मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2महर्षि वेदव्यास
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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।65।।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।65।।
अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर उसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो
जाता है और उस प्रसन्न चित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर
एक परमात्मा में ही भलीभांति स्थिर हो जाती है।।65।।
सामान्य जीवन में हम सभी को हमारे मन के उपयुक्त वस्तु के मिलने पर सुख और न मिलने पर दुःख, क्रोध आदि का अनुभव होता है। यह लगभग उसी तरह है, जैसे कि नित्य नशा करने वाला व्यक्ति जब तक मादक पदार्थ का सेवन नहीं कर लेता, तब तक उसका मन अशांत रहता है। इस नशे के प्रभाव में वह शांत तो हो जाता है, परंतु मादक पदार्थ के उपयोग के कारण उसके मन, बुद्धि और शरीर पर तो कुप्रभाव पड़ते ही हैं, बल्कि उसके परिवार के लोगों को भी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इन सबके विपरीत किसी प्रकार का नशा (यह नशा मादक पदार्थों का हो अथवा मानसिक द्वन्द्धों का) न करने वाले व्यक्ति के परिवार में सहज सुख का वातावरण बना रहता है। इंद्रियों के वश में कार्य करने वाला व्यक्ति अपनी इंद्रियों उद्वेग के कारण बोझ से दबा रहता है और इंद्रियों को वश में रखने वाला व्यक्ति स्वतंत्र रहता है और उसकी बुद्धि सहज ही परमात्मा में स्थित हो जाती है।
सामान्य जीवन में हम सभी को हमारे मन के उपयुक्त वस्तु के मिलने पर सुख और न मिलने पर दुःख, क्रोध आदि का अनुभव होता है। यह लगभग उसी तरह है, जैसे कि नित्य नशा करने वाला व्यक्ति जब तक मादक पदार्थ का सेवन नहीं कर लेता, तब तक उसका मन अशांत रहता है। इस नशे के प्रभाव में वह शांत तो हो जाता है, परंतु मादक पदार्थ के उपयोग के कारण उसके मन, बुद्धि और शरीर पर तो कुप्रभाव पड़ते ही हैं, बल्कि उसके परिवार के लोगों को भी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इन सबके विपरीत किसी प्रकार का नशा (यह नशा मादक पदार्थों का हो अथवा मानसिक द्वन्द्धों का) न करने वाले व्यक्ति के परिवार में सहज सुख का वातावरण बना रहता है। इंद्रियों के वश में कार्य करने वाला व्यक्ति अपनी इंद्रियों उद्वेग के कारण बोझ से दबा रहता है और इंद्रियों को वश में रखने वाला व्यक्ति स्वतंत्र रहता है और उसकी बुद्धि सहज ही परमात्मा में स्थित हो जाती है।
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम्।।66।।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम्।।66।।
न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका
बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती
तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे
मिल सकता है?।।66।।
जिस व्यक्ति का मन और इंद्रियाँ उसके वश में नहीं होतीं और उसे बारम्बार विभिन्न विषयों में आकर्षित करके उसे अपने पीछे आने के लिए विवश करती रहती हैं, उसकी बुद्धि इस प्रकार विभिन्न दिशाओँ में एक छोटे बच्चे की भाँति दौड़ती रहती है। इस अवस्था में यदि बुद्धि तीव्र हुई तो समस्या और भी गंभीर हो जाती है, क्योंकि सही दिशा न मिलने पर तीव्र बुद्धि अधिक कठिनाई का कारण बन जाती है। इसी प्रकार अयुक्त अर्थात् सच्चिदानन्द परमात्मा से न जुड़े हुए व्यक्ति के मन में उठने वाले भाव, भव-सागर के उतार-चढ़ाव में डूबते उतराते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति को शांति कदापि नहीं है। बिना शांति के मनुष्य को निर्मल आनन्द नहीं प्राप्त होता है।
जिस व्यक्ति का मन और इंद्रियाँ उसके वश में नहीं होतीं और उसे बारम्बार विभिन्न विषयों में आकर्षित करके उसे अपने पीछे आने के लिए विवश करती रहती हैं, उसकी बुद्धि इस प्रकार विभिन्न दिशाओँ में एक छोटे बच्चे की भाँति दौड़ती रहती है। इस अवस्था में यदि बुद्धि तीव्र हुई तो समस्या और भी गंभीर हो जाती है, क्योंकि सही दिशा न मिलने पर तीव्र बुद्धि अधिक कठिनाई का कारण बन जाती है। इसी प्रकार अयुक्त अर्थात् सच्चिदानन्द परमात्मा से न जुड़े हुए व्यक्ति के मन में उठने वाले भाव, भव-सागर के उतार-चढ़ाव में डूबते उतराते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति को शांति कदापि नहीं है। बिना शांति के मनुष्य को निर्मल आनन्द नहीं प्राप्त होता है।
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