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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 61
आईएसबीएन :00000000

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।56।।

दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है।।56।।

परमात्म ज्ञान को प्राप्त हुआ व्यक्ति दुःखों के उपस्थित होने पर भी अपने आत्म स्वरूप में स्थित हुआ इन दुःखों को अस्थायी मान कर उनके सहने योग्य हो जाता है। अन्य शब्दों में कहें तो दुःखों के उसके मन में उद्वेग नहीं होता। ठीक इसी प्रकार अकस्मात् किसी महान् सुख के उपस्थित हो जाने पर भी वह जानता है कि वह सुख भी सदा नहीं रहेगा। जब तक जीवन है तब तक सुख और दुःख का चक्र अनवरत् चलता रहेगा। इसलिए स्थिर बुद्धि व्यक्ति सुख की लहर आने पर भली-भाँति स्मरण रखता है कि जिस प्रकार दुःख आता-जाता है, उसी प्रकार सुख भी आता-जाता है। इसी प्रकार किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति आदि में उसे कोई राग अथवा द्वेष नहीं रहता। चूँकि स्थिर बुद्धि पुरुष को राग और द्वेष नहीं होता, इसलिए उसे किसी वांछित वस्तु के खो जाने का अथवा अवांछित वस्तु के अनायास प्राप्त होने का भय भी नहीं रहता। इसी प्रकार वांछित वस्तु के न मिलने से उत्पन्न होने वाले ऐसी स्थिति जो उसे क्रोधित कर दे इसकी संभावना भी नहीं रहती। कभी-कभी कतिपय लोग ऐसे जीवन को रसहीन समझते हैं, जिसमें राग-द्वेष और इसी प्रकार की अन्य उतार-चढ़ाव वाली भावनाएँ नहीं रहती हैं। परंतु इस बात को भी उसी तरह समझा जा सकता है कि युवा अवस्था में व्यक्ति दिन-रात मनोरंजन करने की इच्छा रखता है। चूँकि युवा अवस्था में शरीर में सामर्थ्य अधिक होता है और अधिकाधिक भोग चाहने की इच्छा बलवती होती है। साथ ही पार्टी करना, हर प्रकार का भोजन करना और शरीर तथा मन को उसकी सीमाओँ तक प्रयोग करना रोमांचकारी अनुभव देता है। परंतु लगातार इसी प्रकार के अनुभव करते-करते बुद्धिमान व्यक्ति इन अनुभवो से निर्लिप्त हो जाते हैं। इसे एक और उदाहरण से समझा जा सकता है। युवावस्था में कुछ लोगों को शक्कर और मिठाइयाँ आदि अत्यंत प्रिय होती हैं। परंतु उम्र बढ़ने के साथ यदि मधुमेह और रक्तचाप आदि के रोग उन्हें घेर लेते हैं, तो बुद्धिमान व्यक्ति अधिक शक्कर और अधिक नमक का प्रयोग बंद कर इन दोंनो स्वादों से रहित भोजन का अभ्यास कर लेते हैं और इस प्रकार उपयुक्त भोजन करते हुए अपने स्वास्थ्य को दीर्घायु तक अच्छा रखते हैं। उनके लिए स्वाद से अधिक स्वास्थ्य का महत्व हो जाता है और समय के साथ बदला हुआ स्वाद ग्राह्य हो जाता है। अर्थात् जीवन में समयानुसार किस रस का रसास्वादन करना है, यह बुद्धिमान व्यक्ति के लिए उसकी आवश्यकता न बनकर इच्छा मात्र रह जाती है।

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