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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 61
आईएसबीएन :00000000

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृह:।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।71।।

जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शान्ति को प्राप्त होता है अर्थात् वह शान्ति को प्राप्त है।।71।।

सभी कामनाओं का सर्वथा त्याग संभवतः मानव मात्र के लिए संभव नहीं है, परंतु ज्ञानीजन कहते हैं कि उन सभी कामनाओं पर नियंत्रण पाना चाहिए, जो कि बंधनकारी हैं। उदाहरण के लिए मुझे अमुक लॉटरी मिले अथवा कोई विशेष प्रकार का यश, नौकरी आदि मिले। किसी व्यक्ति विशेष से विवाह हो सके, इस प्रकार की अन्य सभी कामनाएँ आपके अधिकार में नहीं होतीं और इस प्रकार की कामनाओँ के पूरा होने की कोई निश्चित गति नहीं होती। यदि आप ऐसी कोई भी कामना करते हैं, जिसे पूरा होना आपके लिए अत्यंत आवश्यक है और आपके बने-बनाए काम बिगड़ जायेंगे, तो ऐसी हर कामना आपके लिए बंधनकारी है। इस स्थिति में आप इस कामना को पूरा करने के लिए विकल रहेंगे। हमें जानना चाहिए कि कर्मयोग के सिद्धान्त के अनुसार आपके सभी कर्मों का फल आपके आज के प्रयासों और पूर्व-संचित कर्मो का मिला-जुला योग होता है। ऐसा नितांत संभव है कि आप किसी कामना को पूरा करने के लिए सर्वथा योग्य हों, फिर भी वह कामना पूरी न हो सके। ऐसा इसलिए हो सकता है कि आपके पूर्व कर्म, चाहें वे कर्म इस जन्म के हों अथवा पिछले जन्मों के, इस सफलता में बाधक हो सकते हैं। इसलिए, आपके सारे प्रयासों के बाद भी यह संभव है कि आपको किसी विशेष कामना की पूर्ति में सफलता न मिले। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि आपको पूरे मन से प्रयास नहीं करना चाहिए, वरन् इसका अर्थ यही है कि, ममत्व अर्थात् ममता से रहित होकर, अपनी सामर्थ्य पर आवश्यकता से अधिक निष्ठा न रखकर, अहंकार रहित तथा कर्मफल से निस्पृह रहते हुए पूरे मन से कार्य की सफलता के लिए प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि कर्म करना हमारे वश में है, फल सभी संभावनों के अधिकार में है, फल हमारी इच्छानुसार भी हो सकता है और उसके विपरीत भी। जब व्यक्ति इस निश्चय से कार्य करता है और फल से ममत्व, अहंकार और स्पृहारहित होता है, तब वह अपने मन को सुगम अथवा विपरीत दोनों परिस्थितियों में शान्त बना पाता है।

एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।72।।

हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अन्तकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है।।72।।

अपने वास्तविक स्वरूप को जानकर तथा उस वास्तविक रूप के प्रसार को समझने के कारण वह ब्रह्म स्थिति में पहुँच जाता है। आप समझ सकते हैं कि जब आपको अपने अनुकूल और विपरीत दोनों परिस्थितियाँ उद्विग्न नहीं करतीं और आप दोनों को एक-सा समझ कर उन परिस्थितियों में सामान्य व्यवहार स्वतः करने लगते हैं, तब आपको सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि व्यथित नहीं करते। इस प्रकार धीरे-धीरे आप ब्रह्म को वास्तविक रूप में समझते हुए उस अवस्था के सहज आनन्द को प्राप्त करते हैं। यह अवस्था श्रवण, मनन और सतत् निधिध्यासन से ही प्राप्त होती है, क्योंकि यह अनुभूत ज्ञान को सदा धारण किये रहने से ही संभव होता है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे साङ्ख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्याय:।।2।।

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