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			 मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2महर्षि वेदव्यास
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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।
    
 यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ। 
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।15।।
    
    समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।15।।
क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझनेवाले जिस धीर
      पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह अमृत अर्थात्
      मृत्यु को नहीं प्राप्त होने वाला कहा जाता है।।15।।
      
साधारण परिस्थितियों में जीवन में सुख और दुख देने वाले अनुभवों को भोगते हुए, हम सभी यह जानते हैं कि सुख के अनुभव हम सभी को प्रिय होते हैं, और इन अनुभवों के बारे में हमारा पुनरापि मनन, इन अनुभवों को बार-बार पाने के लिए उकसाता रहता है। इसी प्रकार दुःख के अनुभवों के विषय में हमारा चिंतन उन दुःखों से दूर भागने के लिए प्रेरित करता रहता है। परंतु इन दोनों परिस्थितियों से उत्पन्न विचारों के बीच दोलन की तरह झूलते हुए अपने मन पर जो संयम रखते हैं, उन्हें धीर पुरुष कहा जाता है। अर्जुन को धीर (धैर्य से साधना करते हुए जो व्यक्ति परमात्म तत्त्व की खोज में सतत् लगा रहने वाला) व्यक्ति के गुणों के विषय में स्मरण करवा कर भगवान् कृष्ण अर्जुन का ध्यान उसके मानसिक उद्वेलन से हटाना चाहते हैं।
    साधारण परिस्थितियों में जीवन में सुख और दुख देने वाले अनुभवों को भोगते हुए, हम सभी यह जानते हैं कि सुख के अनुभव हम सभी को प्रिय होते हैं, और इन अनुभवों के बारे में हमारा पुनरापि मनन, इन अनुभवों को बार-बार पाने के लिए उकसाता रहता है। इसी प्रकार दुःख के अनुभवों के विषय में हमारा चिंतन उन दुःखों से दूर भागने के लिए प्रेरित करता रहता है। परंतु इन दोनों परिस्थितियों से उत्पन्न विचारों के बीच दोलन की तरह झूलते हुए अपने मन पर जो संयम रखते हैं, उन्हें धीर पुरुष कहा जाता है। अर्जुन को धीर (धैर्य से साधना करते हुए जो व्यक्ति परमात्म तत्त्व की खोज में सतत् लगा रहने वाला) व्यक्ति के गुणों के विषय में स्मरण करवा कर भगवान् कृष्ण अर्जुन का ध्यान उसके मानसिक उद्वेलन से हटाना चाहते हैं।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। 
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।16।।
      
    
    उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।16।।
 असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इस
      प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।।16।।
      
गीता का यह श्लोक कालांतर में बहुत प्रसिद्ध हुआ है। इसलिए तत्त्वज्ञानी इसका बार-बार उद्धरण करते हैं। इसके अनुसार--सत् वस्तु का अर्थ है, कोई ऐसी वस्तु जो हर काल में उपलब्ध रहती है और असत् वस्तु वह है, जो कि क्षणिक है और कुछ ही समय के लिए उपलब्ध होती है। सापेक्षता से इसे समझें तो किसी पतंगे का जीवन कुछ क्षणों, घंटो अथवा अधिक से अधिक एक-दो दिन के लिए होता है, जबकि मनुष्य का जीवन 70-80 वर्षों तक चलता है। इस प्रकार यदि कोई पतंगा आज ही पैदा हुआ है, तो आज के लिए वह भी सत् है और मनुष्य भी। परंतु दो दिनों के बाद वह पतंगा असत् हो जायेगा, जबकि मनुष्य फिर भी सत् रहेगा। अब मनुष्य की आयु के सापेक्ष किसी चट्टान अथवा समुद्र की आयु को देखिए! मनुष्य तो 70-80 वर्षों में यह जगत् छोड़ देगा, लेकिन वह चट्टान और समुद्र इत्यादि तो न जाने कितने लाखों-करोड़ों वर्षों तक रहेंगे। इसी प्रकार इन चट्टानों और समुद्रों की अपेक्षाकृत यह सौर-मण्डल और यह ब्रह्माण्ड तो न जाने कितने वर्षों तक अस्तित्व में रहेंगे। इसीलिए यदि इसी भाव से समझें तो असत् वस्तु (पतंगा) तो अधिक समय नहीं रहेगी और सत् वस्तु (मनुष्य) तो हर क्षण उपलब्ध रहेगी। तत्त्व दर्शी अर्थात् जो लोग सत् वस्तु को खोजते हैं उनकी रुचि तो केवल सत् वस्तु को समझने और पाने में रहती है। जबकि सामान्य जन क्षणिक (असत्) वस्तुओं के बारे में विचार करने और उन्हें पाने तथा उपभोग करने में अपना समय व्यतीत करते हैं।
    
    			
		  			
			गीता का यह श्लोक कालांतर में बहुत प्रसिद्ध हुआ है। इसलिए तत्त्वज्ञानी इसका बार-बार उद्धरण करते हैं। इसके अनुसार--सत् वस्तु का अर्थ है, कोई ऐसी वस्तु जो हर काल में उपलब्ध रहती है और असत् वस्तु वह है, जो कि क्षणिक है और कुछ ही समय के लिए उपलब्ध होती है। सापेक्षता से इसे समझें तो किसी पतंगे का जीवन कुछ क्षणों, घंटो अथवा अधिक से अधिक एक-दो दिन के लिए होता है, जबकि मनुष्य का जीवन 70-80 वर्षों तक चलता है। इस प्रकार यदि कोई पतंगा आज ही पैदा हुआ है, तो आज के लिए वह भी सत् है और मनुष्य भी। परंतु दो दिनों के बाद वह पतंगा असत् हो जायेगा, जबकि मनुष्य फिर भी सत् रहेगा। अब मनुष्य की आयु के सापेक्ष किसी चट्टान अथवा समुद्र की आयु को देखिए! मनुष्य तो 70-80 वर्षों में यह जगत् छोड़ देगा, लेकिन वह चट्टान और समुद्र इत्यादि तो न जाने कितने लाखों-करोड़ों वर्षों तक रहेंगे। इसी प्रकार इन चट्टानों और समुद्रों की अपेक्षाकृत यह सौर-मण्डल और यह ब्रह्माण्ड तो न जाने कितने वर्षों तक अस्तित्व में रहेंगे। इसीलिए यदि इसी भाव से समझें तो असत् वस्तु (पतंगा) तो अधिक समय नहीं रहेगी और सत् वस्तु (मनुष्य) तो हर क्षण उपलब्ध रहेगी। तत्त्व दर्शी अर्थात् जो लोग सत् वस्तु को खोजते हैं उनकी रुचि तो केवल सत् वस्तु को समझने और पाने में रहती है। जबकि सामान्य जन क्षणिक (असत्) वस्तुओं के बारे में विचार करने और उन्हें पाने तथा उपभोग करने में अपना समय व्यतीत करते हैं।
						
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