मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2महर्षि वेदव्यास
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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।67।।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।67।।
क्योंकि जैसे जल में चलनेवाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही
विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है वह
एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है।।67।।
आपने अनुभव किया होगा कि हमारा मन दिन-रात हर समय इंद्रियों के वश में नहीं होता। परंतु नित्य प्रति किसी सुंदर द्श्य, किसी मनमोहक सुगन्ध, किसी अत्यंत प्रिय स्वादिष्ट भोजन के प्रभाव में भटक जाता है। यह भटकना वैसा ही है जैसे कि शांत नदी अथवा समुद्र में तैरती नाव, प्रचंड हवाओं के चलने पर पलट सकती है। जब किसी विशेष इंद्रिय के प्रभाव में आकर मन भटकता है तो वह अंततोगत्वा मनुष्य के कष्ट का कारण बनता है। एक साधारण उदाहरण से इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है। हममें से कई लोगों को मिष्ठान रुचिकर होते हैं, विशेषकर आपने देखा होगा कि त्यौहारों जैसे होली-दीपावली आदि के अवसर पर मिष्ठानों का आदान-प्रदान होता है। इस अवस्था में यदि आपको मिठाई रुचिकर है और आप स्वाद के लालच में अधिक मात्रा में मिठाई खा लेते हैं, तो अपच होने के फलस्वरूप शारीरिक कठिनाई हो जाती है। वयस्क लोग तो पिछले अनुभवों से याद रखते हैं, परंतु बच्चों से यह गलती हो जाती है। इसी प्रकार जीवन में अन्य इंद्रियों और मन पर नियंत्रण न रखने से वयस्क व्यक्तियों को भी कठिनाई उठानी पड़ती है, इसीलिए भगवान् कहते हैं, अयुक्त व्यक्ति की बुद्धि को भ्रमित करने के लिए एक इन्द्रिय भी पर्याप्त है।
आपने अनुभव किया होगा कि हमारा मन दिन-रात हर समय इंद्रियों के वश में नहीं होता। परंतु नित्य प्रति किसी सुंदर द्श्य, किसी मनमोहक सुगन्ध, किसी अत्यंत प्रिय स्वादिष्ट भोजन के प्रभाव में भटक जाता है। यह भटकना वैसा ही है जैसे कि शांत नदी अथवा समुद्र में तैरती नाव, प्रचंड हवाओं के चलने पर पलट सकती है। जब किसी विशेष इंद्रिय के प्रभाव में आकर मन भटकता है तो वह अंततोगत्वा मनुष्य के कष्ट का कारण बनता है। एक साधारण उदाहरण से इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है। हममें से कई लोगों को मिष्ठान रुचिकर होते हैं, विशेषकर आपने देखा होगा कि त्यौहारों जैसे होली-दीपावली आदि के अवसर पर मिष्ठानों का आदान-प्रदान होता है। इस अवस्था में यदि आपको मिठाई रुचिकर है और आप स्वाद के लालच में अधिक मात्रा में मिठाई खा लेते हैं, तो अपच होने के फलस्वरूप शारीरिक कठिनाई हो जाती है। वयस्क लोग तो पिछले अनुभवों से याद रखते हैं, परंतु बच्चों से यह गलती हो जाती है। इसी प्रकार जीवन में अन्य इंद्रियों और मन पर नियंत्रण न रखने से वयस्क व्यक्तियों को भी कठिनाई उठानी पड़ती है, इसीलिए भगवान् कहते हैं, अयुक्त व्यक्ति की बुद्धि को भ्रमित करने के लिए एक इन्द्रिय भी पर्याप्त है।
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।68।।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।68।।
इसलिये हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के
विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है।।68।।
भगवान् अर्जुन से कहते हैं, “हे महाबाहो, जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को संयमित रखता है, उसी की बुद्धि स्थिर रहती है।” इन्द्रियाँ स्वाभाविक रूप से अपने अर्थों अर्थात् उन वस्तुओं को खोजती हैं, जिनसे उनको रुचिकर वस्तु मिल सके। जो व्यक्ति इंद्रियों को उनके रुचिकर निवासों में जाने तो देता है, पर नियंत्रण से बाहर नहीं जाने देता, वही अपनी बुद्धि स्थिर रखकर इस जीवन में पूर्ण रूप से सानन्द जी पाता है। भगवान् कहते हैं, सर्वशः निगृहीत अर्थात् पूर्णरूप से नियंत्रण में रखने वाला ही स्थिर बुद्धि व्यक्ति है।
भगवान् अर्जुन से कहते हैं, “हे महाबाहो, जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को संयमित रखता है, उसी की बुद्धि स्थिर रहती है।” इन्द्रियाँ स्वाभाविक रूप से अपने अर्थों अर्थात् उन वस्तुओं को खोजती हैं, जिनसे उनको रुचिकर वस्तु मिल सके। जो व्यक्ति इंद्रियों को उनके रुचिकर निवासों में जाने तो देता है, पर नियंत्रण से बाहर नहीं जाने देता, वही अपनी बुद्धि स्थिर रखकर इस जीवन में पूर्ण रूप से सानन्द जी पाता है। भगवान् कहते हैं, सर्वशः निगृहीत अर्थात् पूर्णरूप से नियंत्रण में रखने वाला ही स्थिर बुद्धि व्यक्ति है।
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