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			 मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2महर्षि वेदव्यास
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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।
    
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। 
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।13।।
    
    तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।13।।
जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती
      है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीर पुरुष मोहित
      नहीं होता।।13।।
      
देहिन अर्थात् देह अथवा शरीरधारण करने वाले को शरीर धारण करते समय बचपन, युवावस्था और वृद्धावस्था का अनुभव होता है। उसी प्रकार देह को धारण करने वाली आत्मा पुराने शरीर को त्याग करके समय आने पर नये शरीर को ग्रहण कर लेती है। इस तथ्य को समझने वाला व्यक्ति कभी मोहित नहीं होता।
      
देह (शरीर) को धारण करने वाला जीवात्मा देहिन कहलाता है। इस जीवात्मा के द्वारा धारण की गई देह में बचपन, युवावस्था और वृद्धावस्था आदि होती है। जब यह देह अपना प्रयोजन पूरा कर चुकती है और किसी योग्य नहीं रह जाती है तो इस देह को त्याग कर जीवात्मा नई देह धारण करता है। साधारण लोगों को, जिन्होंने आत्म-मंथन नहीं किया है, उनके विषय में तो ठीक से कुछ नहीं कहा जा सकता है, परंतु धीर और ज्ञानी लोग इस बात को अच्छी तरह समझते हैं और इस विषय में मोह नहीं करते हैं। यहाँ मानव शरीर के लिए देह शब्द का प्रयोग विशेष अर्थ वाला है, क्योंकि जो अंततोगत्वा दहन करने योग्य है, उसे ही देह कहते हैं, अर्थात् इस शब्द के प्रयोग से ही व्यासजी कहते हैं कि, देह तो नाशवान् ही है।
    देहिन अर्थात् देह अथवा शरीरधारण करने वाले को शरीर धारण करते समय बचपन, युवावस्था और वृद्धावस्था का अनुभव होता है। उसी प्रकार देह को धारण करने वाली आत्मा पुराने शरीर को त्याग करके समय आने पर नये शरीर को ग्रहण कर लेती है। इस तथ्य को समझने वाला व्यक्ति कभी मोहित नहीं होता।
देह (शरीर) को धारण करने वाला जीवात्मा देहिन कहलाता है। इस जीवात्मा के द्वारा धारण की गई देह में बचपन, युवावस्था और वृद्धावस्था आदि होती है। जब यह देह अपना प्रयोजन पूरा कर चुकती है और किसी योग्य नहीं रह जाती है तो इस देह को त्याग कर जीवात्मा नई देह धारण करता है। साधारण लोगों को, जिन्होंने आत्म-मंथन नहीं किया है, उनके विषय में तो ठीक से कुछ नहीं कहा जा सकता है, परंतु धीर और ज्ञानी लोग इस बात को अच्छी तरह समझते हैं और इस विषय में मोह नहीं करते हैं। यहाँ मानव शरीर के लिए देह शब्द का प्रयोग विशेष अर्थ वाला है, क्योंकि जो अंततोगत्वा दहन करने योग्य है, उसे ही देह कहते हैं, अर्थात् इस शब्द के प्रयोग से ही व्यासजी कहते हैं कि, देह तो नाशवान् ही है।
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। 
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।14।।
    
    आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।14।।
 हे कुन्तीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देनेवाले इन्द्रिय
      और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति- विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिये हे भारत!
      उनको तू सहन कर।।14।।
      
जगत् में व्यक्त हुई सृष्टि से जब मनुष्य की इंद्रियों का संयोग होता है तो उसके फलस्वरूप उसे शीत, ऊष्ण, सुख, दुख आदि का अनुभव होता है अर्थात् कुछ मन को अच्छे लगने वाले और कुछ कष्ट देने वाले अनुभव होते हैं। गर्मी के दिनों में तापमान कुछ दिनों के लिए इतना अधिक बढ़ जाता है कि वह असह्य हो जाता है, इसी प्रकार शीत लहर चलने पर तापमान इतना अधिक गिर जाता है कि ठण्ड के कारण हाथ-पैर और शरीर अकड़ने लगते हैं। इसी प्रकार कोई मनचाहा मित्र मिलने पर व्यक्ति का मन प्रसन्न हो जाता है, और ऐसा लगता है कि ऐसे मित्र का साथ कभी न छूटे। दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे स्वभाव के होते हैं और ऐसी वाणी बोलते हैं कि उनके साथ कुछ क्षणों के लिए रहना भी कठिन हो जाता है। इन सभी अनुभवों की उत्पत्ति और विनाश होते रहते हैं, इसलिए जीवन के अनुभवों को धैर्य के साथ और जीवन का अभिन्न अंग समझ तक ग्रहण करना चाहिए।
    
    			
		  			
			जगत् में व्यक्त हुई सृष्टि से जब मनुष्य की इंद्रियों का संयोग होता है तो उसके फलस्वरूप उसे शीत, ऊष्ण, सुख, दुख आदि का अनुभव होता है अर्थात् कुछ मन को अच्छे लगने वाले और कुछ कष्ट देने वाले अनुभव होते हैं। गर्मी के दिनों में तापमान कुछ दिनों के लिए इतना अधिक बढ़ जाता है कि वह असह्य हो जाता है, इसी प्रकार शीत लहर चलने पर तापमान इतना अधिक गिर जाता है कि ठण्ड के कारण हाथ-पैर और शरीर अकड़ने लगते हैं। इसी प्रकार कोई मनचाहा मित्र मिलने पर व्यक्ति का मन प्रसन्न हो जाता है, और ऐसा लगता है कि ऐसे मित्र का साथ कभी न छूटे। दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे स्वभाव के होते हैं और ऐसी वाणी बोलते हैं कि उनके साथ कुछ क्षणों के लिए रहना भी कठिन हो जाता है। इन सभी अनुभवों की उत्पत्ति और विनाश होते रहते हैं, इसलिए जीवन के अनुभवों को धैर्य के साथ और जीवन का अभिन्न अंग समझ तक ग्रहण करना चाहिए।
						
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