से साधारण कर्मों का विश्लेषण करने लगते हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book