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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 61
आईएसबीएन :00000000

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गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् कृष्ण सम्पूर्ण गीता का ज्ञान संक्षेप में अर्जुन को देते हैं। अध्यात्म के साधकों के लिए साधाना का यह एक सुगम द्वार है।


श्रीभगवानुवाच

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।11।।


श्रीभगवान् बोले - हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिये शोक करता है और पण्डितों के-से वचनों को कहता है; परंतु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते।।11।।

प्रज्ञा (ज्ञ अर्थात् ज्ञान और प्र उपसर्ग लगा देने से ऐसा ज्ञान जिसका महत्व हर प्रकार से बढ़ गया हो) अर्थात् लौकिक ज्ञान से परिपूर्ण बुद्धि, वह बुद्धि जो कि व्यक्ति के संपूर्ण ज्ञान का आधार होती है। सभी बुद्धिमान व्यक्ति जानते हैं कि मनुष्य का जीवन नाशवान है, ऐसा कोई भी, कभी-भी नहीं हुआ है, जो मृत्यु को न प्राप्त हुआ हो। मृत्यु हर प्राणी के लिए अवश्यंभावी है, इसलिए ज्ञानी अथवा बुद्धिवान अर्थात् प्रज्ञावान व्यक्ति भूतकाल में मरे हुए और आज के समय में और भविष्य में मरने वाले लोगों की मृत्य को जीवन का सत्य समझ कर स्वीकार कर लेते हैं। किसी की मृत्यु पर दुःख होना स्वाभाविक है, परंतु मृत्य एक शाश्वत सत्य है जिसे सभी बुद्धिवान व्यक्ति स्वीकारते हैं। भगवान् कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि एक ओर तो वह प्रज्ञावादियों के वचन कहता है, परंतु वहीं, दूसरी ओर मनुष्यों के जीवन के लिए शोक करता है। यथार्थ में नाशवान मनुष्यों के लिए शोक का कोई विशेष कारण नहीं बनता।

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।12।।


हमारे पूर्वज ज्ञानियों ने यह निश्चित रूप से माना है कि आदि काल से ऐसा कभी भी नहीं हुआ है जब मैं या तुम नहीं थे और न ही भविष्य में कभी ऐसा होगा। संक्षेप में, ऐसा कोई समय नहीं हुआ है जब तुम अथवा ये राजा लोग नहीं थे।
न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।।12।।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह स्मरण दिलाते हैं कि हमसे पहले इस धरती पर जन्म लेने वाले हमारे पूर्वजों में से सभी ज्ञानी लोगों का यह सुदृढ़ मत रहा है कि, साधारण व्यक्ति से लेकर राजाओं तक, हम सभी का न तो जन्म होता है और ही नाश (मृत्यु)। अर्थात् हम भूतकाल, वर्तमान और भविष्य सभी में विद्यमान रहते हैं। समय का यह चक्र निरतर चलता रहता है और इस चक्र में मनुष्य शरीर रूप में बार-बार जन्म लेता है और हर बार उसके जन्मे हुए, इस शरीर की मृत्यु होती रहती है। अपने-अपने कर्मों के अनुसार हम जन्म और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। हमने पहले भी जन्म लिए और आगे भी जन्म लेते रहेंगे।

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