मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3महर्षि वेदव्यास
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह:।।35।।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह:।।35।।
अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित
भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे
का धर्म भय को देनेवाला है।।35।।
धर्म शब्द के कई अर्थ हैं, यहाँ धर्म का अर्थ उस विचार धारा अथवा ज्ञान से है जिसे व्यक्ति अपनी बुद्धि में धारण कर पाता है, धारण करने योग्य होता है, अथवा जिसे उसकी बुद्धि स्वभावगत विधि से सहज भाव से करने में समर्थ होती है। उदाहरण के लिए कुछ लोगों को बिना समुचित आधार अथवा तर्क की पृष्ठभूमि के कोई नया विचार सहज ग्रहण नहीं होता। उनके लिए हर बात को तर्क की कसौटी पर तौलना आवश्यक होता है।
वहीं इसके विपरीत कुछ लोगों को हर कार्य के लिए बुद्धि की समीक्षा की आवश्यकता नहीं होती। कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें इस प्रकार के व्यक्तियों के लिए बिना कोई प्रश्न किये मान लेना ही सहज होता है। वे हर परिस्थिति में तर्क के उपयोग को अनावश्यक समझते हैं।
अब यदि हम इन दोनों के प्रकार के व्यक्तियों को उनकी सहज विचार धारा से भिन्न तर्क अथवा विश्वास को मान लेने के लिए कहें तो दोनों ही प्रकार के व्यक्तियों के लिए अत्यंत विषम परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है। अब यदि तार्किक व्यक्ति से यह कहा जाये कि वह बिना तर्क के विश्वास कर ले, और कदाचित तार्किक व्यक्ति किसी कारणवश बिना तर्क करते हुए मात्र विश्वास को बहुत अच्छी तरह आचरण करते हुए करे तो भी वह हमेशा उलझन और मानसिक कठिनाई में रहेगा।
इसी प्रकार यदि भोले मन का और सहज विश्वास करने वाला व्यक्ति तार्किक की भाँति तर्क करना चाहे तो वह शीघ्र ही जीवन से त्रस्त हो जायेगा।
इसीलिए राग-द्वेष के वश में होकर दूसरे के धर्म के अपनाने की अपेक्षा, अपने स्वाभाविक धर्म को जीवन में धारण करते हुए मरना अधिक कल्याणकारक है। दूसरे का धर्म अच्छी तरह अपनाया जाने पर भी संताप देने वाला हो जाता है।
इस श्लोक का एक गंभीर अर्थ इस प्रकार भी है। राग-द्वेष से प्रभावित व्यक्ति अपने स्वधर्म अर्थात् आत्मा को छोड़कर अन्य लोगों की भाँति परधर्म अर्थात् इस जगत् में होने वाले सारे क्रिया-कलापों में ही डूबा रहता है। भगवान् कहते कि परधर्म को छोड़कर स्वधर्म अर्थात् परमात्नुभव की साधना करना श्रेयस्कर है।
धर्म शब्द के कई अर्थ हैं, यहाँ धर्म का अर्थ उस विचार धारा अथवा ज्ञान से है जिसे व्यक्ति अपनी बुद्धि में धारण कर पाता है, धारण करने योग्य होता है, अथवा जिसे उसकी बुद्धि स्वभावगत विधि से सहज भाव से करने में समर्थ होती है। उदाहरण के लिए कुछ लोगों को बिना समुचित आधार अथवा तर्क की पृष्ठभूमि के कोई नया विचार सहज ग्रहण नहीं होता। उनके लिए हर बात को तर्क की कसौटी पर तौलना आवश्यक होता है।
वहीं इसके विपरीत कुछ लोगों को हर कार्य के लिए बुद्धि की समीक्षा की आवश्यकता नहीं होती। कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें इस प्रकार के व्यक्तियों के लिए बिना कोई प्रश्न किये मान लेना ही सहज होता है। वे हर परिस्थिति में तर्क के उपयोग को अनावश्यक समझते हैं।
अब यदि हम इन दोनों के प्रकार के व्यक्तियों को उनकी सहज विचार धारा से भिन्न तर्क अथवा विश्वास को मान लेने के लिए कहें तो दोनों ही प्रकार के व्यक्तियों के लिए अत्यंत विषम परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है। अब यदि तार्किक व्यक्ति से यह कहा जाये कि वह बिना तर्क के विश्वास कर ले, और कदाचित तार्किक व्यक्ति किसी कारणवश बिना तर्क करते हुए मात्र विश्वास को बहुत अच्छी तरह आचरण करते हुए करे तो भी वह हमेशा उलझन और मानसिक कठिनाई में रहेगा।
इसी प्रकार यदि भोले मन का और सहज विश्वास करने वाला व्यक्ति तार्किक की भाँति तर्क करना चाहे तो वह शीघ्र ही जीवन से त्रस्त हो जायेगा।
इसीलिए राग-द्वेष के वश में होकर दूसरे के धर्म के अपनाने की अपेक्षा, अपने स्वाभाविक धर्म को जीवन में धारण करते हुए मरना अधिक कल्याणकारक है। दूसरे का धर्म अच्छी तरह अपनाया जाने पर भी संताप देने वाला हो जाता है।
इस श्लोक का एक गंभीर अर्थ इस प्रकार भी है। राग-द्वेष से प्रभावित व्यक्ति अपने स्वधर्म अर्थात् आत्मा को छोड़कर अन्य लोगों की भाँति परधर्म अर्थात् इस जगत् में होने वाले सारे क्रिया-कलापों में ही डूबा रहता है। भगवान् कहते कि परधर्म को छोड़कर स्वधर्म अर्थात् परमात्नुभव की साधना करना श्रेयस्कर है।
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