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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 61
आईएसबीएन :00000000

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।69।।

सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान् सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्त्व को जाननेवाले मुनि के लिये वह रात्रि के समान है।।69।।

रात्रि का अर्थ है आराम का समय, अंधकार अथवा अज्ञान की अवस्था। साधारणतः हमारा सारा ध्यान इस संसार की विभिन्न वस्तुओं में केंद्रित रहता है। हम वानरों की तरह इस संसार वृक्ष की एक डाल से दूसरी डाल पर आते-जाते रहते हैं। आपने अनुभव किया होगा कि सुबह उठते ही हमारे मन में अपने जीवन के सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि की जो अनवरत् प्रक्रिया आरंभ होती है, उसके चलते एक विचार से दूसरे विचार, और दूसरे विचार से तीसरे विचार पर जाती रहती है। साधारण अवस्था में परमात्मा के विषय में हमारे अज्ञानरूपी निशा चलती ही रहती है। परंतु सतत् साधना से हमारा मन और बुद्धि, इंद्रियों के प्रभाव से मुक्त होते जाते हैं। धीरे-धीरे शांत हुए मन में इस जगत् और परमात्मा को अपने वास्तविक रूप में देख सकने का विवेक जागृत होता है। इस अवस्था में पहुँचने के पश्चात् इंद्रिय व्यवहार से चलने वाले जगत् में हमारा ध्यान क्रमशः कम होता जाता है और इंद्रिय व्यवहार से संचालित संसार हमारे लिए रात्रि के समान उपभोग की वस्तु नहीं रह जाता।
 
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।70।।

जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठावाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परमशान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहनेवाला नहीं।।70।।

जब तक जीवन है, इंद्रियाँ हैं, मन है। वास्तविकता में यही इंद्रियाँ और मन ही हमें मानव बनाते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि पशुओँ में इंद्रियों का कार्यकलाप तो है, परंतु मन का प्रभाव सीमित और अल्प मात्रा में होता है। इसलिए इंद्रियों और मन का कार्यकलाप नदियों के बहते हुए जल के समान है, जो कि निरंतर यात्रा करता है और नये-नये पड़ावों पर पहुँचता रहता है। परंतु मन और इंद्रियों के उतार-चढ़ाव में भ्रमित होने से हम विह्वल हो जाते हैं। इसलिए इन उतार चढ़ावों को हमें उसी प्रकार धारण करना चाहिए, जिस प्रकार सागर अनवरत् अपने में मिलने वाली नदियों के जल को समाहित कर लेता है। यह तभी हो सकता है, जब हम स्वंय को नियंत्रण में रखें।

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