लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 61
आईएसबीएन :00000000

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

23333 पाठक हैं

गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।57।।

जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है।।57।।

जब तक साधक परमात्मा के तत्त्व ज्ञान का साक्षात् अनुभव नहीं करता, तब तक उसके लिए शुभाशुभ प्रसन्नता और दुःख का कारण बनते रहते हैं, परंतु तत्त्व ज्ञानी (स्नेह अर्थात् अपनी इच्छा के विरुद्ध किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थित से गोंद की तरह चिपकना) न किसी में अतिशय आग्रह रखता है और न ही द्वेष। यह दोनों स्थितियाँ उसको प्रभावित नहीं करतीं, इसलिए उसकी बुद्धि अनायास ही स्थिर रहती है।

यदा संहरते चायं कूर्मोंऽगानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।58।।

और कछुवा सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिये)।।58।।

मानव मन और बुद्धि की विशेषता है कि वे कहीं-न-कहीं अटके रहते हैं। परंतु तत्त्व ज्ञान का प्रकाश हो जाने के पश्चात् व्यक्ति के समक्ष इस जगत् के सारे व्यवहार चलते रहते हैं, परंतु फिर भी उसके मन और बुद्धि इन विषयों में भटकने की अपेक्षा सच्चिदानन्द परमात्मा में स्वभावतः दृढ़ रहते हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book