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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 67
आईएसबीएन :00000000

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यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।23।।


क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।।23।।

भगवान् के कर्म ही इस सृष्टि का निर्माण, संचालन और अन्त करते हैं। हर कल्प में सृष्टि किन मूलभूत नियमों के आधार पर होगी और किस प्रकार चलेगी यह भगवान् के कर्मों से ही निर्धारित होता है। ब्रह्माण्ड का प्रत्येक अणु, परमाणु, इलेक्ट्रॉन अथवा क्वार्क इत्यादि सभी हर कल्प के नियमों से बंधे हुए सृष्टि को चलाते और धारण करते हैं। जिस जीवन और जगत् को हम अपने लिए स्वतः उपलब्ध मानते हैं, और जिसके कारण हम अपना जीवन इस धरती पर इतनी सुविधा से चलाते रहते हैं, वह जीवन वास्तविकता में भौतिक, रासायनिक, जैविक और मानसिक नियमों से संचालित इन सबका एक अति विशिष्ट और सूक्ष्म संतुलन है। यदि यह संतुलन निमिष के एक अति सूक्ष्म भाग के लिए भी बिगड़ जाये तो यह जगत्, जो कि हमें अत्यंत सुरक्षित और सदा इसी तरह बना रहने वाला लगता है, एक क्षण में ही विलुप्त हो सकता है। भगवान् अपने कर्मों को कितनी सावधानी से करते रहते हैं, इसका महत्व हम इस जगत् के सुचारू संचालन को देखकर सहज ही समझ सकते हैं। चूँकि भगवान् के सतत् ध्यानपूर्वक किये गये कर्मों से यह जगत् हमारे सामने यथावत बना हुआ है, वातावरण की वायु से हमें आक्सीजन मिल रही है, जल मिल रहा है, स्वास्थ्यप्रद वनस्पतियाँ मिल रही हैं, इसलिए हम भगवान् का अनुसरण करते हुए जीवन को सहज भाव से जी पा रहे हैं। हमारे लिए यह सब तैयारी है, इसलिए हम भी भगवान् का अनुसरण करते हुए अपने कर्म कर रहे हैं। हम संभवतः इन बातों पर सूक्ष्म रूप से ध्यान नहीं देते, परंतु भगवान् के कर्मों के कारण ही इस जीवन चक्र में हम भी अपने कर्मों को कर पा रहे हैं। भगवान् कहते हैं कि यदि मैं ठीक से अपने कर्म न करूँ तो मनुष्य जो कि मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं, वे भी असक्त हो जायेंगे और अपने विकास के मार्ग से भटक जायेंगे।

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