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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 61
आईएसबीएन :00000000

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।27।।

क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपायवाले विषय में तू शोक करने को योग्य नहीं है।।27।।

हम सभी का एकमत से अनुभव है कि हर वह वस्तु जो इस जगत् में जन्म लेती है। परिवर्तन के नियमानुसार विकास करती हुई शैशव, तरुण, युवा और वृद्धावस्था की आयु का अनुभवकरते हुए अपना समय पूरा कर मृत्यु को प्राप्त होती है। यह नियम संसार की हर वस्तु पर एक समान लगता है। आयु की सीमा अलग-अलग हो सकती है, परंतु इस संसार में कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है जो सृष्टि के आदि से उत्पन्न होकर आज तक उपस्थित हो। यह नियम निर्जीव वस्तुओं जैसे तारा, ग्रह और उल्काओँ आदि पर भी लगता है। इसी प्रकार निर्माण से पहले सफाई रूपी विनाश के बिना नवनिर्माण की संभावना नहीं होती है। जीवात्मा एक शरीर को छोड़कर किसी-न-किसी अन्य शरीर में पुनः जन्म लेता है। सृष्टि और प्रलय इस जगत् के अभिन्न अंग हैं, इसलिए इनके होने या न होने पर किसी प्रकार के शोक का औचित्य नहीं रह जाता है। ये हमेशा और अवश्यसंभावी हैं, इसलिए इन पर मनुष्य को कोई नियंत्रण नहीं है। चूँकि नियंत्रण नहीं है, इसलिए इनके विषय में शोक करने से कुछ बनने या बिगड़ने वाला नहीं और यह पूर्णतः निरर्थक है।

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।28।।

हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?।।28।।

सृष्टि का सृजन और प्रलय बार-बार होने वाली प्रक्रिया है। जिस प्रकार बीज से अंकुरित होकर पौधा बनता है, वह बढ़ता है और वृक्ष के रूप में वर्षों तक हमारे समक्ष रहता है, इसी प्रक्रिया के अंतर्गत एक दिन वह वृक्ष सूख कर अथवा आँधी इत्यादि में गिर जाता है। मृत हो वृक्ष अपने सभी अंगों समेत पुनः धरती में विलीन हो जाता है। किंतु इस बीच उसमें आये फूलों, फलों से बीज बनते हैं जो कि नये वृक्ष के रूप में धरती पर दिखते रहते हैं। इसी प्रकार अन्य प्राणी और मनुष्य भी जन्म-मृत्यु के चक्र में आते-जाते रहते हैं। समस्त सृष्टि इसी प्रकार सृजन और विध्वंस में लगी रहती है। अव्यक्त वस्तुएँ व्यक्त होती रहती हैं और व्यक्त वस्तुएँ अव्यक्त में विलीन होती रहती हैं। जीवनृ-मृत्यु के इस चक्र को जानने वाले व्यक्ति के लिए व्यक्त-अव्यक्त के इस आवागमन में किसी प्रकार के क्लेश का कोई प्रयोजन नहीं है।

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